Here is an essay on ‘Livestock Breeding’ for class 8, 9, 10, 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Livestock Breeding’ especially written for school and college students in Hindi language.
वनस्पतियों की भाँति ही कुछ प्राणियों का भी भोजन के रूप में मनुष्य उपयोग करता आ रहा है । भोजन के अतिरिक्त अन्य कई कामों में भी मनुष्य प्राणियों का उपयोग करता है । इसके लिए उसने ‘पशु पालन विज्ञान’ का विकास किया है । इसके अंतर्गत पशुओं के पालन, पोषण, संवर्धन तथा उपयोग आदि के संबंध में वैज्ञानिक जानकारियाँ दी जाती हैं ।
प्राणियों के उपयोग:
भोजन के रूप में प्राणियों के मांस तथा दूध का उपयोग किया जाता है । खेती जैसे परिश्रम के काम में जानवरों का उपयोग किया जाता है । जानवरों के गोबर से बनाए गए उपलों का हम ईधन के रूप में हजारों वर्षों से उपयोग कर रहे हैं ।
खाद के रूप में भी गोबर का उपयोग परंपरा से किया जा रहा है । आजकल ईधन और खाद के जैसे दोहरे उपयोग के लिए जैविक गैस प्रौद्योगिकी विकसित हो चुकी है । आदिमानव द्वारा अन्न के रूप में जानवरों का उपयोग किया गया । उसी प्रकार ठंड, तूफान (तेज पवन), वर्षा आदि से शरीर का संरक्षण करने के लिए वह जानवरों की खाल का उपयोग करने लगा ।
आज भी मरे हुए जानवरों की खाल से कमरपट्टे, बटुए, मोट, मशक, घोड़े की जीन, पैसे रखने के पाकेट, चप्पलें तथा जूते आदि वस्तुएँ बनाई जाती हैं । जानवरों की खाल का उपयोग करके ओवरकोट और गमबूट भी बनाए जाते हैं ।
खाल की भाँति ही मरे हुए जानवरों की हड्डियों का भी उपयोग किया जाता है । इन हड्डियों से खादें बनाई जाती हैं । इन खादों को ‘अस्थि चूर्ण’ (Bone Meal) नाम से जाना जाता है । हड़ियों का उपयोग सुशोभन की वस्तुएँ तथा कंघे बनाने में भी होता है । खाद तैयार करने के पहले हड्डियों का सरेस (Glue) अलग कर लिया जाता है । सरेस का उपयोग गोंद अथवा जिलेटिन के रूप में किया जाता है ।
ADVERTISEMENTS:
मरे हुए जानवरों की आँतों से बनाए गए तांत का उपयोग शल्यक्रिया के बाद होनेवाले घावों की सिलाई के लिए किया जाता है । इनका उपयोग तंतुवाद्यों में भी किया जाता है । सूअर और ऊँट की गरदन तथा पूंछ के बालों से ब्रश बनाए जाते हैं । जानवरों की चरबी (वसा) का उपयोग खाने में, साबुन तथा मोमबत्ती के निर्माण के साथ-साथ ग्रीस बनाने तथा वस्त्रोद्योग में किया जाता है ।
मनुष्य प्राचीन काल से विभिन्न उपयोगों के लिए पशुपक्षियों को पालता चला आ रहा है । पहले के समय सदेश भेजने के लिए कबूतर जैसे पक्षियों का उपयोग किया जाता था । आज भी कुछ विशेष परिस्थितियों में संदेश भेजने के लिए प्राणियों का उपयोग किया जाता है ।
पशु पालन:
मनुष्य की भाँति ही भोजन तथा निवास पशुओं की भी मूलभूत आवश्यकताएँ है । इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो उपाय किए जाते हैं, उनको पशु पालन में समाविष्ट किया जाता है ।
