अस्तित्ववाद । “Existentialism” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. अस्तित्ववाद की प्रवृतियां ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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अस्तित्ववाद संसार की आधुनिकतम विचारधारा के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है । यह मूलत: दार्शनिक प्रणाली है । फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक ज्यांपाल सात्र ने इसका विवेचन किया था । अस्तित्ववादी विचारधारा किसी स्थान या देश तक सीमित न होकर समग्र विश्व में फैली है ।
अस्तित्ववाद एक आध्यात्मिक मनःस्थिति का काव्यात्मक दर्शन है । उसके अनुसार-हमारी आध्यात्मिक स्थिति के मूल में संकट विद्यमान है । अस्तित्ववाद सारतत्त्व को अधिक महत्त्व देता है । जिस प्रकार मानव जंगल का सारतत्त्व ही उसे पशु से भिन्न करता है, उसी तरह पशु का सारतत्त्व मनुष्य से अलग होता है ।
अस्तित्ववाद में जिस प्रकार मनुष्य अपने निम्न अस्तित्व जगत् से उच्च अस्तित्व जगत् तक पहुंच जाता है, वही उसका अस्तित्व व सार कहा जायेगा । अस्तित्ववाद न वीं शताब्दी में अस्तित्व में आया था ।
2. अस्तित्ववाद की प्रवृत्तियां:
अस्तित्ववाद को पराभववाद पी कहा जाता है । जब पराभववाद के क्षेत्र में साहसिकता का उदय हुआ, तो जर्मनी में अस्तित्ववाद का जन्म हुआ । अस्तित्ववादी दर्शन पराभववादी दर्शन की व्याख्या करता है । इस रूप में उसकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
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(क) असीम और ससीम की व्याख्या: अस्तित्ववादी दर्शन व्यक्तित्व को दूसरों से पृथक् रखकर देखता है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति असीम जगत् के व्यापक विस्तार में अपने अस्तित्व को अत्यन्त लघु पाता है, उसी तरह ब्रह्माण्ड भी उस शून्य, अनन्त, अन्तरिक्ष के समक्ष एक कण के बराबर है, जो मानवीय कल्पना से परे है । एक ओर मानव की स्थिति ससीम है, तो अन्तरिक्ष की असीम, किन्तु दोनों का अस्तित्व संसार में है ।
(ख) चेतना का उद्घोष: इस संसार में अस्तित्व रखने वाली शक्तियों का विद्रोह कितना ही हीन और शूद्र क्यों न हो, सबमें एक चेतना है ।
(ग) धार्मिक और ईश्वरपरक स्वीकृति: जब मानव किसी शक्ति से भयभीत होता है., तो उसके विरुद्ध विद्रोह करने की बजाय वह डरकर अपने आपको धार्मिकता की ओर मोड़ लेता है और स्वयं को उस असीम शक्ति के अधीन कर समर्पित हो जाता है और यह मान लेता है कि कोई ऐसी शक्ति है, जो उसे संचालित कर रही है ।
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(घ) मनुष्य सार्वभौमिक शक्ति का निर्माता नहीं: अस्तित्ववादी विचारकों का यह मत है कि मनुष्य सार्वभौमिक तत्त्व का निर्माण नहीं कर सकता, परन्तु अपने व्यक्तिगत सारतत्त्व के कारण सार्वभौमिक तत्त्व का मानव अवश्य बन जाता है । व्यक्ति की चेतना, जाति, कार्य, स्वरूप, उसके विचार, भाव भी उसके निर्माण के कारण हैं । मनुष्य आज जो कुछ भी है, उसका भविष्य इसी पर निर्भर करता है ।
(ड.) आशावादी एवं उद्देश्यपूर्ण दर्शन: अस्तित्ववादी दर्शन आशावादिता एवं प्रगतिशीलता पर निर्भर करता है । वह मनुष्य के प्रगतिशील एवं उद्देश्यपूर्ण जीवन को महत्त्व देता है ।
(च) दु:ख एवं मृत्यु की अनिवार्यता पर विश्वास: अस्तित्ववादियों के अनुसार मृत्यु, संघर्ष, दुःख उमदि मानवीय स्थिति की अनिवार्य सीमाएं हैं । इनमें से मृत्यु संयोगात्मक है, जिसे मनुष्य भूलता रहता है और इससे बचने की चेष्टा करता है ।
यद्यपि वह मृत्यु को जीवन का अनिवार्य अंग मानता है, पर मृत्यु के बाद उसके अस्तित्व की सम्भावनाएं समाप्त नहीं होतीं । शरीर को भले कोई छीन ले, किन्तु आत्मा और चेतना को कोई मिटा नहीं सकता । एक चेतना ही ऐसी शक्ति है, जो उसे अन्य प्राणियों से भिन्न करती है ।
3. उपसंहार:
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि अस्तित्ववाद में व्यक्ति का चित्रण सामान्य की अपेक्षा विशिष्ट है । वह आत्मगत विवेक पर विशेष बल देता है । अस्तित्ववादी दर्शन साहित्य को भी विशेष प्रभावित करता
है । यह दर्शन व्यक्ति को अपने निर्माण और आदर्श के लिए स्वतन्त्र छोड़ देता है ।