Read this essay in Hindi language to learn about the importance of water in our lives.
ऑक्सीजन के बाद जीवित प्राणियों के लिए जल एक महत्वपूर्ण पदार्थ है । सभी प्राणियों के शरीर में जल की कुछ-न-कुछ मात्रा अवश्य ही रहती है । मनुष्य भोजन के बिना कई दिनों तक जीवित रह सकता है, परन्तु पानी के बिना जीवन असम्भव है । पानी की कमी से मृत्यु हो जाती है ।
अत: वायु के बाद जल के बिना जीवन-यापन प्राणिमात्र के लिए असम्भव होता है । प्राणी प्रतिदिन जल पीता है । पृथ्वी का 2/3 भाग जल से घिरा है जो कि समुद्र के रूप में है ।
एक वयस्क व्यक्ति के शरीर के कुल भार का 64% भाग जल से निर्मित होता है । आयु की वृद्धि के साथ-साथ शरीर में जल की मात्रा कम होती जाती है । शरीर में जल की मात्रा वसा पर ही निर्भर करती है । आयु बढ़ने के साथ शरीर में वसा की मात्रा भी बढ़ जाती है । एक शिशु के शरीर में जल की अधिकता होती है । प्रौढ़ व्यक्ति के शरीर में शिशु की अपेक्षा जल कम रहता है ।
शरीर में उपस्थित जल का 70% तरल पदार्थ के रूप में कोशिकाओं में रहता है । शेष बचा भाग कोशा के बाहरी द्रव्य में उपस्थित रहता है । रक्त प्लाज्मा में उपस्थित जल कोशाओं का पोषण प्रदान करने तथा उनमें उपस्थित अनुपयोगी पदार्थों को शरीर से विसर्जित करने में सहायता करता है ।
एक ही व्यक्ति के भिन्न-भिन्न ऊतकों में जल की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है । ऊतकों में उपस्थित जल की मात्रा और क्रियाशील के बीच एक घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । यकृत तथा मस्तिष्क में चयापचय की क्रिया अधिक रहती है । अन्य ऊतकों की अपेक्षा उनमें जल की मात्रा भी अधिक होती है । अस्थियों एवं दाँतों में जल की मात्रा कम होती है क्योंकि इनमें चयापचय की क्रिया नहीं होती ।
जल का महत्व या उपयोगिता (Importance or Uses of Water):
ADVERTISEMENTS:
जल का हमारे शरीर के लिए निम्न महत्व है:
i. हम अपनी प्यास बुझाने के लिए जल का काफी मात्रा में सेवन करते हैं ।
ii. सभी खाद्य पदार्थों में भी जल उपस्थित रहता है ।
iii. हमारे शरीर का 3/4 भाग जल है अत: जल शरीर के निर्माण में सहायता करता है ।
ADVERTISEMENTS:
iv. जल शरीर में होने वाली पाचन, अवशोषण तथा चयापचय क्रियाओं में भाग लेता है ।
v. शरीर में चयापचय के बाद बने विकार को बाहर निकालने में सहायता करता है; जैसे-मूत्र या पसीना ।
vi. पसीने के द्वारा शरीर की गन्दगी तो निकलती ही है साथ ही शरीर का तापक्रम भी नियन्त्रित होता है ।
vii. रक्त को तरल बनाता है तथा उसके परिवहन में सहायता करता है ।
viii. जल पाचक रसों को तरल बनाता है ।
ix. त्वचा को कोमल व चिकना बनाता है ।
x. जल पीने से थकान, सुस्ती एवं उदासीनता दूर हो जाती है ।
हमारे दैनिक जीवन में होने वाले अनेक कार्य भी जल द्वारा सम्पन्न होते हैं ।
दैनिक जीवन में जल का महत्व (Importance of Water in Daily life):
पीने के अतिरिक्त जल का हमारे दैनिक जीवन में निम्न महत्व है:
i. भोजन बनाने, बर्तन धोने व साफ करने के लिए ।
ii. स्नान करने, कपड़े धोने, घर व शौचालय की सफाई हेतु ।
