Read this essay in Hindi to learn about the importance of value education.
पर्यावरण के संदर्भ में मूल्य शिक्षा एक नई निर्वहनीय जीवनशैली को विकसित करने में सहायक होगी, ऐसी आशा की जाती है । इसलिए औपचारिक और अनौपचारिक, दोनों प्रकार की शिक्षा के द्वारा पर्यावरणीय प्राकृतिक और सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक न्याय, मानव की धरोहर, संसाधनों के समतामूलक उपयोग, साझे संसाधनों के प्रबंध और पारितंत्र के ह्रास के कारणों की समझ पैदा करनी चाहिए ।
बुनियादी तौर पर पर्यावरण संबंधी मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जा सकती । इनका बोध हमारे पर्यावरण की परिसंपत्तियों के महत्त्व की समझ और पर्यावरण के विनाश से पैदा समस्याओं के अनुभव की एक पेचीदा प्रक्रिया के द्वारा पैदा होता है । हम प्रौद्योगिकी और आर्थिक संवृद्धि को भारी महत्त्व देते हैं और निर्वहनीयता या संसाधनों के समतामूलक वितरण के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते । निर्वहनीय विकास जैसी धारणाओं को व्यवहार में लाया जा सके, इसके लिए इस सोच में बदलाव लाना आवश्यक है ।
अनिर्वहनीय विकास शक्तिशालियों की आर्थिक संवृद्धि का अंग है जो गरीब को और गरीब बनाती है, और उपभोक्तावाद इस प्रक्रिया का एक पहलू है । उपभोक्तावाद को इसलिए बढ़ावा मिला कि संसाधनों का उपयोग अभी हाल तक विकास का सूचक रहा है । लेकिन अभी हाल ही में दुनिया ने यह महसूस करना शुरू कर दिया है कि दूसरे और अधिक महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय मूल्य भी हैं जो एक बेहतर जीवनशैली लाने के लिए अनिवार्य हैं ।
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पर्यावरण शिक्षा में मूल्यों पर आधारित अनेक नई धारणाओं का समावेश होना चाहिए । हम संसाधनों और ऊर्जा का कम उपयोग क्यों करें और कैसे करें ? अपने परिवेश को साफ रखना क्यों आवश्यक है ? खेतों में हम रासायनिक खादों और कीटनाशकों का कम उपयोग क्यों करें ? जल बचाना और अपने जलस्रोतों को साफ रखना हमारे लिए क्यों आवश्यक है ? कचरे के निबटारे से पहले उसे क्षरणीय और अक्षरणीय में क्यों बाँटे ?
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ये सभी मुद्दे मानव जीवन की गुणवत्ता से संबंधित हैं और आर्थिक संवृद्धि से आगे की चीजें है । इनका संबंध प्रकृति-प्रेम और उसके सम्मान से है । ये ही वे मूल्य हैं जो एक बेहतर मानवता को जन्म देंगे जिनके सहारे हम एक स्वस्थ, उत्पादक और प्रकृति के साथ सामंजस्य भरा जीवन जी सकेंगे ।
पर्यावरण संबंधी मूल्य (Environmental Values):
अपने परिवेश के विविध पक्षों के बारे में हर व्यक्ति के मन में अनेक तरह की भावनाएँ होती हैं । आधुनिक पश्चिमी समाज प्रकृति के संसाधनों को केवल उनकी उपयोगिता के कारण महत्त्व देता है । लेकिन सच्चे पर्यावरणी मूल्य नदी को उसके जल, जंगल को उसके लकड़ी और अन्य उत्पादों या समुद्र को उसके मछलियों से परे भी महत्त्व देते हैं ।
