Read this essay in Hindi to learn about wasteland reclamation.
वनस्पतियों का आवरण हटने से मिट्टी का कटाव और मिट्टी की हानि होती है जिससे अंततः ऊसर/बंजर भूमि (wasteland) पैदा होते हैं । यह हमारे देश की ज्वलंत समस्याओं में एक है क्योंकि मिट्टी की हानि ने पहले ही खेती की बड़ी-बड़ी जमीनों को बरबाद कर दिया है । अगर इसे रोका न गया तो बाकी जमीनें भी प्रभावित होंगी । अगर हम अपनी ‘अच्छी’ जमीनों को नहीं बचाते तो हमें अनाजों, सब्जियों, फलों, चारे और जलावन लकड़ी की भारी कमी का सामना करना होगा ।
इसलिए मृदा संरक्षण, खेती की मौजूदा जमीनों की सुरक्षा और पहले ही ऊसर बन चुकी जमीनों का उद्धार भावी योजनाओं के लिए प्राथमिकता के कार्य हैं । ऊसर के उद्धार के कुछ कार्यक्रम दुर्भाग्य से असफल रहे हैं क्योंकि उद्धार की गई जमीनें उद्धार के कुप्रबंधित और अवैज्ञानिक तरीकों के कारण फिर से अपनी खराब अवस्था में लौट चुकी हैं ।
ऊसर के उद्धार की विधियों के चयन में लागत पर ध्यान देना आवश्यक है । पर्यावरण के पक्षों का तथा ऊसर के विकास के लिए जिम्मेदार मानवीय प्रभावों का भी समुचित अध्ययन किया जाना चाहिए ।
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ऊसर को इन वर्गों में बाँटा जा सकता है:
1) आसानी से उद्धार योग्य,
2) कुछ कठिनाई से उद्धार योग्य और,
3) अत्यधिक कठिनाई से उद्धार योग्य ।
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आसानी से उद्धार योग्य ऊसर का उपयोग खेती के लिए हो सकता है । जिनका उद्धार थोड़ी कठिनाई से हो उनका उपयोग कृषि-वानिकी (agro-forestry) के लिए किया जा सकता है । जिन ऊसरों का उद्धार अत्यधिक कठिनाई से हो उनका उपयोग वानिकी (forestry) के लिए या प्राकृतिक पारितंत्रों के सृजन के लिए हो सकता है । कृषि के लिए ऊसर का उद्धार मिट्टी में लवण का अंश कम करके किया जा सकता है । यह निथार और धोवन से संभव है । ऐसी जमीनों में फसल बोने से पहले जिप्सम, यूरिया, पोटाश और कंपोस्ट डाला जाता है ।
कृषि-वानिकी में भूमि के अनेक उपयोग होते हैं । इसका मतलब एक ही साथ कृषि या पशुपालन से वृक्षारोपण का समन्वय है । इसका मुख्य उद्देश्य पेड़ों और फसलों को आपस में बिखराना है ताकि एक निश्चित क्षेत्र में जैविक उत्पादन की एक समन्वित व्यवस्था स्थापित हो ।
अत्यधिक क्षारीय नमकयुक्त जमीनों में पेड़ लगाने के प्रयास अधिकतर असफल रहे हैं । क्षेत्रीय प्रयोगों से पता चला है कि अत्यधिक क्षारीय जमीनों में यूकेलिप्टस, प्रोसोपिस और एकेसिया निलोटिका जैसी प्रजातियाँ नहीं उगाई जा सकतीं । अध्ययनों से पता चला है कि मूल मिट्टी, जिप्सम और खाद के मिश्रण में अगर पौधे लगाए जाएँ तो वे बेहतर बढ़ते हैं । फिर भी पेडों की देसी प्रजातियाँ लगाना बेहतर है ताकि स्थानीय पारितंत्र अपनी तमाम प्रजातियों के साथ नया जीवन पा सके ।
ऊसर के विकास की आवश्यकता (Need for Wasteland Development):
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ऊसर का विकास ग्रामीण गरीबों को आय का एक स्रोत देता है । यह स्थानीय उपयोग के लिए ईंधन, चारे और इमारती लकड़ी की स्थायी आपूर्ति करता है । यह मृदा अपरदन रोककर और नमी का संरक्षण करके मिट्टी को उपजाऊ बनाता है । यह कार्यक्रम क्षेत्र में पारितंत्र का संतुलन बनाए रखने में सहायक है ।
