Essay on Nationalism in Hindi!
सामान्य व्यवहार में राष्ट्र और राज्य (देश) शब्दों का प्रयोग समानार्थक रूप में किया जाता है परन्तु राजनीति के शास्त्रीय अध्ययन में दोनों दो अलग अर्थों में प्रयुक्त होते हैं । राष्ट्र मूलरूप से एक सामाजिक इकाई है जो एक ही भूखण्ड में दीर्घकालिक सांस्कृतिक ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया का परिणाम है ।
इसकी जडें स्थान केन्द्रित हैं क्योंकि ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में सम्बद्ध भूखण्ड के निवासी अपने निवास स्थान से अनिवार्य रूप से जुड़ जाते हैं । वह स्थान उनका ”अपना” घर हो जाता है, वहां की मिट्टी उन्हें मां की तरह जीवन-दायिनी शक्ति प्रतीत होने लगती है ।
साथ ही विकास की दीर्घ कालिक प्रक्रिया में सम्बद्ध भूखण्ड के विभिन्न भागों के निवासियों में परस्पर आदान प्रदान की सतत् प्रक्रिया से सांस्कृतिक एकता तथा भाषाई और वैचारिक मूल्य बोध में समरूपता का उदय होता है ।
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इस प्रकार वह भूखण्ड और उसकी समस्त जनता एक सामाजिक इकाई अथवा समुदाय का रूप धारण कर लेते हैं जिसके सदस्य अन्य समुदायों को ”हम वनाम वे” अर्थात् अपने समुदाय को अन्य समुदायों से पृथक् और विशिष्ट समुदाय के रूप में देखने लगते हैं । इस प्रकार राष्ट्र एक काल्पनिक समुदाय (इमैजिन्ड कम्यूनिटी) है ।
इसके चार कारण हैं:
(i) व्यक्तिगत स्तर समुदाय के प्रत्येक सदस्य का जीवन भौगोलिक दृष्टि से परिसीमित है, किन्तु राष्ट्र के सभी सदस्यों के क्रियाकलाप, उनके जीवन मूल्य और विचार पद्धति राष्ट्र की सम्पूर्णता की वृहत्तर क्षेत्रीय-सांस्कृतिक परिकल्पना से सतत् स्फूर्तिमान रहते हैं ।
(ii) अपने सदस्यों की कल्पना में हर राष्ट्र क्षेत्रीय प्रसार की दृष्टि से एक सीमाबद्ध इकाई हैं जिसकी सीमाओं के उस पार ”दूसरे’ लोगों, अर्थात् अन्य समुदायों का निवास है । सुनिश्चित सीमा बोध राष्ट्र भावना की अनिवार्य शर्त है यद्यपि सीमाओं की स्थिति और विस्तार स्वयं परिवर्तनशील हैं ।
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(iii) कल्पना के स्तर पर राष्ट्र एक सम्प्रभुता सम्पन्न इकाई है अत: वह सर्वथा स्वायत्त और स्वतंत्र है ।
(iv) राष्ट्र एक कल्पनामूलक समुदाय है जिसका समुदाय बोध क्षेत्रपरक सम्बन्धों पर आधारित है । इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र प्रकृति से ही विविधतामूलक समुदाय है-इसमें एक से अधिक क्षेत्रीय पहचान वाली इकाइयां सम्मिलित होती हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर समान पहचान वाली होते हुए भी स्थानीय स्तर पर न्यूनाधिक रूप में एक दूसरे से भिन्न होती हैं ।
राष्ट्र की अवधारणा की परिभाषा करते हुए प्रसिद्ध दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल (1861) ने लिखा है कि:
”राष्ट्र व्यक्तियों की समष्टि है जो आपस में परस्पर सहानुभूति से जुड़े हैं, तथा उनके और अन्य किसी समुदाय के सदस्यों के बीच ऐसी किसी सहानुभूति का नितान्त अभाव है । परिणामस्वरूप राष्ट्र के सदस्यों में सहकारिता भाव होता है अत: वे समुदाय के बाहर के लोगों की अपेक्षा परस्पर सहयोग से कार्य करना पसन्द करते हैं और उनमें एक ही राज्य व्यवस्था का अंग बने रहने की प्रबल इच्छा जाग्रत होती है । इसके साथ ही वे चाहते हैं कि अपने देश की शासन व्यवस्था के वे स्वयं कर्णधार हों, उसमें किसी अन्य का हस्तक्षेप न हो” ।