मूल्य उन भावनाओं में निहित हैं जो समग्र प्रकृति के संरक्षण की संवेदनशीलता पैदा करते हैं । यह एक अधिक आध्यात्मिक, पूर्वीय और पारंपरिक मूल्य है । भारतीय चिंतनधारा में ऐसी अनेक रचनाएँ और सूक्तियाँ हैं जो समस्त सृष्टि के एकत्व की धारणा को प्रकृति के विभिन्न अंगों के सम्मान को महत्व देते हैं ।
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हमारे पर्यावरणीय मूल्य हमारे रोजमर्रा के कार्यकलाप में संरक्षण के कार्यों में भी व्यक्त होने चाहिए । अगर हम उनका सप्रयास प्रयोग न करें तो हमारे अधिकांश कार्य प्रकृति पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं । इन प्रवृत्तियों को पलटने का प्रयास करनेवाली भावना हमारे पर्यावरणीय मूल्यों में नीहित है ।
मनुष्यों में प्रकृति को समझने और उसके रहस्यों को उजागर करने की जन्मजात इच्छा होती है । पर आधुनिक समाज और शिक्षा-प्रक्रियाओं ने हमेशा इन जन्मजात भावनाओं को दबाया है । निर्जनता के सुखद आश्चर्यों से परिचित होने पर लोग प्रकृति के नजदीक आते हैं । वे उसकी पेचीदगी और नजाकत को समझने लगते हैं । इससे हममें अपने प्राकृतिक धरोहर के सरंक्षण की एक नई इच्छा जागती है । प्रकृति के प्रति यह भावना हमारे संविधान का अंग है जो इस मूल्य पर बहुत जोर देता है ।
‘सही’ और ‘गलत’ की धारणाएँ समय के साथ बदलती हैं; मूल्य स्थिर नहीं होते । पशुओं के शिकार को कभी ‘क्रीड़ा’ समझा जाता था । बाघ मारना एक राजसी, शौर्यपूर्ण और वांछित कार्य माना जाता था । आज के संदर्भ में, जबकि वन्यजीवन घटकर अतीत के वन्यजीवन का एक अंश मात्र रह गया है, इसे जैव-विविधता का संरक्षण विरोधी अपराध माना जाता है । इस तरह समय और परिस्थितियों के साथ मूल्य-प्रणाली बदल चुकी है ।
इसी तरह अतीत में जब बड़े-बड़े जंगल होते थे, कुछ एक पेड़ काट लेना कोई खास अपराध नहीं माना जाता था । पर आज यह एक बड़ा मुद्दा है । अतीत में जबकि मनुष्यों की संख्या कम थी, थोड़ा-सा घरेलू क्षरणीय कचरा फेंक देना गलत नहीं समझा जाता होगा । पर आज जबकि करोड़ों लोग भारी मात्रा में अक्षरणीय कचरा फेंक रहे हैं, यह पर्यावरण के लिए सचमुच अत्यंत हानिकारक है और हमारी मूल्य-प्रणाली के लिए आवश्यक है कि पर्यावरण शिक्षा की एक जबरदस्त व्यवस्था के द्वारा इसे रोका जाए ।
पर्यावरण पर हमारे कार्यों के नकारात्मक प्रभावों की अनुभूति हमारे रोजमर्रा के कार्यकलाप का अंग बनना चाहिए । हमारी आज की मूल्य-प्रणाली आर्थिक और तकनीकी प्रगति को हमारे विकासशील देश की आवश्यकता बताकर उसका गुणगान करती है । आर्थिक विकास की आवश्यकता हमें है, पर हमारी मूल्य-प्रणाली में ऐसा बदलाव आना चाहिए कि वह लोगों से हर जगह विकास के एक निर्वहनीय रूप को स्वीकार कराए ताकि हमें पर्यावरण के ह्रास जैसी कीमत न देनी पड़े ।