ADVERTISEMENTS:
प्राणियों के भोजन:
घास, कड़बी, चना आदि गाय, भैंस, बैल तथा घोड़े के मुख्य भोजन हैं । इनके अतिरिक्त गाय तथा भैंस से अधिक दूध लेने और घोड़े तथा बैल से अधिक काम करवाने के लिए उन्हें ‘पूरक आहार’ दिए जाते हैं । इन्हें जानवरों का ‘पौष्टिक आहार’ कहते है ।
दूध देनेवाले जानवरों को प्रतिदिन ‘सानी’ दी जाती है । तेलहनों में से तेल निकालने के बाद बची हुई खली, अनाजों का दरदरा और गुड के मिश्रण में खटास पैदा करके सानी बनाई जाती है । खटास पैदा होने से खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता बढ़ जाती है । दूध देनेवाले जानवरों को बिनौले की खली खिलाते हैं ।
परिश्रम का काम करनेवाले घोड़े को भिगोए हुए चने खिलाते है । बैलों को भी सानी देते हैं । प्राणियों को ऐसे पदार्थ देने पर वे पुष्ट होते हैं । दूध देनेवाले और श्रम का काम करनेवाले जानवरों की तरह मांस के लिए उपयोग में आनेवाले जानवरों को भी पूरक आहार दिया जाता है ।
सूअरों को पुष्ट बनाने के लिए चावल की भूसी, चोकर तथा हड्डियों का चूरा और व्यर्थ फेंके जानेवाला भोजन दिया जाता है । ब्रायलर मुर्गियों को बाजार में बिकनेवाला पौष्टिक आहार दिया जाता है । भेडों को गेहूँ का भूसा, मकई जौ की खली खिलाई जाती है । प्राणियों के वजन का दो से ढाई प्रतिशत वजन के बराबर शुष्क आहार उन्हें प्रतिदिन दिया जाना आवश्यक है ।
दूध देनेवाले जानवरों के संबंध में यह मात्रा बढ़ जाती है । भोजन के साथ-साथ प्राणियों को प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में स्वच्छ पानी मिलना भी आवश्यक है । अस्वच्छ पानी देने पर उन्हें कई प्रकार के रोग होने की संभावना रहती है ।
प्राणियों के निवास:
भोजन तथा पानी की भाँति जानवरों को उपयुक्त निवास भी मिलना चाहिए । जानवरों को बाँधने में उपयोगी गोठ ऐसा स्थान होता जहाँ पानी का उत्तम निकास हो, ऊँचाई पर हो तथा शुष्क हो । बाँधने के लिए चुनी गई जगह का क्षेत्रफल इतना हो कि वे स्वतंत्रतापूर्वक हलचल कर सकें ।
गोठ का स्थान पक्का, ऐसी समतल फर्शवाला हो जिसके ढाल पर से उनका मूत्र स्वयं बह जाए । इनको खिलाने के लिए बनाई गई नाँद पक्की होनी चाहिए । गोठ की छत ऐसी होनी चाहिए जिससे गर्मी – वर्षा – तूफान आदि से इन्हें पर्याप्त संरक्षण मिल सके । जानवरों को पिलाया जानेवाला पानी गोठ के पास ही होना चाहिए ।
प्राणियों का स्वास्थ्य:
पालतू प्राणियों का स्वास्थ्य सदैव अच्छा बनाए रखने के लिए उनकी प्रतिदिन सही देखभाल करना आवश्यक है । जानवरों का गोठ सदैव साफ-सुथरा रखना पड़ता है । गोठे की फर्श को नियमित रूप मे जंतुनाशकों से धोना चाहिए, जिससे उन्हें रोग न लगे । ऐसा करने से जानवरों को मच्छरों, कुटकियों तथा पिस्सुओं आदि से कोई परेशानी नहीं होती ।