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संक्षेप में राष्ट्र के सदस्यों में अपने राष्ट्र के प्रति आस्था अन्य किसी बाहरी राष्ट्र के प्रति उनकी आस्था से अधिक बलवती होती है । राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव ही राष्ट्रीय एकता का आधार, तथा ”रष्ट्रिायता” का सार हैं । इस समर्पण भाव का ही नाम राष्ट्रीयता है ।
मोटे तौर पर देखने से स्पष्ट है कि राष्ट्र एक ऐतिहासिक इकाई है तथा राष्ट्र की भावना मूलत राष्ट्र के सदस्यों की सांस्कृतिक भागीदारी और समान उद्गम अथवा वंशानुक्रम के विश्वास पर टिकी है । अंग्रेजी का ”नेशन” शब्द लैटिन भाषा के ”नासी’ मूल से बना है । इस मूल शब्द का अर्थ है जन्म लेना । इस व्युत्पत्ति के आधार पर राष्ट्र का विकास एक प्रकार की निरंतर कालिक प्रक्रिया है और आदिकालिक प्रवृति का परिणाम है ।
इसीलिए राष्ट्र के विकास की इस संकल्पना को आदिकालिक (प्रिमार्डियल) संकल्पना कहते हें क्योंकि इसके अनुसार राष्ट्र का उदय आदिकालिक सांस्कृतिक भागीदारी और जातीय (एथनिक) तथा भाषाई समरसता की आधारभूत मान्यता पर निर्भर है । इस संकल्पना के अनुसार राष्ट्र मूलतया एक सांस्कृतिक इकाई है ।
इसके विपरीत आधुनिक संकल्पना के अनुसार राष्ट्र सर्वथा वर्तमान युग की देन है । ए.डी. स्मिथ के अनुसार सामान्य व्यवहार की भाषा में ”नेशन” शब्द का प्रयोग उन्नीसवी सदी के अंत में ही प्रचलन में आया था । इसी प्रकार हाब्सवाम (1987) के मतानुसार राष्ट्र की संकल्पना का सूत्रपात अठारहवीं सदी के ”राष्ट्रीयता के सिद्धांत” का परिणाम था ।
इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक राष्ट्र को अपना स्वतंत्र राज्य प्राप्त करने का जन्म सिद्ध अधिकार है । परन्तु इस संकल्पना का राजनीतिक व्यवहार उन्नीसवीं सदी में ही प्रारम्भ हुआ था, और बीसवीं सदी में यह राजनीति का आधारभूत सिद्धान्त बन गया ।
राष्ट्र की आदिकालिक प्रवृत्ति सम्बन्धी संकल्पना और इसकी आधुनिक अवधारणा में आधारभूत अन्तर यह है कि आदिकालिक प्रवृत्ति सम्बन्धी संकल्पना के अनुसार ”राष्ट्र” भावना पूर्णतया सांस्कृतिक भागीदारी पर निर्भर है, जबकि आधुनिक संकल्पना के अनुसार राष्ट्र भावना राष्ट्र के सदस्यों की राजनीतिक चेतना और अपनों का, अपनों के द्वारा और अपनों के लिए राज्य प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा से अभिप्रेरित है ।
अठारहवीं सदी का यूरोपीय तर्क बुद्धिबाद (रैशनलिज़्म) इस संकल्पना का मूल प्रेरणा स्रोत था । तर्कबुद्धिवाद का प्रादुर्भाव सम्राट को राज्य की संप्रभुता का आधारभूत स्रोत मानने वाली प्रचलित पुरानी धारणा को नकारने से हुआ था ।
तर्कबुद्धिवादियों के अनुसार राज्य की संप्रभुता राज्य के नागरिकों की सम्मिलित इच्छा शक्ति और उसकी मुखर अभिव्यक्ति पर निर्भर है । इसी आधार पर फ्रांसीसी क्रांति के कर्णधारों ने 1790 में फांस को महान राष्ट्र (ला ग्राण्ड नेशन) की संज्ञा दी और उसे अखंड और अविभाज्य बताया ।
क्रान्तिकारियों ने राज्य के इस नए जनतांत्रिक स्वरूप को अभिव्यक्ति देने के लिए उत्तर-अभिजात्य फ्रेंच भाषा का प्रचलन बढ़ाया और उसे राज्य की सर्वमान्य भाषा घोषित किया । बिलिंगटन के शब्दों में क्रांतिकारियों ने सम्राट की काया के स्थान पर भाषा को फ्रांसीसी एकता के मूलाधार के रूप में प्रतिस्थापित कर दिया । राज्य की फ्रांसीसी क्रांतिकारी संकल्पना स्पष्टतया स्थानिक संकल्पना थी ।