विकास से पैदा पर्यावरणीय समस्याएँ न तो आर्थिक विकास की आवश्यकता के परिणाम हैं और न उस प्रौद्योगिकी के जो प्रदूषण पैदा करती है । ये बल्कि पर्यावरण विरोधी व्यवहार के परिणामों की चेतना न होने से पैदा होती हैं । इस दृष्टि से देखें तो इसका संबंध हमारे परिवेश और पृथ्वी की दूसरी प्रजातियों के प्रति उचित व्यवहार क्या है, जैसी धारणाओं से है । पर्यावरणीय मूल्यों का संबंध इन्हीं बातों से है ।
हर व्यक्ति के मन में पर्यावरण पर उसके हर कार्य का परिणाम स्पष्ट होना चाहिए ताकि पर्यावरण-स्नेही व्यवहार को बल मिले और पर्यावरण-विरोधी कार्यों पर रोक लगे । यह ऐसी नई शिक्षा प्रक्रियाओं के जन्म के बिना संभव नहीं हो सकता जो विद्यालय और महाविद्यालय के स्तर पर पढ़ाई गई बातों को सार्थक बनाएँ । हर बच्चे को ‘इसका क्या अर्थ है ?’ जैसे प्रश्न पूछने चाहिए ।
वे आसपास की घटनाओं की व्याख्या जानने के इच्छूक होते हैं ताकि फैसले कर सकें और इस प्रक्रिया में मूल्यों का विकास होता है । यही आंतरिक उत्सुकता बाद के जीवन में निजी मूल्यों का विकास करती है । हमारे अपने पर्यावरण से संबंधित ऐसे प्रश्नों के समुचित ‘अर्थ’ की जानकारी देने से ऐसे मूल्यों का विकास होता है जिनको समाज के अधिकांश व्यक्ति मानदंड के रूप में स्वीकार कर लेते हैं । इस तरह पर्यावरणमुखी कार्रवाइयाँ व्यक्ति के दायरे से बाहर निकलकर समुदाय के दायरे में पहुँच जाती हैं ।
समुदाय के स्तर पर ऐसा तब होता है जब लोगों की एक सीमित संख्या पर्यावरण के प्रति सजग होती है ताकि वे एक पर्यावरण समर्थक समूह बनाकर सरकारों और दूसरों से विकास के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में उम्दा पर्यावरणमुखी व्यवहार स्वीकार करा सकें ।
किन वृत्तियों (professions) के लिए ऐसे मूल्य-निर्णय आवश्यक हैं जो हमारे पर्यावरण से संबंधित हों ? स्पष्ट है कि हर वृत्ति हमारे पर्यावरण को प्रभावित कर सकती है और करती है, पर कुछ वृत्तियाँ पर्यावरण पर दूसरों से अधिक प्रभाव डालती हैं । नीति-निर्माता, प्रशासन, भूमि के उपयोग के नियोजक, संचार माध्यम, वास्तुकार, चिकित्साकर्मी, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, काश्तकार, कृषि विशेषज्ञ, सिंचाई के नियोजक, वन अधिकारी, वनों के नियोजक, उद्योगपति और सबसे बढ़कर विद्यालयों और महाविद्यालयों के शिक्षक इन सबका पर्यावरणमुखी परिणामों से गहरा संबंध है ।
पर्यावरणीय मूल्यों का संबंध पर्यावरण से जुड़े विभिन्न मुद्दों से है । जहाँ हम भोजन, जल और अन्य पदार्थों के रूप में प्रयुक्त संसाधनों को महत्त्व देते हैं, वहीं पर्यावरण की ऐसी सेवाएँ भी हैं जिनको हमें महत्त्व देना चाहिए । इनमें पौधों द्वारा कार्बन डाइआक्साइड को घटाकर और आक्सीजन बढ़ाकर वायु को स्वच्छ करने के बारे में प्रकृति की व्यवस्था, प्राकृतिक जल-चक्र द्वारा जल का पुनर्चालन, जलवायु की व्यवस्था का संरक्षण आदि शामिल हैं ।
