Read this essay in Hindi to learn about population growth and its effects.
धरती पर मनुष्यों की जनसंख्या, जो आज 6 अरब है, 2015 तक 7 अरब से अधिक हो जाएगी । मनुष्यों की इतनी बड़ी संख्या की आवश्यकताओं को पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन मानव-जीवन की गुणवत्ता को कम किए बिना पूरा नहीं कर सकते ।
निकट भविष्य में तेल के कुँओं से प्राप्त ईंधन समाप्त हो जाएगा । मौजूदा कृषि से भोजन की माँग को पूरा करना संभव नहीं होगा । मवेशी चरागाहों को चर चुके होंगे तथा औद्योगिक संवृद्धि मृदा, जल और वायु को प्रदूषित करके निरंतर बढ़ने वाली समस्याएँ पैदा करेगी । समुद्रों में मछलियाँ पर्याप्त नहीं होंगी । वायुमंडल में औद्योगिक रसायनों के उत्सर्जन के कारण ओजोन पर्त में और बड़े छेद होंगे जिससे मानव का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ।
औद्योगिक गैसों से उत्पन्न उष्णता के कारण सागर का स्तर बढ़ेगा जो निचले तटीय क्षेत्रों को डुबो देगा; इससे तटों पर होने वाली खेती तथा वहाँ बसे कस्बे और नगर डूब चुके होंगे । ताजे जल में कमी के कारण जल का ‘अकाल’ असंतोष और अंततः देशों के बीच युद्ध का कारण बनेगा । क्षेत्रीय जैव-विविधता पर नियंत्रण, जो नई औषधियों और औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन के लिए आवश्यक है, जैव-प्रौद्योगिकी में उन्नत देशों और जैव-समृद्ध देशों के बीच गंभीर आर्थिक टकराव पैदा करेगा ।
ADVERTISEMENTS:
पारितंत्रों के ह्रास से हजारों प्रजातियाँ समाप्त होंगी जिससे भारी महत्त्व के प्राकृतिक पारितंत्रों में अस्थिरता आएगी । ये बढ़ती आबादी और भविष्य में संसाधनों के अधिक सघन उपयोग से पैदा होनेवाली मात्र कुछ पर्यावरणीय समस्याएँ हैं । इन प्रभावों से तभी बचा जा सकता है जब हम पर्यावरण संबंधी ऐसी जनचेतना पैदा करें जो लोगों की जीवनशैली को बदल दे ।
विश्व के स्तर पर प्रति व्यक्ति खेतिहर पैदावर में वृद्धि होना 1980 के दशक में बंद हो गया । कुछ दैशों में अनाज की कमी एक स्थायी समस्या बन चुकी है । दक्षिण अफ्रीका के तीन में से दो बच्चों का वजन औसत वजन से कम है । दूसरे क्षेत्रों में सूखे के कारण अधिक अकाल पड़ रहे हैं । विकास की मौजूदा रणनीतियाँ भूख और कुपोषण से संबंधित समस्याओं को हल करने में नाकाम रही हैं ।
दूसरी ओर, संसार की केवल 15 प्रतिशत आबादी जो विकसित देशों में रहती है, विश्व की कुल आय के 79 प्रतिशत का उपभोग करती है । इस तरह ‘विकसित’ देशों और ‘विकासशील’ देशों में रहनेवालों के बीच संसाधनों के प्रतिव्यक्ति उपयोग का अंतर बहुत अधिक है । इसी तरह भारत में भी धनी और निर्धन की विषमता बढ़ रही है ।
संसाधनों पर बढ़ता दबाव प्रकृति की उस अंतःनिर्मित प्रतिरोधी क्रिया पर भारी दबाव डालेगा जिसमें हमारे पर्यावरण में संतुलन बनाए रखने की कुछ क्षमता है । लेकिन हम जिन संसाधनों पर निर्भर हैं उनकी भरपाई कर पाने में पृथ्वी की क्षमता को विकास की मौजूदा रणनीतियों ने नष्ट कर दिया है ।
ADVERTISEMENTS:
विश्व की जनसंख्या में वृद्धि (Global Population Growth):