जानवरों को बार-बार केंचुओं (पेट के कीड़े से) परेशानी होती है । अत: समय-समय पर उन्हें जंतुनाशक औषधियाँ देते रहना चाहिए । भेंडों को किलनियों तथा जूं (ढील) से विशेष परेशानी होती है । उनकी गरदन पर, कंधे पर तथा गुदाद्वारा के आसपास किलनियाँ चिपकी रहती हैं ।
ये जानवरों के शरीर पर घाव कर देती हैं । उनके रक्त को शोषित करते रहती है । इन घावों में कभी-कभी कीड़े भी पैदा हो जाते हैं । इसलिए जुँओं तथा किलनियों से भेड़ों का संरक्षण करना आवश्यक है । जानवरों के कुछ रोगों के औषधीय उपचार उपलब्ध नहीं हैं । यदि मुर्गियों को बर्ड फ्लू तथा रानीखेत जैसे रोग हो जाएं, तो उनकी कोई औषधि ही नहीं है । कुत्ते अथवा अन्य जानवरों को अलर्क (रैबीज) रोग होने पर अब तक उसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है ।
एक निश्चित अवधि के बाद जानवरों को प्रतिबंधक टीके लगवाना आवश्यक होता है । ऐसा करने पर ऐसे रोगों से उनका बचाव होता है । कोई जानवर बीमार हो गया है, इसकी थोड़ी भी शंका होते ही, उसे तुरंत पशु चिकित्सालय ले जाकर सही उपचार करना आवश्यक है । देर हो जाने पर जानवर की मृत्यु होने की संभावना रहती है ।
संकरित जानवर:
वनस्पतियों के समान ही जानवरों में भी संकरित उत्पन्न करने की प्रौद्योगिकी विकसित हो गई है । ऐसे जानवरों से अधिक उत्पादन मिलता है । आर्थिक लाभ अधिक होता है । भारतीय गाय सामान्यत: प्रतिदिन ५-६ लीटर दूध देती है परंतु जर्सी, होल्स्टन या रेड डीन नस्लवाले साँड़ के साथ उनका संकरण होने के बाद पैदा होनेवाली गाय से प्रतिदिन १०-१२ लीटर दूध मिलता है । वर्तमान समय में महाराष्ट्र राज्य का कंधारी, देवनी, खिलारी तथा डांगी जाति की गायों का संकरण करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर चयन हो चुका है ।
पशु पालन– खेती संयुक्त का उद्योग और पूरक व्यवसाय:
गाय तथा भैंस का उपयोग दूध के लिए होता है । बैल, घोड़ा, गधा, ऊँट तथा भैंसा आदि से परिश्रमवाले काम करवाए जाते हैं । बैल, घोड़ा, ऊँट का उपयोग यात्रा के वाहनों में भी किया जाता है । इसके अतिरिक्त अन्य कई प्राणी विभिन्न विधियों से मनुष्य के लिए उपयोगी होते हैं । यही कारण है कि लोग जानवर पालते हैं ।
इन प्राणियों का जीवनयापन मुख्य रूप से वनस्पतियों पर ही निर्भर है । इसलिए पशु पालन को खेती का संयुक्त व्यवसाय कहते है । इसके अंतर्गत भेड़ पालन, कुक्कुट पालन, सूकर पालन इत्यादि का समावेश किया गया है । साथ-साथ रेशम, मोती, लाख तथा मछलियों के उत्पादन से संबंधित पूरक व्यवसाय भी किए जाते हैं । संयुक्त उद्योग और पूरक व्यवसाय करने से अधिक-से-अधिक उत्पादन प्राप्त होता है ।
भेंड़ पालन:
भेंड़ पालन को ‘मेष पालन’ भी कहते है । किसान यदि चाहें, तो संयुक्त उद्योग के रूप में भेंड़पालन का व्यवसाय कर सकते हैं । भेंड़पालन एक ऐसा संयुक्त उद्योग है, जिसमें भेड़ों के भोजन के लिए कोई विशेष प्रबंध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती ।