लेकिन कुछ अन्य सौंदर्यात्मक और जैविक मूल्य भी हैं जो हमारे पर्यावरण के उतने ही महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, यद्यपि हम सचेत रूप से उन्हें महत्त्व नहीं देते । जीवन के चक्र में जहाँ हर प्रजाति का महत्त्व होता है, वहीं कुछ प्रजातियाँ ऐसी हैं जिनको मनुष्य उनके सौंदर्य के कारण ही सराहता है । बाघ की शान, ह्वेल और हाथी का विराट आकार, हमारे प्राइमेट संबंधियों की बुद्धि, सारसों के झुंड की राजसी उड़ान-ये सब प्रकृति के ऐसे दृश्य हैं कि हम वाह किए बिना नहीं रहते ।
एक सदाबहार वन की शानदार हरियाली, सागर की लहरों की भारी शक्ति और हिमालय पर्वतमाला की शांति ऐसी चीजे हैं कि अगर हम खुद इनका अनुभव नहीं करते तो भी उनको महत्त्व देते हैं । हम तो पृथ्वी पर उनके होने के कारण ही उन्हें महत्त्व देते हैं । इसी को हम उनका ‘अस्तित्व मूल्य’ (existence value) कहते हैं । हमें अपने पर्यावरण क्षेत्रों से परे भी विचार करना चाहिए । मनुष्य द्वारा परिवर्तित कुछ भूदृश्यों, खेतों की रंगारंगी या पहाड़ियों में चाय या कहवा के बागों के हरेपन में अवर्णनीय सुंदरता है ।
नगरों में बाग और खुले स्थान भी महत्त्वपूर्ण हैं और इन्हें नगर-नियोजकों द्वारा उचित प्राथमिकता मिलनी चाहिए । ये हरे-भरे स्थल नगर के ‘फेफड़े’ ही नहीं होते, बल्कि हमें अति-आवश्यक मनोवैज्ञानिक सहारा भी देते हैं । ऐसे क्षेत्रों से प्राप्त मानसिक शांति और राहत का अपना महत्त्व होता है जिसकी कीमत तय करना कठिन है ।
फिर भी अमन-चैन के ये केंद्र नगरवासियों को मानव द्वारा अत्यधिक परिवर्तित पर्यावरण को बाग की हरियाली से संतुलित करने का अवसर देते हैं । डा. अर्नेस्ट विल्सन मानते थे, जैसा कि आज बहुत-से लोग मानते हैं, कि ये हरे-भरे स्थान हमारे मानसिक और शारीरिक सुख के लिए आवश्यक हैं; उन्होंने इसके वर्णन के लिए ‘biophilia’ शब्द गढ़ा था ।
पर्यावरणीय मूल्यों में प्राचीन इमारतों के संरक्षण के महत्त्व पर भी जोर दिया जाना चाहिए । प्राचीन संस्कृतियों की वास्तुकला, मूर्तिकला, कलाकृतियाँ और दस्तकारियाँ अमूल्य पर्यावरणीय परिसंपत्तियाँ हैं । वे हमें बतलाती हैं कि हम कहाँ से आए हैं, आज कहाँ हैं और शायद यह भी (बशर्ते हम उनसे कुछ सीखने को तैयार हों) कि हम कहाँ पहुँचेंगे ।
वास्तुशिल्प की धरोहर में प्राचीन इमारतों की रक्षा ही नहीं, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों के समग्र भूदृश्यों और नगरीय परिवेशों के मार्गदृश्यों का संरक्षण भी शामिल है । हम अगर इन भूदृश्यों को महत्त्व देना नहीं सीखते तो ये गायब हो जाएँगे और हमारी धरोहर हमेशा के लिए नष्ट हो जाएगी ।
पर्यावरण के प्रति सजग व्यक्तियों के रूप में हमें ऐसे मूल्यों का बोध विकसित करना होगा जिनका संबंध समस्त जनता के लिए बेहतर और अधिक निर्वहनीय जीवनशैली से है । व्यवहार के ऐसे अनेक सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष हैं जिनका संबंध हमारे पर्यावरण से है । सकारात्मक भावनाओं में प्रकृति, संस्कृतियों, धरोहरों और समता को मूल्य देना शामिल है ।
