भ्रूण हत्या और बढ़ता जनसंख्या असंतुलन पर अनुच्छेद । Paragraph on “Feticide and Growing Population Imbalance” in Hindi Language!
जनसंख्या के ताजा आंकड़ों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि देश में बेटियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है । स्त्री व पुरुष के बीच का अन्तर लगातार बढ़ता जा रहा है । बढ़ते जनसंख्या असंतुलन का मुख्य कारण है, भ्रूण हत्या । भ्रूण हत्या का कारण है हमारी परम्परागत सोच । बेटा नहीं होगा तो वंश कैसे चलेगा ? बुढ़ापे में सहारा कौन देगा ? चिता में आग कौन लगायेगा ?
बेटा बड़ा होकर बुढ़ापे का सहारा बने या न बनें, बेटी बेटे से कहीं ज्यादा बुजुर्गों की देखभाल करती हो परन्तु उसे तो दूसरों के घर जाना है, भगवान न करे कि बेटी के घर का पानी पीना पड़े । यह सोच 21वीं सदी के भारत में उसी प्रकार बनी हुयी है जैसे कि परम्परागत प्राचीन भारत में थी ।
बेटी चाहे कल्पना चावला होकर अंतरिक्ष में जाये या आर्मी मेडिकल कोर की प्रमुख के रूप में लेफ्टीनेंट जनरल बन जाये या फिर संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली पुलिस अधिकारी किरण बेदी हो या उत्तरांचल पुलिस की डायरेक्टर जनरल चौधरी बन जाये परन्तु हमारी सोच न ही बदली और न ही बदलती हुई लग रही है ।
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आंकड़े साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि देश में स्त्री पुरुष का संतुलन पूरी तरह से बिगड़ चुका है । यहाँ तक कि हजार पुरुष के पीछे सिर्फ 933 स्त्रियाँ रह गई हैं । पिछले एक सौ सालों में हर दशक में यह संख्या लगातार गिरती जा रही है ।
1901 की जनसंख्या के मुताबिक अंग्रेजी शासन के दौरान प्रति एक हजार पुरुष के पीछे महिलाओं की संख्या 972 थी जो कि 1911 में घटकर 964 रह गई । यह संख्या उत्तरोत्तर घटती जा रही है । 1921 में 955, 1931 में 950 और 1941 में 945 रह गई । 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ । 1951 की जनगणना के अनुसार 946 स्त्रियाँ पायी गईं । 1961 में यह संख्या घटकर 941, 1971 में 930, 1981 में 934, 1991 में 927 तथा 2001 में 933 हो गई ।
देश में केरल ही मात्र एक ऐसा राज्य है जहाँ प्रति एक हजार पुरुषों के बीच स्त्रियों की संख्या अधिक है । अन्यथा अन्य सभी राज्यों में पुरुष की तुलना में स्त्रियों की संख्या कम है तथा दशक दर दशक यह असंतुलन बढ़ रहा है ।
जनगणना आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार केरल के हिन्दुओं में प्रति 1000 पुरुष के पीछे 1058 महिलाएँ हैं । धर्म के आधार पर देखें तो केवल ईसाई धर्म में ही प्रति हजार पुरुष के पीछे 1009 स्त्रियाँ हैं, यह संतुलन स्त्रियों के पक्ष में कहा जा सकता है अन्यथा सभी धर्मों में स्थिति पुरुष के पक्ष में ही है ।
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मुस्लिम आबादी के नजरिए से यदि दृष्टिपात किया जाता है तो केरल, पांडिचेरी, तमिलनाडु तीन ऐसे राज्य हैं जहां कि 1000 पुरुषों के पीछे क्रमश: 1097, 1010 और 1020 स्त्रियां हैं । अन्य सभी राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों में असंतुलन की स्थिति साफ है ।
देश में स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ते असंतुलन का मुख्य कारण गर्भ में पल रहे बच्चे को कन्या जानकर उसका गर्भपात कराना या फिर जन्म ले लेने की स्थिति में उसके लालन-पालन में असावधानी बरतने से उसकी मौत हो जाना है । एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक साल औसतन 50 हजार गर्भपात इसलिए कराए जाते हैं क्योंकि बहू के पेट में पल रहा शिशु कन्या है ।
1997 में देश में 40 लाख गर्भपात गैर कानूनी तरीके से गर्भ नष्ट किए जाने का अनुमान है जिसमें 90 प्रतिशत का कारण गर्भस्थ शिशु का बेटी होना था । इस अनचाही बेटी के गर्भ में आते ही उसे जन्म लेने से पहले ही मौत के मुँह में भेज दिया जाता है । इसे भूण हत्या का नाम दिया जाता है ।
देश का संविधान मनुष्य के जीवन के अधिकार को उसका मूल अधिकार मानता है । संविधान कहता है कि कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अतिरिक्त किसी को भी जीवन या स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है । लेकिन क्या देश की बेटी को संविधान के अनुच्छेद 21 में उपलब्ध यह अधिकार मिल पा रहा है ?
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सत्यता तो यह है कि मानव मात्र के लिए बेटी का होना आवश्यक है । बेटियों के न होने की स्थिति में भाई की कलाई पर राखी कौन बांधेगा ? बेटे के लिए बहू कहाँ से आयेगी ? मंगल चार कौन गाएगा ? बहू की अगवानी कौन करेगा ?
