Read this essay in Hindi to learn about the effects of nuclear hazards.
नाभिकीय ऊर्जा (परमाणु ऊर्जा) का प्रयोग हम कैसे करते हैं, इसके आधार पर वह लाभदायक या हानिकारक हो सकती है । हम हड्डियों में फ्रैक्चर की जाँच के लिए, विकिरण से कैंसर का इलाज करने के लिए और रेडियोधर्मी समस्थानिकों की मदद से रोगों के निदान के लिए एक्स-रे का नियमित उपयोग करते हैं ।
दुनिया में लगभग 17 प्रतिशत विद्युत ऊर्जा परमाणु संयंत्रों में पैदा की जाती है । लेकिन दूसरी ओर हिरोशिमा और नागासाकी नगरों में परमाणु बमों से पैदा तबाही को भूल सकना भी असंभव है । परमाणु ऊर्जा से उत्पन्न रेडियोधर्मी अपशिष्टों ने पर्यावरण को गंभीर हानि पहुँचाई है और पहुँचा रहे हैं ।
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नाभिकीय विखंडन (Nuclear fission) में परमाणु का नाभिक तोड़ा जाता है; इससे पैदा होने वाले ऊर्जा के अनेक उपयोग संभव हैं । एक परमाणु का नियंत्रित विखंडन सबसे पहले जर्मनी में 1938 में किया गया । लेकिन परमाणु बम बनानेवाला पहला देश अमरीका था; यह बम फिर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर गिराया गया । दुनिया में बिजली बनाने का परमाणु संयंत्र अमरीका में 1951 में बनाया गया और सोवियत संघ ने अपना पहला संयंत्र 1954 में बनाया ।
अपने भाषण ‘शांति के लिए परमाणु’ में राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइजनहावर ने 1953 में ही निम्नलिखत भविष्यवाणी की थी:
”परमाणु संयंत्र इतनी सस्ती बिजली पैदा करेंगे कि उसे मापने की आवश्यकता नहीं रहेगी । उपभोकता एक शुल्क देकर जितनी चाहे बिजली का प्रयाग करेंगे । परमाणु बिजली का सुरक्षित, साफ और भरोसेमंद साधन होंगे ।”
यूँ तो परमाणु ऊर्जा का उपयोग आज बिजली के भरोसेमंद स्रोत के रूप में किया जा रहा है, पर इसे पूर्णततः सुरक्षित एवं पर्यावरण-स्नेही नहीं माना जा सकता । अनेक गंभीर दुर्घटनाओं ने रेडियोधर्मी अपशिष्टों से सुरक्षा और उनके निबटारे के बारे में विश्वव्यापी चिंता पैदा कर दी है ।
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ऊर्जा के लिए नाभिकीय ईंधन के उपयोग का परिणाम समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि ईंधन का शोधन कैसे किया जाता है । कच्चा यूरेनियम अयस्क, जिसमें भार के अनुसार 0-2 प्रतिशत यूरेनियम होता है, खुली या भूमिगत खदानों से निकाला जाता है । निकाले जाने के बाद इस अयस्क (ore) का चूरा बनाया जाता है और फिर उसमें एक विलायक मिलाया जाता है जिससे यूरेनियम का संकेंद्रण बढ़ जाता है । अब ‘पीला केक’ प्राप्त होता है जिसमें 70 से 90 प्रतिशत यूरेनियम आक्साइड होता है ।
प्रकृति से प्राप्त यूरेनियम में विखंडन योग्य U-235 का भाग बढ़ाना पड़ता है हालाँकि यह एक कठिन और महँगी प्रक्रिया है । शोधन प्रक्रिया के बाद इसका भाग 0.7 से बढ़कर 3 प्रतिशत हो जाता है । फिर ईंधन-निर्माण की प्रक्रिया इस समृद्ध यूरेनियम को चूरा बना देती है जिससे फिर छड़ें बनाई जाती हैं । ये छड़ें फिर 4 मीटर लंबी धातु की पाइपों में बंद कर दी जाती हैं और इन्हीं को फिर संयंत्र में लगाया जाता है ।