हमें पर्यावरण पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों के प्रति भी अधिक संवेदनशील बनना होगा । इनमें पर्यावरण के ह्रास, प्रजातियों के विनाश, प्रदूषण, निर्धनता, पर्यावरण प्रबंध में भ्रष्टाचार, भावी पीढ़ियों के अधिकारों और पशुओं के अधिकारों के प्रति हमारे रुझान भी शामिल हैं ।
अनेक महान दार्शनिकों के विचार पर्यावरण-पक्षीय व्यवहार पर आधारित या उसमें नीहित हैं । महात्मा गाँधी और रवींद्रनाथ ठाकुर उन अनेक अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वानों में शामिल हैं जिनके विचारों में पर्यावरण के प्रति सजगता से संबंधित मूल्य भी शामिल थे ।
पृथ्वी पर समस्त जनता और समस्त प्राणी जगत के लिए एक बेहतर जीवनशैली लाने के लिए हमें इन मूल्यों को समझना और अपनाना होगा । इन्हीं विचारों और धारणाओं के अध्ययन को ‘पर्यावरणीय नीतिशास्त्र’ (Environmental Ethics) कहते हैं जो दर्शनशास्त्र की एक शाखा है ।
प्रकृति को महत्त्व देना (Valuing Nature):
स्वयं प्रकृति को महत्त्व देना पर्यावरण संबंधी सबसे बुनियादी भावना है । बाकी प्रकृति के साथ हमारे जीवन की एकता और यह भावना कि हम प्रकृति के जटिल जीवनतंत्र के बस एक मामूली-से अंग हैं, तब स्पष्ट हो जाती है जब हम प्रकृति की आश्चर्यजनक विविधता को सराहते हैं । हमें समझना होगा कि हम ऐसे विश्व-समुदाय के अंग हैं जिसमें 18 लाख अन्य ज्ञात प्राणी भी शामिल हैं । हमें पता है कि पृथ्वी पर जीवन के रूप अद्वितीय हैं ।
तमाम शानदार रूपों में जीवन की रक्षा करना हमारा महान दायित्व है और इसलिए हमें तमाम जीवित प्राणियों के साथ निर्जन का ध्यान रखना होगा जहाँ मानव के हाथों ने प्राकृतिक आवासों में विघ्न डालनेवाले परिवर्तन पैदा नहीं किए हैं । हमें ऐसे मूल्यों का बोध पैदा करना होगा जो निर्जन में जो कुछ बचा है उसकी रक्षा हमसे कराएँ । हमें एक ओर प्राकृतिक पारितंत्रों की रक्षा करनी होगी तो दूसरी ओर स्थानीय जनता के अधिकारों की भी रक्षा करनी होगी ।
स्वयं जीवन की विविधता को महत्त्व देने के अलावा हमें विविध मानव-संस्कृतियों को महत्त्व और सम्मान देना भी सीखना होगा । हमारे देश की अनेक आदिवासी संस्कृतियाँ इसलिए नष्ट हो रही हैं कि अधिक वर्चस्वशाली और आर्थिक रूप से उन्नत जीवनशैलियों वाले लोग उनकी जीवनशैलियों का सम्मान नहीं करते जो वास्तव में प्रकृति के अधिक करीब और अकसर अधिक निर्वहनीय होती हैं ।
हमारा विश्वास है कि आधुनिक प्रौधोगिकी पर आधारित हमारी जीवनशैलियाँ समाज के लिए प्रगति का अकेला मार्ग हैं । लेकिन वास्तव में, यह जीवन का केवल एक आयाम है जा आर्थिक सवृद्धि पर आधारित है । जहाँ आजकल पर्यावरण आंदोलन ऐसे मुद्दों पर केंद्रित है जिनका संबंध मानव के ‘लाभ’ के लिए प्राकृतिक पर्यावरण के प्रबंध से है, वहीं ‘गहन पारिस्थितिकी’ (Deep Ecology) ऐसे दृष्टिकोण को बढ़ावा देती है जिससे पृथ्वी पर पर्यावरण में अधिक उपयुक्त संतुलन लाया जा सके और यह प्रकृति के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाने जैसा है ।