विश्व की जनसंख्या में प्रति वर्ष 9 करोड़ की वृद्धि हो रही है जिसमें 93 प्रतिशत वृद्धि विकासशील देशों में हो रही है । इसके कारण उनका आगे होनेवाला आर्थिक ‘विकास’ अवरुद्ध होगा । मौजूदा प्रक्षेपण दिखाते हैं कि अगर हमारी जनसंख्या वृद्धि नियंत्रित कर दी जाए तो भी 2015 तक यह 7.15 अरब हो जाएगी । लेकिन अगर कोई कार्रवाई न की गई तो यह भयानक रूप से बढ़कर 7.92 अरब हो जाएगी ।
मानव की जनसंख्या इस तरह से बढ़ रही है:
ADVERTISEMENTS:
123 वर्षों में 1 से 2 अरब हुई,
33 वर्षों में 2 से 3 अरब हो गई,
14 वर्षों में 3 से 4 अरब हो गई,
13 वर्षों में 4 से 5 अरब हो गई और
11 वर्षों में 5 से 6 अरब हो गई ।
जरूरत केवल जनसंख्या के आँकड़ों पर जोर देने की ही नहीं है, बल्कि यह भी है कि इससे प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ने वाले बोझ की समझ हमारे अंदर पैदा हो । संसाधनों पर बोझ समृद्ध समाजों द्वारा ऊर्जा और संसाधनों की अत्यधिक खपत के कारण भी बढ़ रहा है । संसाधनों के अधिक समतामूलक वितरण की एक नई नैतिकता विकसित करना महत्त्वपूर्ण है ।
20वीं सदी के पूवार्ध में भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में आबादी तेजी से बढ़ती रही । कुछ अफ्रीकी देशों में भी तेजी से जनसंख्या वृद्धि हुई । इसके विपरीत, विकसित देशों में जनसंख्या वृद्धि धीमी हुई । विश्व में जनसंख्या वृद्धि की दर पृथ्वी के संसाधनों में कमी ला रही है और मानव के विकास में सीधे-सीधे बाधक है । पर्यावरण पर पड़ने वाले अनेक दुष्प्रभाव विकासशील देशों की बढ़ती जनंसख्या से जुड़े हुए हैं ।
निर्धनता-निवारण के कार्यक्रम इसलिए असफल रहे क्योंकि जो कुछ हुआ, कभी पर्याप्त नहीं रहा क्योंकि पृथ्वी के सीमित संसाधनों से अधिकाधिक प्राणियों का निर्वाह होता रहा । ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या वृद्धि के कारण खेत बँटे हैं और बेराजगारी बढ़ी है । नगरों में अपर्याप्त आवास तथा यातायात के कारण वायु प्रदूषण हुआ ।
गंदे पानी के कारण जल प्रदूषण में वृद्धि की तथा ठोस कचरे के निबटारे की समस्याएँ पैदा हुई हैं । 1970 के दशक तक अधिकांश विकासशील देश महसूस कर रहे थे कि अगर अपनी अर्थव्यवस्थाओं का विकास करना और अपने नागरिकों का जीवन सुधारना है तो जनंसख्या वृद्धि पर उन्हें नियंत्रण लगाना होगा ।
जनसंख्या वृद्धि में सामान्यतः
विश्व स्तर पर गिरावट आई है । फिर भी विभिन्न देशों में इस वृद्धि की दर में अंतर हैं । 1990 के दशक तक चीन और भारत जैसे देशों में जनसंख्या वृद्धि की दर गिरने लगी थी । 1990 के दशक में यह गिरावट भारत में सबसे अधिक थी । लेकिन उप-सहारा (sub-Saharan) अफ्रीकी देशों में प्रजनन दर आज भी अधिक है ।
विभिन्न देशों में जनसंख्या नियंत्रण की दर में अंतर की व्याख्या अनेक सांस्कृतिक, आर्थिक राजनीतिक और जनसांख्यिकी कारणों से होती है । इसमें कुछ देशों के विभिन्न भागों में भी अंतर हैं जिनका संबंध सामुदायिक औ/या धार्मिक सोच से है । परिवार कल्याण कार्यक्रम के लिए सरकार की पहल का अभाव और गर्भनिरोध के साधनों के पूरे दायरे की सीमित सुलभता अनेक देशों में जनसंख्या वृद्धि को कम करने की राह में गंभीर बाधाएँ हैं ।