iii. घर में बागवानी हेतु भी पानी की आवश्यकता होती है ।
iv. गर्मी के मौसम में घर को ठण्डा करने के लिए कूलर में काफी मात्रा में पानी उपयोग होता है ।
घर के अतिरिक्त सामुदायिक क्रार्यों के लिए भी जल की आवश्यकता होती है:
i. खेतीबाड़ी, बाग-बगीचे जल की सहायता से ही पनपते हैं ।
ii. सार्वजनिक शौचालय तथा अन्य स्थानों की सफाई व स्वच्छता के लिए पानी की आवश्यकता होती है ।
iii. विभिन्न उद्योगों में जल की आवश्यकता होती है ।
iv. जल से विद्युत उत्पन्न की जाती है ।
v. शहर को सुन्दर बनाने के लिए लगाये गये फौब्बारों में जल का उपयोग होता है ।
अत: स्पष्ट है कि जल हमारे जीवनयापन के लिए अत्यन्त आवश्यक होता हे । इसके साथ-साथ जल हमारे अस्तित्व बनाने में सहायक होता है ।
जल के शरीर में कार्य (Functions of Water in the Body):
1. जल शरीर में नाना प्रकार के कार्य करता है । जल की घुलनशीलता के कारण ही इसका महत्व अधिक होता है, शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाएँ जल के माध्यम से होती हैं । जल के द्वारा ही पौष्टिक तत्व विभिन्न कोशिकाओं तक ले जाये जाते हैं और चयापचय के पश्चात् व्यर्थ पदार्थों का विसर्जन भी जल के माध्यम से ही होता है ।
2. भोजन के पाचन में भी जल का अधिक मात्रा में उपयोग होता है । जल भोज्य-पदार्थों को कोमल बनाता है ताकि पाचक रस पर आसानी से अपनी क्रिया कर सकें । जल पाचक रसों को तरल भी करता है ताकि उनकी क्रिया ठीक प्रकार से हो सके ।
3. पाचन के पश्चात् भोज्य-पदार्थ या अर्द्ध घोल के रूप में घोल आन्त्रभित्तियों में शोषित होता है । आन्त्रभित्तियों द्वारा भोजन का संवाहन रक्त में हो जाता है । कोशिकाओं में चयापचय की क्रिया जल के माध्यम से ही होती है । चयापचय के पश्चात् रक्त निरर्थक पदार्थों को निष्कासन के लिए फेफड़ों तथा वृक्क में ले जाता है, रक्त में 90% जल रहता है ।
4. जल शरीर का तापक्रम भी नियन्त्रित करता है । जल शरीर में उत्पन्न ऊष्मा को शोषित करके उसे शरीर के प्रत्येक भाग में वितरित करता है । पसीने के रूप में शरीर का काफी जल नष्ट हो जाता है । पसीने के साथ शरीर की काफी ऊष्मा भी निकल जाती है जिससे शरीर ठण्डा हो जाता है । गर्मी के दिनों में शरीर में उत्पन्न ऊष्मा का 25% भाग पसीने के साथ निकल जाता है । जाड़े में गर्म कपड़ा पहनने से ऊष्मा नष्ट नहीं होती । अधिक परिश्रम करने से भी शरीर की ऊष्मा पसीने के रूप में निकल जाती है । इस कारण अधिक परिश्रम करने वाले को अधिक ऊष्मा की आवश्यकता होती है ।
5. ऊतकों में उपस्थित जल शरीर के कोमल अंगों की आघातों से रक्षा करता है तथा उनके लिए गद्दी का कार्य करता है । सेराब्रीस्पाइनल द्रव्य और केन्द्रीय नाड़ी तन्त्र में जल उपस्थित रहता है जो इनकी आघातों से रक्षा करता है ।
6. जल सन्धियों के लिए स्नेहक (Lubricant) कार्य करता है । सन्धियों के चारों ओर थैली के समान उपस्थित ऊतकों में जल रहता है तथा इस द्रव्य को साइनोवियत द्रव्य कहते हैं । इस द्रव्य के नष्ट होने से सन्धियाँ जकड़ जाती हैं और उनमें तीव्र दर्द होता है ।
शरीर में जल का प्रयोग:
शरीर में होने वाली अनेक रासायनिक क्रियाओं के लिए जल की उपस्थिति अनिवार्य है । कभी-कभी जल का उपयोग घोलक के रूप में होता है तथा कभी-कभी जल रासायनिक क्रिया में स्वयं भाग लेता है । अपघटन क्रिया में जल रासायनिक पदार्थों को विच्छेदित करता है । शक्कर का जल अपघटन (Hydrolysis) करने से वह ग्लूकोज तथा फ्रक्टोज में टूट जाती है ।
C12H22M11 + H2O → G6H12O5 + C5 H12 O5
Sucrose + H2O → Glucose + Fructose
शरीर में होने वाली विभिन्न रासायनिक क्रियाओं में जल उत्पन्न होता है, इसको मेटाबोलिक जल कहते हैं । हर भोज्य-पदार्थ ऑक्सीकरण के पश्चात् कुछ-न-कुछ मेटाबोलिक जल उत्पन्न करते हैं । इस जल की मात्रा भोज्य पदार्थों में उपस्थित पौष्टिक तत्वों पर निर्भर करती है । कार्बोहाइड़ेट के ऑक्सीकरण से प्राप्त 100 कैलोरीज से 15 मिली मेटाबोलिक जल प्राप्त होता है ।
शरीर में जल का सन्तुलन (Water Balance in the Body):
शरीर में जल का सन्तुलन रहना अति आवश्यक है । शरीर में जल के सन्तुलन से अर्थ है ग्रहण किये गये जल की मात्रा, शरीर से विसर्जित जल की मात्रा के समान हो ।
अधिक मात्रा में ग्रहण किया गया जल शरीर से मूत्र के द्वारा बाहर निकल जाता है । कुछ बीमारियों में शरीर में सूजन (Edema) आ जाती है । सीरम प्रोटीन का परासरण दाब (Osmotic Pressure) नियन्त्रित न होने से ऊतकों में जल का विसर्जन नहीं हो पाता और जल ऊतकों में जम जाता है । इस अवस्था में जल का सेवन कम करना चाहिए ।
वमन, रक्त, स्राव, अतिसार तथा ज्वर में अत्यधिक जल शरीर से निकल जाता है जिससे शरीर में शुष्कीकरण (Dehydration) हो जाता है । इस अवस्था में रोगी को अधिक पानी देना चाहिए ताकि उसकी आवश्यकता पूर्ण हो सके ।
जल की प्रतिदिन की आवश्यकताएँ (Daily Requirement of Water):
व्यक्ति की न्यूनतम जल की आवश्यकता कई बातों पर निर्भर करती है । दिमागी कार्य करने वाले व्यक्ति को प्रति 1 कैलोरी मेटाबोलिक ऊर्जा के हेतु 1 मिली के हिसाब से जल ग्रहण करना चाहिए ।
यदि किसी को भोजन से 2100 कैलोरीज प्राप्त होती है तो उसे 2100 मिली जल ग्रहण करना चाहिए । कई वैज्ञानिकों का कहना है कि माल के साथ विसर्जित जल का सन्तुलन शरीर में उत्पन्न मेटाबोलिक जल से हो जाता है ।
मूत्र तथा पसीने के रूप में विसर्जित हुए जल की पूर्ति पिये गये जल, पेय पदार्थों तथा भोज्य पदार्थों में उपस्थित जल द्वारा हो जाती है । एक दिमागी कार्य करने वाले को प्रतिदिन 1100 मिली जल ग्रहण करना चाहिए ।
जल की आवश्यकता निम्नलिखित कारकों से भी प्रभावित होती है:
i. ग्रीष्म काल में पसीने के रूप में अधिक पानी शरीर से निकल जाता है, अत: गर्मी के दिनों में अधिक जल ग्रहण करना चाहिए ।
ii. जल की प्रतिदिन की आवश्यकता व्यक्ति की क्रियाशीलता पर भी निर्भर करती है, अधिक परिश्रम करने वाले व्यक्ति को अधिक जल ग्रहण करना चाहिए ।
iii. धात्री स्थिति में दुग्ध उत्पादन में भी जल की काफी मात्रा उपयोग होती है अत: जल की आवश्यकता बढ़ जाती है ।
iv. अतिसार रोग में मल के साथ काफी मात्रा में जल निकल जाता है, इस कारण जल की इस दशा में अधिक आवश्यकता होती है ।
जल का संगठन (Composition of Water):