कंकरीली तथा बंजर जमीन में उगनेवाली बेर तथा बबूल जैसी झाड़ियों की पत्तियों और ज्वार, मूँगफली, चने इत्यादि के दाने निकालने के बाद बचे भूसे तथा डंठलों को भेड़ें बड़े चाव से खाती हैं । भेड़ों से ऊन, मांस तथा खाल तो मिलती ही है, इन्हें खेतों में बैठाने पर उत्तम किस्म की प्राकृतिक खाद भी प्राप्त होती है ।
इससे भेड़ पालक को आर्थिक लाभ होता है । एक भारतीय भेड़ से एक से डेढ़ किलोग्राम ऊन और १० से १२ किलोग्राम मांस मिलता है । इन्हें बेचकर भेड़ पालक कमाई करता है । अन्य प्राणियों के मलमूत्र की तुलना में भेड़ों के मलमूत्र में नाइट्रोजन, पोटाश तथा फासफोरस की मात्रा अधिक होती है ।
कुक्कुट पालन:
मांस तथा अंडे प्राप्त करने के लिए मुर्गियाँ पाली जाती हैं । इसके लिए विभिन्न प्रकार की मुर्गियों का उपयोग किया जाता है । अंडे देनेवाली मुर्गियों को ‘लेयर्स मुर्गियाँ’ कहते हैं । इसके विपरीत मांस प्राप्त करने के लिए पाली गई मुर्गियों को ‘ब्रायलर’ नाम से जाना जाता है ।
लेअर्स मुर्गियाँ इसलिए पाली जाती हैं कि ये खाती तो कम हैं परंतु अंडे अधिक देती हैं । भारत में इस जाति की मुर्गियाँ उपलब्ध न होने के कारण अंडे प्राप्त करने के लिए हवाइट लेगहार्न जाति की मुर्गियाँ अत: विदेश से मँगाई जाती हैं । इन मुर्गियों को प्रतिदिन केवल १२५ ग्राम के बराबर पौष्टिक आहार लगता है ।
प्रत्येक मुर्गी सामान्यत: एक वर्ष में २०० से २५० अंडे देती है । खाने के लिए उपयोगी ये अंडे फलित नहीं होते अर्थात इन अंडों से चूजे मिलने की संभावना नहीं होती । ऐसे अंडों को ‘टेबल एग्स’ भी कहते है । मांस देनेवाली मुर्गियों का शरीर हृष्टपुष्ट होता आवश्यक है । इन्हें अधिक-से-अधिक भोजन देकर इनका वजन बढ़ाने और मांस का अनुपात बढ़ाने का प्रयास किया जाता है ।
मांस प्राप्त करने के लिए होड आयलैंड रेड तथा हवाइट लेगहार्न जाति की विदेश से लाई गई मुर्गियों का उपयोग करते हैं । केवल ८ से १० सप्ताह के समय में इन मुर्गियों का वजन १३०० सै १५०० ग्राम तक बढ़ जाता है । इनका उपयोग खाने के लिए किया जाता है ।
मोती उद्योग:
प्राचीन काल से ही मोतियों को अत्यधिक महत्व है । आभूषण बनाने, सुशोभन की वस्तुएँ बनाने तथा कढ़ाई आदि करने में मोतियों का उपयोग किया जाता है । यही कारण है कि मोतियों की अत्यधिक माँग है । इसलिए मोती का उद्योग किया जाता है । समुद्र में पाए जानेवाले घोंघे (आयस्टर) तथा सीप जैसे प्राणियों से मोती मिलते हैं ।
पहले के समय में इन प्राणियों में मोती तैयार होने के लिए प्रकृति पर निर्भर रहना पड़ता था परंतु वर्तमान समय में मनुष्य ने ऐसी तकनीक का विकास कर लिया है जिसमें सीप-घोंघे के शरीर में उपयुक्त समय पर बालू के कण रोपित कर दिए जाते हैं । इस तकनीक के कारण मोतियों को बड़े आकार में पाना संभव हो सका है । व्यापार में इन मोतियों का महत्व भी अधिक है । इसे ही ‘संवर्धित (कल्वर्ड) मोती’ कहते हैं ।