विखंडन के बाद U-235 परमाणुओं का संकेंद्रण कम हो जाता है । कोई तीन साल बाद ईंधन की छड़ों में इतना रेडियोधर्मी पदार्थ नहीं रहता कि शृंखला प्रतिक्रिया जारी रह सके और इन छड़ों की जगह नई छड़ें लगाई जाती हैं । लेकिन ये बेकार छड़ें अभी भी रेडियोधर्मी बनी रहती हैं जिनमें लगभग एक प्रतिशत U-235 और एक प्रतिशत प्लूटोनियम होता है । ये छड़ें परमाणु संयंत्र में पैदा होने वाले रेडियोधर्मी अपशिष्ट का प्रमुख स्रोत हैं ।
आरंभ में विचार था कि इन बेकार छड़ों का दोबारा शोधन करके न केवल फिर से ईंधन पाया जा सकता है, बल्कि नाभिकीय अपशिष्ट की मात्रा भी घटाई जा सकती है । लेकिन पुनर्शोधन के द्वारा छड़ें बनाने की लागत अपशिष्ट से छड़ें बनाने की लागत से अधिक पाई गई ।
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आज भारत नाभिकीय अपशिष्ट को जमा करने के बजाय बेकार ईंधन के पुनर्शोधन के संयंत्र ही चलाता है । इस प्रक्रिया के हर चरण में हानिकारक विकिरण से संपर्क का खतरा बना रहता है तथा स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी अनेक समस्याएँ भी सामने आती हैं ।
हालाँकि परमाणु ऊर्जा के अनेक लाभ हैं, पर परमाणु संयंत्रों के प्रति लोगों के रुख को एक दुर्घटना ने बदल दिया । यह थी चेर्नोबिल की दुर्घटना जो 1986 में घटित हुई । चेर्नोबिल यूक्रेन का एक छोटा-सा नगर है जो किव से उत्तर में बेलारूस की सीमा के पास स्थित है । 25 अप्रैल 1986 को एक बजे दिन में चेर्नोबिल के संयंत्र नंबर 4 में एक प्रयोग किया जा रहा था कि भाप बंद कर दी जाए तो उसके बाद अभी तक घूम रही टरबाइन कितनी बिजली पैदा कर सकती है ।
यह एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग था क्योंकि आपातकालीन बुनियादी शीतलन व्यवस्था को काम करने के लिए ऊर्जा देनी आवश्यक थी और घूम रही टरबाइन उसे एक और स्रोत उपलब्ध तक कुछ ऊर्जा दे सकती थी । संयंत्र में नियंत्रक छड़ों को नीचे करके बननेवाली भाप को कम किया जा रहा था । लेकिन बिजली की माँग के कारण और श्रमिकों की पारी बदल जाने के कारण परीक्षण में देरी हो गई । बिजली का 700 मेगावाट स्तर बनाए रखने के लिए आपरेटर कंप्यूटर को प्रोग्राम करने में असफल रहे और आपूर्ति घटकर 30 मेगावाट रह गई ।
इसके कारण आपूर्ति को तत्काल बढ़ाना आवश्यक था और अनेक नियंत्रक छड़ें संयंत्र से बाहर कर ली गई । इस बीच ईंधन की छड़ों पर एक निष्क्रिय गैस (जेनान) जमा हो गई । इस गैस ने न्यूट्रानों को अवशोषित कर लिया और विद्युत में वृद्धि की दर कम हो गई । और अधिक उर्जा पाने के प्रयास में आपरेटरों ने सारी नियंत्रक छड़ें बाहर निकाल लीं । यह सुरक्षा के नियमों का दूसरा गंभीर उल्लंघन था ।