मिसाल के लिए कुछ पर्यावरणशास्त्री सौंदर्य और उपयोगिता के कारण निर्जनता के संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हैं । आज सुरक्षित क्षेत्रों में निर्जनता को इसलिए सुरक्षित रखा जाता है कि वह सुंदर होती है, प्रकृतिप्रेमियों को पर्यावरण-पर्यटन की सेवाएँ देती है तथा उसका मनोरंजन संबंधी और आर्थिक मूल्य होता है । दूसरे पर्यावरणशास्त्री इस पर इसलिए जोर देते हैं कि इसका लक्ष्य निर्जनता के उपयोगी पारिस्थितिक कार्यों, उससे प्राप्त सेवाओं और वस्तुओं का संरक्षण होना चाहिए ।
दूसरी ओर गहन पारिस्थितिकी के समर्थक जोर देते हैं कि निर्जनता का संरक्षण जैव-विविधता के संरक्षण का साधन है । इसलिए निर्जनता के जो टुकड़े बचे हैं केवल उनकी रक्षा करना काफी नहीं है बल्कि हमें ह्रासग्रस्त क्षेत्रों को फिर से उसकी पहलेवाली प्राकृतिक अवस्था में लाने का प्रयास भी करना चाहिए । भारत जैसे देश में जहाँ विशाल आबादी और साथ में गरीबी आर्थिक और औद्योगिक संवृद्धि में बाधक हैं, इस लक्ष्य को पाना बेहद कठिन होगा ।
संस्कृतियों को महत्त्व देना (Valuing Cultures):
हर संस्कृति को अस्तित्व का अधिकार है । प्रायः आदिवासी जनता का प्रकृति से सबसे गहरा संबंध होता है और हमें उन पर अपनी आधुनिक जीवनशैली लादने का कोई अधिकार नहीं है । दुविधा इस बात की है कि उनको वह आधुनिक स्वास्थ्य-रक्षा और शिक्षा कैसे प्रदान की जाए जो उनकी संस्कृति और जीवनशैली में बाधा डाले बिना उन्हें बेहतर आर्थिक स्थिति पाने का अवसर दे । ऐसा तभी होगा जब हम उनकी संस्कृति को महत्त्व और उनकी जीवनशैली को सम्मान दें या अपने आप पर रोक लगाकर उन्हें अकेला छोड़ दें । पर ऐसा होना बहुत संभव नहीं दिखाई देता है ।
सामाजिक न्याय (Social Justice):
अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ने के साथ गरीबों के अधिकारों की रक्षा करना अमीरों का कर्त्तव्य है । अगर यह न किया गया तो गरीब आखिरकार बगावत कर देंगे, अराजकता और आतंकवाद का प्रसार होगा तथा गरीबी की मारी जनता अपनी हालत में सुधार के लिए हताश होकर अंततः क्रांति कर देगी । अगर हम गरीबों के अधिकारों की रक्षा नहीं करते तो विकसित देशों से पहले विकासशील देशों को संकट का सामना करना होगा ।
आधुनिक सभ्यता एक सौम्य, मिली-जुली संस्कृति है जो अभी हाल तक इस विश्वास पर आधारित रही है कि आधुनिक विज्ञान के पास हर बात का जवाब है । आज हम इस बात को समझने लगे हैं कि अनेक प्राचीन और यहाँ तक कि आज की कुछ अलग संस्कृतियों के पास उनके अपने पर्यावरण संबंधी बोध और ज्ञान रहे हैं जो प्रकृति के सम्मान की गहरी भावना पर आधारित रहे हैं ।
आदिवासी संस्कृतियाँ अनेक पीढ़ियों से ऐसी देसी दवाओं का प्रयोग करती आई हैं जो बीमारियों के खिलाफ कारगर साबित हो रही हैं । उन्होंने चित्रों, मूर्तियों और दस्तकारियों जैसी कला के अनेक रूप पैदा किए हैं जो सुंदर हैं और समृद्ध हैं । उनके अपने काव्य, गीत, नृत्य और नाटक हैं; ये कला के ऐसे रूप हैं जो दुर्भाग्य से तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं क्योंकि उन पर टेलीविजन और दूसरे जनसंचार माध्यमों के जरिए विभिन्न आधुनिक मूल्य लादे जा रहे हैं ।