वैज्ञानिक खोजों के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि जल एक रासायनिक यौगिक है । इस यौगिक में दो भाग हाइड्रोजन व एक भाग ऑक्सीजन होती है । अत: जल का रासायनिक सूत्र H2O होता है । यह संगठन शुद्ध जल का होता है ।
परन्तु साधारण जल में कुछ लवण घुले रहते हैं । जल में मुख्य रूप में चूना, मिट्टी, खड़िया, कैल्सियम सल्फेट तथा मैग्नीशियम सल्फेट होते हैं । ये वास्तव में जल में पायी जाने वाली अशुद्धियाँ हैं ।
जल के गुण (Features of Water):
जल को गुण के आधार पर दो भागों में बाँटा गया है:
(1) मृदु जल (Soft Water)
(2) कठोर जल (Hard Water) ।
(1) मृदु जल (Soft Water) की विशेषताएँ:
i. पीने में मीठा व स्वादिष्ट होता है ।
ii. शुद्ध जल स्वाद रहित, गन्धरहित व रंग रहित माना गया है ।
iii. इस पानी में भोजन पकाने से वह भली प्रकार गल व पक जाता है ।
iv. मृदु जल में साबुन घोलने पर खूब झाग उठती है ।
v. यह सुपाच्च, हल्का व पीने योग्य होता है ।
vi. इसको पीने से पेट के रोगों से बचा जा सकता है ।
(2) कठोर जल (Hard Water): की विशेषताएँ:
i. पीने में खारा व भारी होता है, क्योंकि इस जल में कैल्सियम, सोडियम, मैग्नीशियम के कार्बोनेट एवं सल्फेट लवण घुले रहते हैं ।
ii. यह सुपाच्च नहीं होता ।
iii. साबुन के साथ बहुत कम झाग देता है ।
iv. दालें व सब्जियाँ भी ठीक प्रकार से नहीं गलती हैं ।
इस जल का अधिक दिनों तक सेवन करने से पेट की बीमारियाँ हो जाती हैं अत: कठोर जल को मृदु बनाकर पीना चाहिए अन्यथा इसका उपयोग नहीं करना चाहिए ।
मृदु एवं कठोर जल में अन्तर: (Differences between Soft and Hard Water):
मृदु जल:
1. पीने में मीठा व स्वादिष्ट होता है । शुद्ध जल स्वाद रहित, गन्धरहित व रंगरहित होता है ।
2. यह सुपाच्य होता है ।
3. भोजन पकने के बाद भली प्रकार गल जाता है ।
4. साबुन घोलने पर खूब झाग उठता है ।
5. बॉयलरों में विभिन्न लवणों की पर्त नहीं जमती तथा बॉयलर शीघ्र ही खराब नहीं होते ।
कठोर जल:
1. पीने में खारा व भारी होता है क्योंकि इसमें कैल्सियम, सोडियम, मैग्नीशियम के कार्बोनेट एवं सल्फेट लवण घुले होते हैं ।
2. यह सुपाच्य नहीं होता है ।
3. भोजन पककर गल नहीं पाता ।
4. साबुन के साथ कम झाग उठता है ।
5. कठोर जल के प्रयोग से बॉयलरों में विभिन्न लवणों की पर्त शीघ्र जम जाती हैं तथा बायलर खराब हो जाते हैं ।
घरेलू विधियों से जल का शुद्धीकरण (Purification of Water by House Hold):
शुद्ध जल स्वास्थ्य को उत्तम रखता है । अशुद्ध जल से स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है । अशुद्ध जल से ग्रहण करने से नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं । अत: यहाँ पर यह बात स्पष्ट होती है कि हमें केवल शुद्ध जल ही पीना चाहिए । इसलिए हमें शुद्ध जल के गुणों की जानकारी होनी चाहिए ।
इसके साथ-साथ जल को दूषित करने वाली सामान्य अशुद्धियों का ज्ञान भी आवश्यक है । अशुद्ध जल को शुद्ध किया जा सकता है अत: प्रत्येक गृहिणी को घर पर ही जल को शुद्ध करने की घरेलू विधियों का ज्ञान होना चाहिए ।
शुद्ध जल के गुण (विशेषताएँ) (Characteristics of Pure Water):
