समकालीन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तथा निवेश की समस्या । “Problems of International Economic Relations, International Trade and Investment” in Hindi Language!
अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों में व्यापार तथा निवेश की समस्याएं:
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तथा निवेश की पद्धति से यह बात एकदम साफ हो जाती है कि विकसित तथा अल्पविकसित देशों की अर्थव्यस्थाओं में काफी विषमता है ।
आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष में व्यापार एवं निवेश की प्रणाली में एक नई धारणा विकसित हो गई है कि उन्नत राष्ट्र अविकसित राष्ट्रों में पूँजी निवेश तो करते हैं, परंतु आवश्यकता से अधिक इन राष्ट्रों का दोहन भी खूब करते हैं, जिससे गरीब राष्ट्र अधिक कमजोर होते जा रहे हैं और उनका घाटा दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है और आर्थिक क्षेत्र में विकसित राष्ट्रों का एकाधिकार कायम हो गया है ।
इसी कारण जब वे विकासशील एवं आवेकसित देशों से कच्चे मालों की खरीद करते हैं तो उसकी कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार के आधार पर नहीं वरन् विकसित देशों की मर्जी पर तय होती है । इसी कारण से विकसित राष्ट्र विकासशील राष्ट्रों के विभिन्न प्रकार के संसाधनों का उपयोग अपने हित में करते हैं ।
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अंतर्राष्ट्रीय बाजार के आधार पर मूल्यों के निर्धारण में विभेदकारी व्यवहारों के सबध में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की बैठक में अमेरिका ने एक प्रस्ताव के अंतर्गत यह माँग की कि विभिन्न राष्ट्रों से मँगाए जाने वाले संसाधनों में 50 प्रतिशत की वृद्धि की जाए और कर्जों का भुगतान नहीं करने वाले राष्ट्रों को संगठन से निलम्बित कर दिया जाए ।
अमेरिका का यह प्रस्ताव पूँजीपतियों के हित में है और दूसरी तरफ उसका यह विचार है कि विकासशील देशों पर और अधिक दबाव डालकर उसे अपने पंजे में कस लिया जाए । विकसित देशों का यह हमेशा प्रयत्न रहा है कि विकासशील देशों पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण रखा जाए ।
इसके लिए वे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व बैंक तथा विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से विकासशील देशों की आर्थिक नीतियों को नियंत्रित करने में लगे रहते हैं । वे व्यापार और निवेश इस दृष्टिकोण से करते हैं कि विकासशील देशों के आर्थिक संसाधनों का अधिकाधिक मात्रा में अपने हित एवं लाभ के लिए उपयोग करें तथा विकासशील देशों को अपने पंजे में कसे रखें ! अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तथा निवेश के साथ-साथ विकसित देशों की पकडू विश्व की आर्थिक व्यवस्था पर मजबूत होती जा रही है ।
इसी कारण अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए विकसित देश विश्व के विभिन्न देशों में बिखरे हुए संसाधनों को अपने मकसद की पूर्ति के लिए अपने नियंत्रण में लेने का प्रयत्न कर रहे हैं । इस तरह यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान समय में अथवा समकालीन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों में प्राचीन पूँजीवादी व्यवस्था एवं उपनिवेशवाद के समाप्त हो जाने के कारण विकसित देश नए औपनिवेशिक, नव-पूँजीवाद और नव साम्राज्यवादी नीतियों के अंतर्गत विकासशील एवं अविकसित देशों के प्राकृतिक संसाधनों का इस तरह से शोषण कर रहे हैं, जिस तरह से विकसित देश अपने साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के प्रसार एवं शासन काल में किया करते थे ।
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फर्क इतना है कि आज इनका स्वरूप बदल गया है, परंतु यह दोहन अविकसित एवं विकासशील देशों की समझौता संबंधी शर्तों की स्वीकृति के आधारपर हो रहा है, जिससे पहले की तरह इन देशों की संप्रभुता पर विशेष आँच नहीं आती है ।