एक बजे आपरेटरों ने आपात चेतावनी के लगभग सभी सिग्नल बंद कर दिए और परीक्षण होने के बाद संयंत्र को पर्याप्त ठंडा करने के लिए आठों पंप चला दिए । जब परीक्षण का आखिरी चरण शुरू हुआ ठीक उसी समय सिग्नल ने संयंत्र में अत्यधिक प्रतिक्रिया का संकेत दिया ।
चेतावनी के बावजूद ऑपरेटरों ने संयंत्र को स्वचालित ढंग से बंद नहीं होने दिया और परीक्षण शुरू कर दिया । परीक्षण जारी था कि संयंत्र का ऊर्जा उत्पादन सामान्य स्तर से ऊपर चला गया और ऊपर ही चढ़ता रहा । आपरेटरों ने संयंत्र में वापस नियंत्रक छड़ें ले जाने वाली और विखंडन रोकनेवाली आपात व्यवस्था फिर से शुरू की ।
पर पहले ही देर हो चुकी थी । कोर (केंद्रीय भाग) पहले ही खराब हो चुका था और छड़ें सही जगह पर नहीं पहुँची जिससे विखंडन रोका नहीं जा सका । 4.5 सेकंड में संयंत्र में ऊर्जा का स्तर 2000 गुना बढ़ गया । ईंधन की छड़ें टूट गईं, शीतलन का पानी भाप बन गया और भाप का एक विस्फोट हुआ ।
जल के अभाव में संयंत्र में भी विस्फोट हुआ जिसमें से 1000 मीटरिक टन की कंक्रीट की छत उड़ गई और संयंत्र में आग लग गई । नतीजा था संसार की बदतरीन नाभिकीय दुर्घटना । निर्बाध रूप से जारी प्रतिक्रिया को नियंत्रण में लाने में 10 दिन लग गए ।
कुछ लोग तत्काल अवश्य मरे, पर इसके दीर्घकालिक परिणाम विनाशकारी थे । 1,16,000 लोगों को क्षेत्र से बाहर निकाला गया जिनमें से 24,000 तो विकिरण के भारी स्तर से प्रभावित हो चुके थे । आज भी अनेक लोग ऐसे रोगों से पीड़ित हैं जिनको चेर्नोबिल में हुए विस्फोट का परिणाम समझा जाता है । दुर्घटना के दस साल बाद, 1996 में स्पष्ट हो गया कि बच्चों में थायराइड कैंसर की बढ़ी दर भी दीर्घकालिक प्रभावों में एक है ।
जन्मगत विकृतियों में भी बढ़ोतरी हुई क्योंकि डॉक्टर के पास ऐसे बच्चों के केस आने लगे जो जन्म से ही मोनोडैक्टीली (monoadactyly) (उँगलियों का आपस में जुड़कर पैड की शक्ल लेना) और पोलीडैक्टीली (polydactyly) (हाथों और पैरों पर पाँच से अधिक उँगलियों का होना) के शिकार थे । डा. पुगाझेंडी द्वारा किए जा रहे एक अध्ययन में चेन्नई के दक्षिण में स्थित कलपाक्कम परमाणु संयंत्र के आसपास के गाँवों और कस्बों में भी इससे मिलती-जुलती एक प्रवृत्ति देखी गई ।
नाभिकीय दुर्घटनाओं से होने वाली हानि की सीमा और प्रकार, विकिरण के प्रकार, विकिरण की मात्रा, संपर्क की अवधि और विकिरण से प्रभावित कोशिकाओं के प्रकार पर निर्भर हैं । विकिरण से विकृतियाँ भी आ सकती हैं जो कोशिकाओं की जन्मगत संरचना को बदल देती हैं ।
डिंबग्रंथियों या अंडकोषों में विकृतियों के आने से विकृत डिंब या शुक्राणु बनते हैं जो फिर असामान्य बच्चों के रूप में सामने आते हैं । शरीर के ऊत्तकों में भी विकृतियाँ आ सकती हैं और ये ऊतकों की सामान्य वृद्धियों में नजर आती हैं जिनको (कैंसर) कहते हैं । विकिरण से अधिक संपर्क से पैदा होने वाले दो आम कैंसर ल्युकेमिया और छातियों का कैंसर है ।