1. शुद्ध जल रंगहीन व स्वादहीन व गन्धहीन होता है ।
2. जल स्वच्छ, चमकीला एवं पूर्णरूप से पारदर्शी होता है तथा इसमें हल्की नीली आभा होती है ।
3. जल में सूक्ष्म जीवाणु व रोगाणु नहीं होते ।
4. अम्लीय जल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं अत: जल का क्षारीय होना आवश्यक है ।
5. जल किसी प्रकार दूषित न हो; जैसे: मल-मूत्र व पशुओं द्वारा ।
6. जल में कुछ रासायनिक पदार्थ उचित मात्रा से अधिक न हों; जैसे: बाइकार्बोनेट्स, क्लोराइड, सल्फेट, फ्लोराइड, नाइट्रेट्स, सीसा या संखिया आदि ।
अशुद्ध जल (Impure Water):
जल एक उत्तम विलायक है, अत: प्रत्येक पदार्थ इसमें शीघ्र ही घुल जाता है । इसी गुण के कारण जल अनेक लवणों को घोल लेता है तथा अशुद्ध हो जाता है । जिस जल में शुद्ध जल वाले गुण नहीं उपस्थित होते उसे अशुद्ध जल कहा जाता है ।
जल में पाई जाने वाली अशुद्धियाँ (Impurities Present in Water):
दूषित जल में दो प्रकार की अशुद्धियाँ होती हैं:
(1) घुली हुई अशुद्धियाँ,
(2) अधुलित अथवा तैरने वाली अशुद्धियाँ ।
(1) घुलित अशुद्धियाँ:
जब बाहरी तत्व पानी में पूर्णरूप से घुलकर उसे दूषित करते हैं तो उन्हें घुलित अशुद्धियों कहते हैं । ये जल में इस प्रकार घुल जाती हैं कि बाहर से दिखाई नहीं देतीं । ये घुलित अशुद्धियों दो प्रकार की होती हैं:
(i) ठोस पदार्थ (Solid Materials);
(ii) गैसें (Gases) ।
ठोस पदार्थ:
ये भी दो प्रकार के होते हैं:
(a) कार्बनिक पदार्थ:
वनस्पति तथा ऐन्द्रिक घुलित पदार्थ ।
(b) अकार्बनिक पदार्थ:
कैल्सियम, मैग्नीशियम, सल्फेट, क्लोराइड, क्लोराइड, नाइट्रेट्स, सीसा, संखिया आदि । ये लवण घुलकर जल को कठोर बना देते हैं । कठोर जल हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है ।
गैसें:
कुछ गैसें वायु द्वारा जल में घुल जाती हैं जैसे-कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फोरेटेड हाईड्रोजन आदि । इन गैसों से युक्त जल भी हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है ।
(2) अधुलित अथवा तैरने वाली अशुद्धियाँ:
ये अशुद्धियाँ जल में घुलती नहीं तथा ऊपर तैरती हुई देखी जा सकती हैं । ये जल को दूषित व हानिकारक बना देती हैं ।
ये अशुद्धियाँ निम्न होती हैं:
(i) धूल-मिट्टी के कण एवं विभिन्न प्रकार का कूड़ा-करकट जैसे: पत्ते, घास, तिनके तथा बाल आदि ।
(ii) विभिन्न रोगों के रोगाणु अशुद्ध जल में मिश्रित रहते हैं; जैसे: हैजा, टाइफाइड, पेचिश, आदि ।
(iii) विभिन्न कीटों के अण्डे व बच्चे, पशुओं द्वारा मिलने वाली गन्दगी; जैसे: मल-मूत्र, बाल तथा अन्य अशुद्धियों ।
शुद्ध व अशुद्ध जल में अन्तर (Differences between Pure and Impure Water ):
शुद्ध जल पीने योग्य होता है, परन्तु अशुद्ध जल का सेवन नहीं करना चाहिए ।
शुद्ध व अशुद्ध जल में निम्नलिखित अन्तर होता है:
शुद्ध जल:
1. शुद्ध जल पारदर्शक, स्वाद, गन्ध व रंग रहित होता है ।
2. शुद्ध जल साबुन के साथ आसानी से झाग पैदा करता है । ।
3 कार्बन डाइऑक्साइड के मिले होने के कारण जल में एक विशेष प्रकार की चमक होती है ।
4. शुद्ध जल में फ्लोराइड्स, नाइट्रेट्स आदि की एक निर्धारित मात्रा होती है ।