लाख उद्योग:
डाकघरों में अथवा विभिन्न कार्यालयों में लिफाफों तथा थैलियों आदि को मुहरबंद करने के लिए उपयोग में लाई जानेवाली लाख से तुम अवश्य परिचित होंगे । लाख से नाना प्रकार की मणियाँ तैयार करके गहने-कपड़े बनाए जाते हैं । लाल रंगवाली आकर्षक लाख वास्तव में लाख के कीड़ों द्वारा स्रवित होनेवाला एक पदार्थ है ।
नागफनी वनस्पति तथा पलाश के वृक्षों पर बढनेवाले कीड़े ही लाख का निर्माण करते हैं । लाख का उत्पादन केवल भारत में ही होता है । लाख का व्यापारिक महत्व एवं मूल्य होने के कारण इसका उत्पादन किया जाता है ।
रेशम के कीड़ों का उत्पादन:
रेशम के कीड़ों से उच्च गुणवत्तावाला रेशम का धागा मिलता है । मनुष्य ने रेशम के कीड़ों का उत्पादन जारी रखा है । रेशम के कीड़ों से आर्थिक आय होती है । रेशम के कीड़ों की कई जातियाँ होती हैं । इनमें से शहतूत और चीड़ (पाइन) नामक वनस्पतियों की पत्तियाँ खानेवाले रेशम के कीड़ों की दो जातियाँ अधिक महत्वपूर्ण होती हैं ।
शहतूत की पत्तियाँ खानेवाले रेशम के कीड़ों से महीन तथा मुलायम रेशम मिलता है, जबकि चीड़ की पत्तियाँ खानेवाले रेशम के कीड़ों से मजबूत रेशम मिलता है । इसे टसर रेशम कहते हैं । रेशम के कीड़ों का जीवनचक्र बहुत कुछ मच्छरों के जीवनचक्र जैसा ही होता है । रेशम के कीड़े के जीवनचक्र में अंडा, लार्वा, प्यूपा (ककून) तथा पतंगा (प्रौढ़ नर या मादा) ऐसी कुल चार अवस्थाएँ होती है ।
इनमें से लार्वा अवस्थावाले रेशम के कीड़े को भोजन के रूप में पत्तियों की आवश्यकता होती है । रेशम के परिपक्व लार्वा के मुख में पाई जानेवाली लार ग्रंथियों में से एक चिपचिपा पदार्थ स्रवित होता है । इस लार का हवा से संयोग (संपर्क) होने के बाद उससे धागा बनता है । यही धागा लार्वा के चारों ओर लिपटने से उसका प्यूपा (ककून) बनता है । इसी ककून को पानी में उबालकर उससे रेशम का धागा प्राप्त करते
हैं ।
मत्स्योत्पादन:
मनुष्य वर्षों से समुद्र तथा नदियों के जल में पाई जानेवाली मछलियाँ ही खाता आ रहा है । मनुष्य पहले स्वाभाविक रूप से प्राप्त होनेवाली मछलियों का ही भोजन के रूप में उपयोग करता था परंतु अब समुद्र अथवा संचित किए गए पानी में विशिष्ट प्रकार के मत्स्यबीज डालकर मछलियों का संवर्धन किया जाता है और भोजन के रूप में उनका उपयोग किया जाता है ।
उत्तम प्रजाति के मत्स्यबीज उपलब्ध करवाने की व्यवस्था सरकार द्वारा भी की जाती है । मछलियों का समावेश समुद्री भोजन में किया जाता है । मीठे पानी में कटला, रोहू, मृगल तथा कार्प और खारे (नमकीन) पानी में बोय, रेणवी, चैनास तथा खसी जाति की मछलियाँ पाई जाती हैं ।