Read this essay in Hindi to learn about water conservation.
जल संरक्षण पर्यावरण का एक प्रमुख विषय बन चुका है । दुनियाभर में साफ पानी अधिकाधिक दुर्लभ होता जा रहा है । वनविनाश के कारण भूतल पर जल का बहाव तेज हो रहा है और वनस्पतियों के सफाए के बाद पानी को नीचे रिसने का समय न मिलने के कारण भूमिगत जल का स्तर गिर रहा है ।
चूँकि अनेक क्षेत्र कुओं पर निर्भर हैं, इसलिए वहाँ अधिकाधिक गहरा खोदना आवश्यक हो गया है । इससे लागत बढ़ती है तथा भूमिगत जल की मात्रा और भी कम होती है । अगर निकास की मौजूदा दर कम कर दी जाए, जो शायद ही संभव है, तो भी इसकी भरपाई में बरसों लगेंगे ।
भू-उपयोग में व्यापक परिवर्तनों के कारण वनों के विनाश और रेगिस्तान के फैलाव के साथ जो नदियाँ पहले स्थायी थीं, अब अधिकाधिक मौसमी बनती जा रही हैं । अनेक क्षेत्रों में मानसून के कुछ ही समय बाद छोटे नाले सूख जाते हैं क्योंकि भूमिगत जल का स्तर गिरता जा रहा है । इसके साथ, वर्षा के दौरान भूतल पर जल के तीव्र प्रवाह से गंभीर समस्याएँ पैदा होती हैं क्योंकि इससे जान-माल की हानि करने वाली विनाशकारी बाढ़ें आती हैं ।
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जल बरबाद करते समय हम यह नहीं सोचते कि अनेक प्रकार से हम सबका जीवन प्रभावित कर रहे हैं । जल का समता और न्याय के साथ वितरण आवश्यक है ताकि हर घर को, कृषि और उद्योग को जल का पर्याप्त हिस्सा मिल सके । अनेक गतिविधियों में जल के अति-उपयोग या दुरुपयोग से जल का अपव्यय होता है या जल प्रदूषण होता है और पेय जल का गंभीर अभाव हो जाता है । इस तरह मनुष्य के समग्र कल्याण से जल संरक्षण का गहरा संबंध है ।
भारत में जल के संचय और जल के इष्टतम उपयोग की अनेक विधियाँ पीढ़ियों से चलती आ रही हैं । पिछले कुछ समय में हमने इन्हें भूला दिया है । रिसाव की अनेक छोटी टंकियों और ‘झीलों’ में जल का संरक्षण परंपरागत कृषि की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी । पूरे देश के गाँव में एक या अनेक ‘तालाब’ साझे होते थे जिनमें लोग पानी जमा करके उसका सावधानी से उपयोग करते थे ।
स्त्रियों को बहुत दूर से घरों में पानी ढोकर लाना पड़ता था । इसमें समय और मेहनत लगती थी और इस कारण जल का अपव्यय नहीं किया जाता था । अनेक घरों में क्यारियाँ होती थीं जिनको गंदे पानी से सींचा जाता था । परंपरागत घरों में जल संरक्षण के बड़े सचेत प्रयास किए जाते थे ।
व्रिटिश काल में खासकर नगरों में जल की आपूर्ति के लिए देश भर में अनेक बाँध (dams) बनाए गए । आजादी के बाद भारत की जल-नीति बदली तथा कृषि के प्रसार और हरित क्रांति के लिए बड़े बाँध बनाए जाने लगे । इससे खाद्य सामाग्री का आयात कम हुआ और देश में अनाज का अभाव कम हुआ । लेकिन देश त्रुटिपूर्ण वितरण प्रणाली से उत्पन्न जल का अभाव झेलने लगा और उससे जुड़ी समस्याओं को महसूस करने लगा ।
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सिंचित खेती के नए रूपों, जैसे गन्ना और दूसरी नकदी फसलों को, भारी मात्रा में पानी चाहिए । लेकिन अंततः ऐसे सिंचित क्षेत्रों में जल भर जाता है और वे अनुपजाऊ हो जाते हैं । राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर कुविचारित जल प्रबंध के इन दुष्प्रभावों के कारण देश में एक नई जल-नीति पर विचार करना आवश्यक हो गया है ।
कृषि में जल की बचत:
टपकन सिंचाई (drip agriculture) नलियों के जरिये पौधों को जड़ों के पास पानी देती है जिससे जल की बचत होती है । रिसाव के छोटे तालाब और वर्षाजल के संचय से खेती और घरेलू कामों के लिए पानी मिल सकता है । छतों पर जमा किए गए वर्षाजल को संचित किया जा सकता है, उसका उपयोग किया जा सकता है अथवा उससे भूमिगत जलभरों को भरा जा सकता है ।
नगरीय परिवेशों में जल की बचत:
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नगरवासी बड़ी मात्रा में पानी बरबाद करते हैं । टपकते नल और पाइपें जल की हानि के प्रमुख कारण हैं । नहरों तथा बाँधों से उपभोक्ताओं तक पानी लानेवाली पाइपों का स्थानातरण के दौरान जल की बरबादी में लगभग 50 प्रतिशत का योगदान होता है । जल की बढ़ती माँग को पूरा करने की कोशिश करने की बजाय बचत करके जल की माँग को घटाना कहीं बेहतर है ।