5. शुद्ध जल दूषित नहीं होता ।
अशुद्ध जल:
1. अशुद्ध जल अर्द्ध-पारदर्शक, दुर्गन्ध युक्त, मटमैला व खारा होता है ।
2. अशुद्ध जल साबुन के साथ सरलता से झाग नहीं बना पाता ।
3. इसमें नाइट्रोजन व अन्य पदार्थों के मिले होने से चमक नहीं होती ।
4. फ्लोराइड तथा नाइट्रेट्स अधिक मात्रा में होती है ।
5. अशुद्ध जल में विभिन्न प्रकार के दूषित पदार्थ मिले रहते हैं ।
गाँवों व छोटे शहरों में शुद्ध जल की समस्या (Problems of Pure Water in Villages and Small Cities):
आजकल सभी बड़े नगरों में जल संस्थान (Water Works) द्वारा जल को शुद्ध करके वितरित करने की व्यवस्था रहती है । भारत में अधिकांश जनता गाँवों में निवास करती है । इन गाँवों में पीने का पानी केवल प्राकृतिक साधनों, जैसे: नदी, कुएँ, तालाब, झरनों आदि से प्राप्त होता है । ये जल मनुष्य, पशुओं व विभिन्न बाह्य कारणों से दूषित होता है ।
गाँवों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती कि सार्वजनिक रूप से बड़े पैमाने पर शुद्धीकरण किया जा सके । जल का शुद्धीकरण न होने पाने के कारण उन्हें दूषित जल का सेवन करना पड़ता है जोकि उनके स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालता है ।
दूषित जल का स्वास्थ्य पर प्रभाव (अशुद्ध जल से हानियाँ) (Effect of Impure Water):
व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए शुद्ध जल ही उपयोगी है । अशुद्ध जल का लगातार सेवन करने से पाचन क्रिया पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।
निम्नलिखित लक्षण दिखाई पड़ते है:
भूख घट जाती है, जी मिचलाने लगता है, कब्ज हो जाता है ।
ये लक्षण धीरे-धीरे निम्न रोगों में परिवर्तित हो जाते हैं:
जैसे: हैजा, मोतीझरा, (टायफाइड), पेचिश एवं आँव आदि । यदि जल को शुद्ध करने के उपाय न किये गये तो कभी-कभी अशुद्ध जल के सेवन से पूरा गाँव, कस्बा या शहर विभिन्न रोगों से पीड़ित हो जाता है ।
अत: इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए जहाँ तक सम्भव हो शुद्ध जल का ही सेवन करना चाहिए तथा इस बात का निरन्तर प्रयास करना चाहिए कि उपयोग में आने वाला जल दूषित न हो सके ।
जल को शुद्ध करने के उपाय (Remedies for Purification of Water):
आपको ऊपर बताया जा चुका है कि, अशुद्ध जल हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है । ऐसी स्थिति में जल को शुद्ध करने के लिए कुछ विधियाँ अपनाई जाती हैं ।
ये विधियाँ मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं:
(a) भौतिक विधि (Physical Methods):
घर पर भौतिक विधि द्वारा सरलता से जल का शुद्धीकरण किया जा सकता है ।
जोकि निम्न प्रकार हैं:
(i) जल उबालना (Boiling):
अशुद्ध जल को उबालकर शुद्ध बनाना अत्यन्त सरल उपाय है । घरेलू उपयोग के लिए यह विधि सबसे उत्तम होती है ।
उबालने से जल की अशुद्धियाँ निम्न प्रकार से दूर होती हैं:
जल को उबालने से घुलित तथा अघुलित अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं । विभिन्न रोग के रोगाणु व उनके अण्डे नष्ट हो जाते हैं । जल में घुले हुए लवण बर्तन की सतह पर एकत्रित हो जाते हैं । जल में घुली विभिन्न गैसें भी उबालने से बाहर निकल आती हैं । उबालने से जल की कठोरता दूर हो जाती है ।