राज्य के भूखण्ड को राज्य का शरीर माना गया । इस प्रकार मातृभूमि का हर भाग देश के अस्तित्व का अनिवार्य अंग बन गया, अर्थात् राष्ट्रीय भूमि अविभाज्य पितृभूमि बन गई । राष्ट्रवाद दो प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है । प्रथम, राष्ट्र के प्रतिसमर्पण भाव के द्योतक के रूप में ।
दूसरा, राजनीतिक आदर्श के रूप में । राजनीतिक आदर्श के रूप में राष्ट्रवाद वह संकल्पना है जिसके अनुसार राष्ट्र की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान वाला सम्पूर्ण क्षेत्र राज्य की अपनी राजनीतिक सीमाओं के अन्दर स्थित होना चाहिए, तथा राष्ट्र पूर्ण रूप से स्वतंत्र और प्रभुतासम्पन्न इकाई होना चाहिए ।
नागरिकों द्वारा अपनी सरकार चुनने का अधिकार इस संकल्पना का मूल मंत्र है । राष्ट्र को अन्यायपूर्ण स्थितियों से मुक्ति दिलाना और सामाजिक न्याय स्थापित करना इसके प्रमुख उद्देश्य हैं । इस परिप्रेक्ष्य में देखने से प्रतीत होगा कि राष्ट्रवाद का अन्तरराष्ट्रीय प्रसार औद्योगीकरण अथवा आधुनिकीकरण का प्रत्यक्ष परिणाम न होकर इनके असमान विसरण (अनईवन डिफ्यूज़न) का परिणाम है ।
अर्थात् राष्ट्रवाद का विसरण सामाजिक विकास में पिछड़ेपन से मुक्ति पाने के प्रयासों का परिणाम था । उन्नीसवीं सदी में पश्चिमी यूरोप मध्य और पूर्वी यूरोप की तुलना में आर्थिक दृष्टि से अधिक विकसित था । मुक्त व्यापार पद्धति की तत्कालीन व्यवस्था के कारण इन क्षेत्रों के देशों के लिए पश्चिमी यूरोप के विकसित देशों के औद्योगिक उत्पादों का सामना करना अत्यधिक कठिन था । मध्य और पूर्वी यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय राष्ट्र को इस स्थिति के समाधान हेतु तैयार करने के उद्देश्य से हुआ था ।
1843 में सीमा-शुरू (कस्टम्स यूनियन) की स्थापना इस दिशा में पहला चरण था । परन्तु इसके परिणामस्वरूप खाद्य पदार्थो की मूल्य वृद्धि अवश्यम्भावी हो गई थी जिससे श्रमजीवियों में असंतोष की लहर की पूरी आशंका थी ।
राष्ट्रवाद की दुहाई देकर राष्ट्रीय नेतृत्व ने देश के नागरिकों की सांस्कृतिक एकता, उनकी ऐतिहासिक धरोहर तथा अपने ”राष्ट्र” और अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के अन्य राष्ट्रों के जातीय और सांस्कृतिक मूल्यों में द्वन्द्वात्मक भिन्नताओं को उजागर कर उन्हें राष्ट्रहित की रक्षा के लिए एक करने का सफल प्रयास किया ।
जर्मनी और इटली में विभिन्न प्रादेशिक इकाइयों के परस्पर एक जुट होने की प्रक्रिया इसका स्पष्ट परिणाम थीं । बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यूरोपीय राष्ट्रवाद की परिकल्पना विश्व के अन्य संघर्षशील देशों के लिए मुक्ति मंत्र बन गया ।
जैसा अनेक विचारकों ने रेखांकित किया है राष्ट्रवाद के विश्वव्यापी प्रसार के पीछे एक मनोवैज्ञानिक मन स्थिति भी क्रियाशील थी । औद्योगीकरण और नगरीकरण की सर्वव्यापी लहर के परिणामस्वरूप उत्पन्न आधुनिकीकरण ने राष्ट्रीय पहचान और अस्मिता को संकट में डाल दिया था ।
लोगों की जीवन पद्धति और उनके संस्कार नगरों की धनी बस्तियों के जीवन में खोते जा रहे थे । राष्ट्रवाद की भावना उनकी पहचान को पुनर्जीवित करने में सहायक हुई । यही कारण था कि सम्पूर्ण समाज राष्ट्रीय चेतना से स्पन्दित हो गया ।