तथा सबसे महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि अगली पीढ़ी आयेगी कहाँ से ? अगली पीढ़ी के लिए माँ की कोख कौन उपलब्ध करायेगा ? बेटी को जन्म लेने और पैदा होने के बाद उसके जीवन को सुरक्षित नहीं रखने का अर्थ है अगली पीढ़ियों के जीवन के अधिकार का हनन ।
यदि हमें अगली पीढ़ी चाहिए तथा उसके जीवन को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो आज की बेटी को जीने का अधिकार हमें देना ही होगा । सामान्यत: विज्ञान के आविष्कार और संसाधन मानवता के कल्याण के लिए है लेकिन गर्भस्थ शिशु की लिंग सम्बन्धी जाँच का यह अनुसंधान अत्यधिक घातक साबित हो रहा है । लगभग दो दशक पूर्व आया यह अनुसंधान है अल्ट्रासाउंड ।
अल्ट्रासाउंड एक ऐसी तकनीक है जो कि यह बता सकती है कि माँ के गर्भ में स्थित सन्तान बेटा है या बेटी । यह तकनीक वास्तव में विकसित तो इसलिए की गई थी कि गर्भस्थ शिशु स्वस्थ है या नहीं या फिर गर्भ में उसकी स्थिति कैसी है ? परन्तु आमतौर पर इसका उपयोग लिंग जाँच के लिए किया जाने लगा ।
सरकार द्वारा इस लिंग जाँच पर प्रतिबंध लगा दिये जाने पर भी कहीं चोरी छिपे और कहीं-कहीं खुलेआम इस तकनीक का दुरुपयोग हो रहा है । भारत में इस तकनीक के आगमन और विकास पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि इसका उपयोग प्रथम बार 1975 के आस-पास शुरू हुआ था ।
यह समस्या करीब तीन दशक पुरानी ही है परन्तु इसके घातक परिणाम हमारे समक्ष कई दशकों जैसे हैं । फोरम अगेन्स्ट सेक्स डिटरमिनेशन एण्ड प्रीसेसेक्शन जैसे स्वयं सेवी संगठनों ने उसके खिलाफ जनजागरण अभियान को घर-घर पहुँचाने में मदद की है ।
सरकार की ओर से इस सामाजिक बुराई को रोकने के लिए दो कानून बनाये गये हैं । इनके नाम हैं: द प्रीनेटेल डायगनेस्टिक टेक्नीक एक्ट 1994 और मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिग्नेंसी एक्ट । पहले कानून को बनाने का उद्देश्य ही इस तकनीक के दुरुपयोग को रोकना था ।
इस कानून के तहत गर्भ के बारे में किसी भी प्रकार की जाँच करने से पहले माँ की लिखित मंजूरी आवश्यक थी । दूसरे लिंग जाँच पर रोक लगा दी गई थी । इस प्रकार की जाँच करने वाले डॉक्टरों पर सजा व जुर्माना किए जाने की व्यवस्था की गई थी ।
अल्ट्रासाउण्ड की जांच करने वाले क्लीनिकों के बाहर यह लिखा जाना अनिवार्य बना दिया गया था कि उनके यहाँ लिंग जाँच नहीं की जाती । ऐसा करना गैर कानूनी है । पहली बार दोषी पाये जाने वाले डॉक्टर पर दस हजार रुपये का जुर्माना किया जा सकता है । दूसरी बार दोषी पाये जाने पर डॉक्टर पर 50 हजार रुपये तक का जुर्माना और पाँच साल तक की सजा दी जा सकती है ।
1971 मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रीगनेंसी एक्ट में बनाया इस कानून को गर्भवती महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया था । इस कानून को बनाते समय यह सोचा गया था कि भूण की तुलना में माँ का जीवन अधिक मूल्यवान है । गैर कानूनी तरीके से चोरी छिपे गर्भपात कराये जाने के कारण माँ के जीवन को अधिक खतरा होता है ।
इस कानून में यह व्यवस्था की गई थी कि यदि शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य या मानवीयता के आधार पर जरूरी हो तो गर्भपात कानूनी तरीके से किया जा सकता है । बेटी की जन्म के पहले या जन्म के बाद हत्या एक अपराध है ।
ऐसा करने वालों को अपराधी की नजर से देखा जाना होगा तथा अपराधी के रूप में उन पर मुकदमा चलाकर सजा देनी होगी और सजा भी इस प्रकार की दी जानी चाहिए जिससे सबके लिए सबक मिले । शादी, गर्भधारण, जन्म और मृत्यु को रजिस्टर कराना अनिवार्य बनाकर इस दिशा में पहल की जा सकती है ।
चिकित्सा के क्षेत्र में सक्रिय संगठन इस भयंकर सामाजिक बुराई को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । पत्रकारों व विज्ञापन एजेंसियों की भी अहम् भूमिका हो सकती है । महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जाग्रत होना होगा क्योंकि अंत में यही कहा जा सकता है कि बेटी को जन्म देने वाली भी स्त्री है, उसे गर्भपात के लिए प्रेरित करने वाली भी स्त्री ही है तथा उसे मौत के घाट उतारने वाली भी स्त्री ही है ।
यदि इस समस्या की गम्भीरता को देखते हुए हम सब ने मिलकर उसके समाधान के लिए प्रयास नहीं किये तो 2011 और 2021 की जनगणना के आंकड़ों की स्थिति ठीक वैसी ही होगी जो कि 1911 और 1921 में
थी ।