जल को उबालने से वह शुद्ध हो जाता है, परन्तु ऑक्सीजन के निकल जाने से जल स्वाद-रहित हो जाता है अथवा दो बर्तनों में जल को खूब पलट-अलट कर देने से जल का वायु से सम्पर्क हो जाने पर स्वाद में अन्तर आ जाता है । जिस समय शहर या गाँव में संक्रामक रोग: हैजा, पेचिश आदि फैला हो उस क्षेत्र में लोगों को पानी उबालकर पीना चाहिए ।
(ii) आसवन द्वारा जल शुद्ध करना:
सर्वप्रथम अशुद्ध जल को गर्म करके भाप में परिवर्तित कर दिया जाता है । इसके बाद जल को ठण्डा करके पुन: जल में परिवर्तित कर दिया जाता है । इस प्रकार से प्राप्त जल शुद्ध जल होता है । इस प्रकार से शुद्ध किये गये जल को आसुत जल कहते हैं । आसवन की क्रिया एक विशेष प्रकार के यन्त्र द्वारा की जाती है जिसे आसवन यन्त्र कहते हैं ।
इस विधि से प्राप्त जल का उपयोग चिकित्सा में किया जाता है । जहाज में पीने के पानी की कमी होने पर समुद्र के पानी को इसी विधि से शुद्ध करके पीने योग्य बनाया जाता है ।
(iii) अल्ट्रावायलेट किरणों द्वारा:
इस विधि में बड़े-बड़े यन्त्रों द्वारा अल्ट्रावायलेट किरणों को जल के सम्पर्क में लाया जाता है । इस सम्पर्क से जल शुद्ध हो जाता है । एक्वागार्ड में इसका उपयोग किया जाता है ।
(b) यान्त्रिक विधि (Mechanical Methods):
अशुद्ध जल को शुद्ध करने के लिए विभिन्न यान्त्रिक साधनों का उपयोग किया जाता है । यान्त्रिक साधनों द्वारा जल को छानकर साफ किया जाता है । जल को छानने के लिए कई विधियाँ अपनाई जाती हैं । कपड़े से छानकर जल को शुद्ध किया जा सकता है, परन्तु महीन वस्तुएँ इसके द्वारा छन नहीं पातीं ।
जल को शुद्ध करने के मुख्य यन्त्र निम्न प्रकार हैं:
(i) फिल्टर बैंड या चार घड़ों वाली घड़ौची विधि (Filteration):
यह फिल्टर बैण्ड का रूपान्तर है । घड़ों द्वारा जल छानने की इस विधि का गाँवों में अधिक प्रचलन होता है । इस विधि में चार घड़ों का एक स्टैण्ड होता है । घड़ों को स्टैण्ड पर एक-दूसरे के ऊपर रख दिया । ऊपर के तीनों घड़ों की तली में एक-एक छिद्र होता है पहले घड़े को शुद्ध किये जाने वाले पानी से भरा जाता है ।
दूसरे घड़े में ऊपर रेत तथा नीचे कंकड़ रख दिये जाते हैं । तीनों घड़ों के छिद्रों का वेग कम करने के लिए रुई या कपड़ा लगा देते हैं । सबसे ऊपर के घडे का पानी धीरे-धीरे छनकर नीचे के घडों में एकत्रित होता रहता है ।
(ii) वाटर फिल्टर:
आजकल बड़े-बड़े शहरों में पीने का पानी शुद्ध करने के लिए घरों में वाटर फिल्टर का उपयोग किया जाता है । इनमें पाश्च्योर/चैम्बरलेन फिल्टर, वर्कफील्ड फिल्टर आदि मुख्य हैं ।
ये फिल्टर बजाज, अंजली, क्रॉम्पटन व बलसारा कम्पनियों द्वारा बनाये जा रहे हैं । ये क्ले या पोर्सलीन मिट्टी से बनाये जाते हैं । इसमें नीचे की ओर एक नल लगा रहता है । अन्दर की ओर एक दूसरा बर्तन लटका रहता है ।