अगर यह परंपरागत ज्ञान हमसे खो गया तो दुनिया सांस्कृतिक रूप से निर्धन हो जाएगी । जल्द ही उनके घरों का सौंदर्य लुप्त जाएगा जो प्रकृति से बनी वस्तुओं से युक्त होता है । प्लास्टिक के अक्षरणीय बर्तन के आगे कुम्हार की कला हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी ।
बाँसवाले की बनाई हुई सुंदर चीजें नहीं रहेंगी जो उपभोक्ता-स्नेही होती हैं और सौंदर्य बोध जागृत कराती हैं; उनकी जगह प्लास्टिक का एक और डिब्बा आ जाएगा । अगर हम मानव-संस्कृतियों के इन विविध पक्षों को महत्त्व नहीं देते तो बहुत कुछ जो सुंदर है और हाथ का बना है, गायब हो जाएगा ।
मानव की धरोहर (Human Heritage):
पृथ्वी स्वयं एक धरोहर है जिसे हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए छोड़ा है-सिर्फ हमारे लिए नहीं बल्कि आगे आनेवाली पीढ़ियों के उपयोग के लिए भी । पृथ्वी पर बहुत-कुछ ऐसा है जो सुंदर है-अप्रभावित निर्जन, पारंपरिक ग्रामीण भूदृश्य, एक परंपरागत गाँव या नगर की वास्तुकला, एक ऐतिहासिक स्मारक या पूजास्थान । ये सभी मानव की धरोहर के अंग हैं ।
धरोहर की रक्षा आज पर्यावरण का एक गंभीर प्रश्न बन चुका है । इसलिए कि पिछले अनेक दशकों से हमने अपने धरोहरों की उपेक्षा की है जिसका परिमाण यह हुआ है कि ये आश्चर्श्यजनक गति से नष्ट हो रही हैं ।
जहाँ हम अजंता और एलोरा की गुफाओं की, 10वीं और 15वीं सदियों के मंदिरों की जिन्होंने वास्तुकला और मूर्तिकला की विभिन्न और विविध शैलियों को जन्म दिया, ताजमहल जैसी इमारतों को जन्म देनेवाली मुगल शैली की या अद्भुत पर्यावरण-स्नेही उपनिवेशी इमारतों की सराहना करते हैं, वहीं हमने उनके संरक्षण के लिए बहुत कम कार्य करते हैं । पर्यावरण-सजग व्यक्तिओं के रूप में हमें निर्जनता तथा अपनी शानदार धरोहर की रक्षा के लिए प्रयास करने होंगे ।
संसाधनों का समतामूलक उपयोग (Equitable Use of Resources):
बुनियादी तौर पर अमीरों की इस दुनिया में दौलत और संसाधनों के अन्यायपूर्ण वितरण से महाविनाश की प्रक्रिया शुरू हो सकती है । संसाधनों के समतामूलक वितरण को आज मानव के कल्याण का अनिवार्य अंग माना जाता है, और यह समाज व पर्यावरण के प्रति सजग सभी व्यक्तियों का साझा दृष्टिकोण होना चाहिए । अधिक आबाद विकासशील देशों में जनता की भारी संख्या के बावजूद विकसित देशों के थोड़े-से लोग विकासशील देशों के लोगों से अधिक संसाधनों और ऊर्जा का उपयोग कर रहे हैं ।
यह बात गरीब देशों के उन थोड़े-से अमीरों के बारे में भी उतनी ही सच है जिनके ऊर्जा और संसाधनों के प्रतिव्यक्ति उपयोग तथा फेंकने योग्य वस्तुओं के एक बार के उपयोग के कारण पैदा अपशिष्ट पर्यावरण पर भारी दबाव डाल रहे हैं । जब हम यह समझने लगेंगे कि हमारी जीवनशैलियाँ अधिक निर्वहनीय होनी चाहिए तब हम यह भी महसूस करने लगेंगे कि संसाधनों के अधिक समतामूलक वितरण के बिना ऐसा हो सकना असंभव है ।