वनों का बढ़ता आवरण जलवायु की स्थानीय दशाएँ बनाए रखता है, नये उगे पौधे पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं जो आसपास के खेतों के कीड़ों को खाते हैं तथा प्राकृतिक कीटनाशकों का काम करते
हैं । पेड़ नमी को बचाए रखकर और भूतल पर जल का बहाव कम करके मृदा अपरदन को नियंत्रित भी करते हैं ।
ऊसर के उद्धार की प्रक्रिया (Process of Wasteland Reclamation):
छोटे स्तर पर समस्या की पहचान पहला प्रमुख कार्य है । ऊसर के बारे में जिला, गाँव और भूखंड स्तर के सर्वेक्षण आवश्यक हैं । ऊसर के विस्तृत वितरण के संकेत और सूचानाएँ देनेवाले मानचित्रों का संकलन आवश्यक है । ग्राम पंचायत जैसी स्थानीय शासन की संस्थाओं तथा साथ में प्रखंड विकास अधिकारियों और राजस्व विभाग के कर्मियों की सहायता से समुदाय की आवश्यकताओं पर आधारित एक योजना तैयार की जानी चाहिए ।
यह समुदाय के सभी हितार्थियों (stakeholders) के साथ एक सहभागी कार्य होना चाहिए । प्रशासकों, पर्यावरणशास्त्रियों और स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों का एक दल भी इस प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए । अगला चरण उन कारकों की पहचान करना है जो ऊसर के लिए जिम्मेदार हैं । इन कारकों के आधार पर ऊसर का वर्गीकरण इस प्रकार किया जाना चाहिए: मामूली, अंशतः या बुरी तरह प्रभावित जमीनें ।
खेती की बेहतर विधियों का प्रदर्शन करके, छोटे, सीमांत और भूमिहीन किसानों के लिए तथा समाज के कमजोर वर्गों के लोगों के लिए ऋण की व्यवस्था करके तथा स्थानीय स्त्रियों को शामिल करके सरकारी अधिकारी और स्थानीय गैर-सरकारी संगठन किसानों की मदद कर सकते हैं ।
ऊसर के उपयोग के विभिन्न पक्षों पर किसानों तथा सरकार और वनविभाग के प्रमुख कार्मिकों का प्रशिक्षण और साथ में प्रचार अभियानों का आयोजन कार्यक्रम का एक और अनिवार्य घटक है । खासकर सूखा संभावित क्षेत्रों में पर्यावरण वैज्ञानिक फसलों के ढर्रों में आवश्यक परिवर्तन सुझाकर मदद कर सकते हैं । चारे के लिए उपयुक्त फसलों का और ऊसर की प्रकृति के अनुसार स्थानीय जनता को वन्य उत्पाद देने वाले पेड़ों का चयन दूसरे आवश्यक कार्यों में शामिल हैं ।
प्रयोगशालाओं में मिट्टी की जाँच भूमि-प्रबंध की आवश्यक तकनीकों के बारे में किसानों का मार्गदर्शन करती है । विकास के अनिर्वहनीय ढर्रों को जन्म दिए बगैर सिंचाई की नई प्रौद्योगिकियों का ज्ञान और उत्पादकता बढ़ाने की अन्य विशेषताओं को भी किसानों तक खासकर कमजोर वर्गों और भूमिहीन किसानों तक ले जाना होगा ।
जलभराव के नियंत्रण के बारे में मार्गदर्शन किया जाना चाहिए । जल और वायु के कारण मिट्टी का कटाव रोकने और गाद जमने के कारण सिंचाई के साधनों को बेकार होने से बचाने के लिए सामूहिक प्रयास करने होंगे । ऊसर के उद्धार और उपयोग के लिए विभिन्न चरणों में तैयार योजनाओं का समुचित समन्वय दीर्घकालिक सफलता के लिए जरूरी है ।
हमारी बढ़ती जनसंख्या द्वारा पर्यावरण से वस्तुओं और सेवाओं की अधिकाधिक बढ़ती माँगें, उपलब्ध भूमि-संसाधनों, खासकर वनों और हरियाली पर भारी दबाव डाल रही हैं । इसका गहरा संबंध ग्रामीण जनता के कल्याण से है जो अपनी जीवन रक्षा के लिए स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है ।
इसलिए कृषि-वानिकी का विकास देश की अर्थव्यवस्था के समग्र विकास की पहली शर्त बन गया है । भूमि पर दबाव पहले ही बहुत अधिक है और देश भर में फैले ऊसरों की विभिन्न श्रेणियों का समुचित सुधार उत्पादकता बढ़ाने की एकमात्र आशा है ।