इस तथ्य को रेखांकित करते हुए समाजशास्त्री एंथनी गिड्डेन्स (1981) ने बताया है कि इसी कारण से विभिन्न देशों में राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्रीय त्रासदी और चमत्कारी नेतृत्व के विकास से निकट से जुड़ा पाया जाता है । राष्ट्रवाद इतिहास औंर क्षेत्र जन्य अस्मिता है, अत: इसका स्वरूप समय और क्षेत्र के साथ परिवर्तनशील है ।
मोटे तौर पर इसके दो प्रकार हैं एक राज्यवादी राष्ट्रवाद तथा दूसरा उपराज्यवादी राष्ट्रवाद । राज्यवादी राष्ट्रवाद राज्य की प्रभुता को शक्ति प्रदान करने के उद्देश्य से प्रेरित है । इस उददेश्य की पूर्ति के लिए देश के सभी निवासियों को समान सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्यों के प्रति पूर्ण आस्थावान बनाकर राज्य को राष्ट्रीय राज्य का रूप प्रदान करने के प्रयास किए जाते हैं और नागरिकों को राष्ट्रहित को स्थानीय और व्यक्तिगत हितों के ऊपर मानने के लिए प्रेरित किया जाता हे ।
राष्ट्रीय प्रतिकों का विकास इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । इसके विपरीत उपराज्यवादी राष्ट्रवाद देश के विभिन्न भागों में स्थानीय हितों के परिपोषण और स्थानीय अस्मिता की सुरक्षा के उद्देश्य से प्रेरित हैं । उपराज्यवाद की भावना में बहुधा राष्ट्रीय एकता के लिए संकट की सम्भावना निहित रहती हैं ।
ग्राहम स्मिथ (1985, 1994) के अनुसार समाजशास्त्री लम्बे समय से विश्वास करते रहे हैं कि राष्ट्रवाद की भावना एक अस्थायी अर्थात् क्षण भंगुर भावना है जो आधुनिकता के प्रचार प्रसार और राजतंत्र के देश के दूरस्थ भागों तक प्रभावी ढंग से प्रविष्ट हो जाने के बाद शीघ्र ही लू मंतर हो जाएगी क्योंकि ऐसा होने के साथ ही विश्व में सर्वत्र मानवीय मूल्य जीवन पद्धति और विचार प्रणाली एक रूप हो जाएंगे ।
परन्तु जैसा कि बहुविध (प्लुरलिस्टिक) राष्ट्रीय पहचान वाले विकसित देशों के यूरोपीय उदाहरणों से स्पाट हे ऐसा वस्तुत हुआ नहीं है तथा स्थानीय सांस्कृतिक विशेषताओं पर आधारित उपक्षेत्रीय पहचान सारे आधुनिकीकरण के होते हुए भी राष्ट्र चेतना की ज्वाला को सतत् प्रज्वलित किए रही है ।
अत: एक शाश्वत चेतना है । 1990 में सोवियत रूस का राजनीतिक विघटन और युगोस्लाविया की त्रासदी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं । यह सोचना की समकालिक भूमण्डलीकरण राष्ट्रीय-राज्य की अवधारणा और राष्ट्रवादी चेतना को समाप्त करने में सफल होगा भ्रांतिपूर्ण है ।
परन्तु भारत के स्वयं के अनुभव से पिछले दस वर्षों में यह भली प्रकार स्पष्ट है कि देश के अन्दर भूमण्डलीय आर्थिक शक्तियों के मुक्त प्रवेश से केन्द्रीय सत्ता का प्रभाव द्रुत गति से घटा है क्योंकि ऐसा होने के साथ ही क्षेत्रीय सरकारो की केन्द्र पर निर्भरता कम हुई है तथा वे अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं से स्वतंत्र रूप में अनुदान प्राप्त करने लगे हैं ।
इसके दूरगामी परिणाम होंगे क्योंकि धीरे-धीरे राज्य परस्पर प्रतिस्पर्धी आर्थिक नीतियों का अनुसरण करने लगेंगे जिससे अन्तरक्षेत्रीय असमानता बढ़ेगी तथा सम्पन्न क्षेत्र और भी सम्पन्न और विपन्न और भी विपन्न हो जाएंगे ।
परिणामस्वरूप अनेक उपराष्ट्रीय पहचान वाले परिसंघ राज्य व्यवस्था वाले देशो में केन्द्रीय सत्ता के प्रति आस्था में बिखराव आएगा और राष्ट्र भावना कमजोर होगी । भारत में केन्द्र के स्तर पर क्षेत्रीय दलों का बढ़ता वर्चस्व इसका स्पष्ट प्रमाण है ।