गणेशोत्सव । “Ganesh Chaturthi” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. गणेशजी से सम्बन्धित पौराणिक गाथाएं ।
3. गणेशोत्सव मनाने सम्बन्धी तैयारियां ।
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4. गणेशोत्सव का महत्त्व ।
5. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
उत्सवों के देश भारतवर्ष कोई गाथा अवश्य प्रचलित है । इस तरह गणेशोत्सव मनाने के पीछे जहां कुछ पौराणिक गाथाएं हैं, वहीं ऐतिहासिक गाथा भी है । हमारे देश में गणेशोत्सव का प्रारम्भ लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने किया था ।
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उनके इस आयोजन का उद्देश्य राष्ट्रीयता से जुड़ा हुआ था । इस सार्वजनिक उत्सव के माध्यम से लोगों को एकत्र करना था । एक स्थान पर धार्मिक पूजा-पाठ अनुष्ठान के बहाने एकत्र हुए लोगों पर अंग्रेज सरकार उस समय कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती थी । यह धार्मिक परम्परा, राष्ट्रीय जन एवं जागृति का भी तत्कालीन समय में एक सबल माध्यम रही है ।
गणेशोत्सव में जनसभा उस समय अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द करने हेतु राष्ट्रीय आन्दोलनकारियों को अच्छा मंच और अवसर मिला था । वर्तमान में इसका स्वरूप धार्मिक आयोजन बन गया है । हिन्दू धर्म के प्रति अपना अगाध श्रद्धा-भाव रखने वाले लोग विघ्नहर्ता, संकटमोचन, दुःखमोचन गणेशजी की पूजा और आराधना चौदह दिनों तक, अर्थात अनन्त चतुर्दशी तक करते हैं । सभी अपनी मनोकामना पूर्ण करने हेतु मंगलमूर्ति गणेशजी से प्रार्थना करते हैं ।
2. गणेशजी से सम्बन्धित पौराणिक गाथाएं:
सिद्धिविनायक, एकदंत, दयावंत, संकटहर्ता, गजानन, ऋद्धि-सिद्धि दाता गणेशजी की पूजा या आराधना हिन्दू धर्म में सभी देवी-देवताओं से पूर्व की जाती है, जो ”श्री गणेशाय नम:” से प्रारम्भ होती है । हमारे सभी धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्य गणेशजी की पूजा से आरम्भ होते हैं, जो शिव-पार्वती के पुत्र है ।
ऐसी धार्मिक मान्यता है कि गणेशजी की उत्पत्ति पार्वतीजी के शरीर के मैल से हुई है । गणेशजी के गजवदन होने के सम्बन्ध में यह कथा प्रचलित है कि एक दिन पार्वतीजी घर के भीतर स्नान कर रही थीं । उन्होंने गणेशजी को यह कहकर बाहर खड़ा कर दिया कि किसी को भीतर न आने देना; क्योंकि वे स्नान कर रही हैं । इधर संयोग कुछ ऐसा हुआ कि शिवजी तपस्या करके घर की ओर आ रहे थे ।
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घर आकर उन्होंने पार्वतीजी को पुकारा । स्नान कर रहीं पार्वतीजी के पुत्र गणेशजी ने भीतर जाते हुए शिवजी को रोका । शिवजी ने गणेश को बहुत समझाया-बुझाया, किन्तु फिर भी जब बात नहीं बनी, तो शिवजी ने अपना शक्ति प्रदर्शन किया ।
गणेशजी भी कुछ कम नहीं थे । भगवान शिव ने क्रोधवश गणेशजी का शिरोच्छेद कर डाला । स्नान कर बाहर आयीं पार्वतीजी ने जब इस दृश्य को देखा, तो वे शोक से संतप्त हो उठीं । पुत्र-वध से शोकाकुल पार्वतीजी की यह दशा शिवजी से नहीं देखी गयी । उन्होंने गणेशजी को जीवित करने की ठान ली । अब आवश्यकता इस बात की थी कि तत्काल ही किसी जीवित प्राणी का सिर मिल जाये ।
सौभाग्य से शिवजी को एक हाथी का शावक दिखाई पड़ा । वे उसका सिर काट लाये और बालक गणेशजी के धड़ से जोड़ दिया । अपने सुन्दर पुत्र गणेशजी को इस तरह ‘गजवदन’ देखकर पार्वती कुछ सोच में थीं, किन्तु उसे जीवित पाकर वह प्रसन्न हो गयीं ।
पार्वतीजी के मन की बात ताड़कर शिवजी ने पार्वतीजी को यह वरदान दिया कि गणेशजी की पूजा सभी देवी-देवताओं से पूर्व होगी, तब तक कोई भी पूजा या स्मरण तक फलीभूत नहीं होगा । अत: किसी भी शुभ कार्य या धार्मिक अनुष्ठान में सर्वप्रथम गणेशजी की पूजा होती है, अन्यथा वह पूजा स्वीकार नहीं होती ।
गणेशजी जितने अधिक मातृभक्त थे, उतने ही पितृभक्त भी थे । एक बार की बात है । कार्तिकेय और गणेशजी में इस बात को लेकर प्रतियोगिता होने लगी कि पृथ्वी की प्रदक्षिणा कौन सबसे पहले पूरी करेगा ? गणेशजी अपने वाहन मूषक पर सवार होकर पहले पहुंचेंगे या कार्तिकेय अपने वाहन मयूर पर ?