साझी संपत्ति संसाधन (Common Property Resources):
हमारे पर्यावरण का एक प्रमुख घटक ऐसा है जो किसी एक व्यक्ति का नहीं है । साझे स्वामित्व वाले ऐसे अनेक संसाधन हैं जिनका उपयोग हम समुदाय के रूप में करते हैं । प्रकृति में पुनर्चालित जल, साँस लेने की हवा, हमारी जलवायु और मृदा को बनाए रखनेवाले वन और चरागाहें, ये सब साझी संपत्ति संसाधन हैं ।
ब्रिटिश काल में सरकार ने जब सामुदायिक वनों को अपने नियंत्रण में लिया तो जो स्थानीय जनता कुछ मानदंडों के आधार पर उनका नियंत्रित उपयोग करती थी-और ये मानदंड समतामूलक उपयोग पर आधारित थे जिनसे उसके निजी हित जुड़े हुए नहीं थे-वही जनता अब उन संसाधनों का अति-दोहन करने लगी है । प्रबंध की पारंपरिक प्रणालियों की पुनर्स्थापना आज बेहद कठिन है ।
लेकिन हाल में ग्राम-आधारित वन संरक्षण समितियों के द्वारा स्थानीय संसाधनों के प्रयोग से पता चला है कि लोगों को अगर पता चल जाए कि वे वनों से किस-किस तरह लाभान्वित होंगे तो वे वनों की रक्षा करने लगते हैं । बुनियादी तौर पर इसका मतलब वन विभाग और स्थानीय जनता के बीच वनों के नियंत्रण के लिए शक्ति का विभाजन है ।
पारितंत्र का ह्रास (Ecological Degradation):
अनेक स्थितियों में मूल्यवान पारितंत्री परिसंपत्तियाँ पर्यावरण की गंभीर समस्याएँ बन जाती हैं । कारण यह है कि समाज के रूप में हमलोग पारितंत्र का ह्रास करनेवाली शक्तियों का जबरदस्त विरोध नहीं करते । इनमें समाज के वे तत्त्व शामिल हैं जो विकास के प्रति ‘रातों-रात लखपति’ बनने का दृष्टिकोण अपनाते हैं । पर्यावरण के ह्रास के लिए अकसर ग्रामीण जनता की ईंधन और चारे की जरूरत को दोषी ठहराया जाता है ।
पर धनी नगरवासी और उद्योगपति पर्यावरण के ह्रास के लिए अधिक जिम्मेदार हैं । प्राकृतिक पारितंत्रों की जगह जब भूमि का अधिक गहन उपयोग किया जाने लगता है (जैसे वनों का एक फसल वाले बागों में परिवर्तन, या चाय और कहवा के बाग) या जब हाशियाई जमीनों पर सघन खेती (जैसे गन्ने की खेती) की जाती है या उसे नगरीय-औद्योगिक उपयोग में लगाया जाता है तो इसकी पारितंत्रीय कीमत चुकानी पड़ती है ।
उदाहरण के लिए, नमभूमियों से काम आने योग्य संसाधन और अनेक प्रकार की सेवाएँ हम पाते हैं जिनकी आसानी से कीमत नहीं लगाई जा सकती, और इन्हें जब कृषि की जमीन पाने के लिए नष्ट किया जाता है तो अनेक बार उनके प्रतिफल (returns) कम हो जाते हैं । प्राकृतिक वन हमें अनेक वस्तुएँ देते हैं जिनके आर्थिक प्रतिफल इमारती लकड़ी के लिए वनों की कटाई के प्रतिफल से अधिक होते हैं ।
ये मूल्य नई संरक्षण नैतिकता के अंग होने चाहिए । हम ऐसी अंधाधुंध अनिर्वहनीय विकास की इजाजत नहीं दे सकते जिससे हमारा जीवन अंततः असफल हो जानेवाली विकास की रणनीतियों की भेंट चढ़ जाए क्योंकि विकास का स्वरूप अनिर्वहनीय होने से पृथ्वी के संसाधन समाप्त ही होंगे और पारितंत्र हमेशा के लिए नष्ट हो जाएँगे ।