इस बर्तन की तली में क्ले मिट्टी का बना सिलेण्डर होता है । उसका पतला भाग दूसरे बर्तन में निकला होता है । ये सिलेण्डर ही जल को शुद्ध करने का कार्य करते हैं । इस फिल्टर द्वारा जल तेजी से छनता है तथा स्वच्छ जल प्राप्त । समय-समय पर इन सिलेण्डरों को साफ करते रहना चाहिए ।
(iii) एक्वागार्ड:
आजकल उच्चवर्गीय परिवार में इसका प्रचलन अत्यधिक है । इसका निर्माण यूरेकाफोर्ब नामक कम्पनी ने किया है । यह पीने व भोजन बनाने में प्रयोग आने वाले पानी को शुद्ध करने का यन्त्र है । इस यन्त्र में एक ओर पाइप में कोयले के कण भरे रहते हैं तथा दूसरे में फिल्टर रॉड जो कि पोर्सलीन की होती है, लगी रहती है । यह यन्त्र बिजली से चलता है । एक मिनट में पानी शुद्ध हो जाता है ।
इस यन्त्र में अल्ट्रावायलेट किरणों का भी प्रबन्ध होता है जोकि रोगों के जीवाणुओं को नष्ट कर देता है । इस यन्त्र का कनेक्शन पानी की टंकी से किया जाता है जिसकी सफाई समय-समय पर होनी चाहिए । प्रत्येक छ: महीने बाद यन्त्र के कोयले के कण व फिल्टर रॉड को बदलना चाहिए । इससे शुद्ध व स्वादिष्ट जल प्राप्त होता है ।
(c) रासायनिक विधियाँ (Chemical Methods):
जल को शुद्ध करने के लिए कुछ रासायनिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है ।
इसका विभाजन निम्न प्रकार है:
(i) अवक्षेपण (Coagulation):
कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ होते हैं जिन्हें अशुद्ध जल में डालने से जल की घुलित अशुद्धियाँ स्वत: ही अलग होकर नीचे सतह में बैठ जाती हैं । फिटकरी के उपयोग से अघुलनशील अशुद्धियाँ तली में बैठ जाती हैं तथा जल शुद्ध हो जाता है । पाँच लीटर पानी में पाँच ग्राम फिटकरी मिलाकर कुछ घण्टों के लिए रख दिया जाये तो अशुद्धियाँ नीचे बैठ जाती हैं फिर ऊपर पानी छानकर निकाल दिया जाता है । इसी प्रकार निर्मली नामक फल से भी जल की अशुद्धियाँ दूर की जाती हैं, परन्तु इस विधि से रोग के रोगाणु नष्ट नहीं होते ।
(ii) जीवाणुनाशक पदार्थ:
अशुद्ध जल में रोग के जीवाणु पाये जाते हैं जिनको नष्ट करने के लिए कुछ रासायनिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है ।
ये पदार्थ निम्न प्रकार हैं:
लालदवा:
बड़े-बड़े टैंकों, तालाबों, कुएँ तथा अन्य संगृहीत जल में लाल दवा या पोटैशियम परमैंग्नेट डाली जाती है । इसकी मात्रा 200 गैलन जल में 1 ग्राम होनी चाहिए । गाँवों में इनका प्रयोग अधिक होता है ।
तूतिया:
इसे कॉपर सल्फेट कहते हैं । इसका प्रयोग अल्प मात्रा में किया जाता है; जैसे: 2 लाख भाग जल में 1 भाग बड़े पैमाने पर जल शुद्ध करने के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है ।
ब्लीचिंग पाउडर:
बड़े पैमाने पर जल शुद्ध करने में इसका उपयोग किया जाता है । दस लाख गैलन जल में 2.5 किग्रा. ब्लीचिंग पाउडर का प्रयोग किया जाता है ।
क्लोरीन:
सभी बड़े नगरों में पानी को शुद्ध करने के लिए क्लोरीन का प्रयोग किया जाता है । आयोडीन तथा ओजोन द्वारा भी जल को कीटाणुरहित किया जाता है । इस प्रकार जीवाणुनाशक पदार्थ को पानी में मिलाकर, आधे घण्टे तक रखने से जल में उपस्थित रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । बरसात के दिनों में हैजा फैलता है अत: रासायनिक विधि से जल को जीवाणुरहित करके पीना चाहिए ।