गणेश जैसे बुद्धिमान देवता के आगे किसकी, कब चलती ? उधर कार्तिकेयजी अपने मयूरवाहन पर पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने चल दिये । गणेशजी ने अपने माता-पिता-शिवजी एवं पार्वतीजी-का चक्कर लगा लिया और देवताओं के समक्ष जा खड़े हुए । उनसे कहा: ”मैंने पृथ्वी की प्रदक्षिणा सर्वप्रथम कर डाली है ।” उन्होंने तर्क दिया कि उनके माता-पिता ही उनकी दुनिया हैं ।
माता-पिता की प्रदक्षिणा, यानी पृथ्वी की प्रदक्षिणा करना । शिव-पार्वती भी उनकी बुद्धि की चतुराई पर चकित थे । वे भला क्या कहते ? यह भी माना जाता है कि गणेशजी की लिखने की गति इतनी तीव्र थी कि कोई भी उनकी तुलना में इतनी अधिक तेजी से नहीं लिख पाता था । वह भी एकदम सुलेख अक्षरों में । अठारह पुराण और महाभारत महर्षि वेदव्यास ने गणेशजी से ही लिखवाये ।
3. गणेशोत्सव मनाने सम्बन्धी तैयारियां:
गणेशोत्सव मुख्य रूप से महाराष्ट्र में मनाया जाने वाला उत्सव है, किन्तु अब ये सम्पूर्ण प्रान्तों में मनाया जाता है । गणेशजी की पूजा के साथ ही हमारे देश में गणेशोत्सव मनाने से पूर्व श्रद्धालुजन गणेशजी की छोटी-बड़ी मूर्तियों को स्थापित करते हैं । कुछ अपने घरों में ही गणेशजी की मूर्तियां स्थापित करते हैं, तो कुछ लोग सार्वजनिक रूप से चंदा इकट्ठा करके गणेशजी को बैठाते है ।
पूर्ण विधि-विधान एवं षोडशोपचार से उनकी पूजा कर प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं । साथ ही सुन्दर एवं भव्य झांकियां भी सजाते हैं । सांस्कृतिक आयोजन, भजन, कीर्तन करते हैं । स्थापित होने के 14 दिन बाद तो कोई 3 या 5 दिनों बाद उन्हें विसर्जित कर देते हैं और यह मंगलकामना करते हुए कहते हैं ”मंगलमूर्ति मोरया पुढच्या वर्षी लवकर या ।”
अर्थात् हे मंगलमूर्ति मोरया, आप अगले बरस जल्दी आना । पूर्ण, मुम्बई जैसे शहरों पर विसर्जन के समय लोगों का अपार जन-समुद्र मानो उमड़ आता है । भक्ति के रस में सरोबार श्रद्धालुगण नाचते-गाते उन्हें विदा करते हैं ।
4. गणेशोत्सव का महत्त्व:
गणेशोत्सव जहां राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक उत्सव था, वहीं अब इसका धार्मिक महत्त्व भी है । गणेशोत्सव का महत्त्व संकटमोचन गणेशजी की पूजा-वन्दना के माध्यम से अपने पापों का प्रायश्चित कर बाधाओं और संकटों को दूर करने से है ।
गणेशोत्सव से एक धार्मिक एवं सामाजिक सद्भाव का वातावरण तैयार होता है । मूर्तिकार तथा मण्डप की शोभा करने वाले, झांकियां स्थापित करने वाले कुशल कारीगरों को काम मिलता है, साथ ही धन भी । इस अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम समसामयिक घटनाओं के प्रति जन-मानस को आकर्षित करते हैं । ऐसे आयोजनों के माध्यम से लोगों के जीवन को सरसता एवं शान्ति प्राप्त होती है ।
5. उपसंहार:
इस तरह गणेशोत्सव के इस धार्मिक आयोजन का अपना ही ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व है । श्रद्धा-भक्ति से सभी को सरोबार कर देने वाला यह उत्सव ‘गणेशजी’ के प्रति हिन्दुओं तथा सभी धर्म के लोगों का अटूट आस्था भाव प्रकट करता है ।
संकटमोचन, गजवदन गणेशजी की पूजा एवं आराधना हमें यह प्रेरणा भी देती है कि हमारी संस्कृति में बाह्य रूप, सौन्दर्य को श्रद्धा-भाव से नहीं देखा जाता है, अपितु उसके आन्तरिक गुणों एवं कर्म की शुद्धता ही आस्था का एक भाव है ।