Read this essay in Hindi to learn about the forests of India.
वन पौधों का समुदाय होता है । उसकी संरचना मुख्यतः उसके पेड़ों, झाड़ियों, लताओं और भू-आवरण से निर्धारित होती है । प्राकृतिक वनस्पति सुव्यवस्थित कतारों में बोए पौधों से बहुत भिन्न नजर आती और होती है । अधिकांश अछूते ‘प्राकृतिक’ वन मुख्यतः हमारे राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों में स्थित हैं । वन्य भूदृश्य एक-दूसरे से बहुत भिन्न दिखाई देते हैं और उनकी मनोहारी भिन्नता प्रकृति की सुंदरता को बढ़ाता है । विभिन्न प्रकार के वन विभिन्न प्रकार के जीव-समुदायों के आवास होते है जो उनमें रहने के लिए अनुकूलित होते हैं ।
वन्य पारितंत्र क्या है?
वन्य पारितंत्र के दो भाग होते हैं:
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i. वन के जीवनविहीन या अजैव पक्ष:
कोई वन किस प्रकार का होगा यह उस क्षेत्र की अजैव दशाओं पर निर्भर करता है । पहाड़, पहाड़ियों के वन नदी-घाटियों के वनों से भिन्न होते हैं । वनस्पति वर्षा और स्थानीय तापमान पर निर्भर होती है; यह अक्षांश, ऊँचाई और मिट्टी के प्रकार के अनुसार अलग-अलग होती है ।
ii. वन के जीवनयुक्त या जैविक पक्ष:
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पौधों और पशुओं के समुदाय वन के सभी प्रकारों के लिए अलग-अलग होते हैं । मसलन शंकुधारी पेड़ हिमालय क्षेत्र में होते हैं, मैनग्रोव वृक्ष नदियों के डेल्टाओं में होते हैं, काँटेदार पेड़ शुष्क क्षेत्रों में उगते हैं । बर्फ का तेंदुआ हिमालय क्षेत्र में रहता है जबकि चीते और बाघ शेष भारत के जंगलों में पाए जाते हैं ।
जंगली भेड़ें और बकरियाँ हिमालय के ऊँचे क्षेत्रों में होती हैं तथा हिमालयी वनों के अनेक परिंदे बाकी भारत के परिंदों से भिन्न होते हैं । पश्चिमी घाट और पूर्वोत्तर भारत के सदाबाहर वनों में पशुओं और पौधों की प्रजातियों की सबसे अधिक विविधता है ।
जैविक घटक में बड़े (स्थूल पादप) और सूक्ष्म पौधे और प्राणी शामिल हैं । पौधों में वनों के पेड़, झाड़ियाँ, लताएँ, घास और जड़ी-बूटियाँ आती हैं । इनमें फूल देने वाली प्रजातियाँ (angiosperms) और फूल न देने वाली प्रजातियाँ (gymnosperms) शामिल हैं, जैसे फर्न, ब्रायोफाइट, शैवाल और कवक । प्राणियों में स्तनपायी, परिंदे, सरीसृप, जलथलचारी (amphibians), मछलियाँ, कीट और दूसरे अकशेरुकी प्राणी और अनेक प्रकार के सूक्ष्मप्राणी शामिल हैं ।
एक-दूसरे पर बहुत अधिक निर्भरता के कारण पौधों और प्राणियों की प्रजातियाँ मिलकर अनेक प्रकार के वन्य समुदाय बनाती हैं । मानव इन वन्य पारितंत्रों का भाग है और स्थानीय जनता सीधे-सीधे वनों पर उन अनेक प्राकृतिक संसाधनों के लिए निर्भर होती है जो उनके जीवन के आधार होते हैं । जो लोग वनों में नहीं रहते वे वनों से प्राप्त वन्य वस्तुएँ, जैसे लकड़ी और कागज खरीदते हैं । इस तरह वे लोग बाजार से खरीदकर वन्य पैदावारों का अप्रत्यक्ष उपयोग करते हैं ।
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भारत में वनों के प्रकार:
वन का प्रकार किसी क्षेत्र की जलवायु और मिट्टी की विशेषता जैसे अजैव तत्त्वों पर निर्भर होता है । भारत के वनों को मोटे तौर पर शंकुधारी वनों (coniferous forests) और विस्तीर्णपर्णी वनों अर्थात चौड़े पत्तों वाले वनों (borad-leaved forests) में बाँटा जा सकता है ।
इनको उनके पेड़ों की प्रजातियों के आधार पर आगे वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे सदाबहार, पर्णपाती, मरुद्भिद (xerophytes) या काँटेदार पेड़ मैनग्रोव आदि । इनको पेड़ों की सबसे प्रचुर प्रजातियों के आधार पर भी वर्गीकृत किया जा सकता है, जैसे साल या टीक के जंगल । अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिसमें वन का नाम पेड़ों की तीन या चार सबसे प्रचुर प्रजातियों के नाम पर रखा जाता है ।
शंकुधारी वन हिमालय पर्वत के क्षेत्र में आते हैं जहाँ तापमान कम होता है । इन वनों में लंबे, शाहाना पेड़ होते हैं जिनकी पत्तियाँ सूई जैसी होती हैं और शाखें नीचे की ओर झुकी होती हैं ताकि बर्फ शाखों से फिसलकर नीचे आ सके । इनमें बीजों के बजाय शंकु (cones) होते हैं और ये अनावृतबीजी (gymnosperms) कहे जाते हैं ।
विस्तीर्णपर्णी वन अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे सदाबहार वन (evergreen forests), पर्णपाती (deciduous forests), काँटेदार (thorn forests) और मैनग्रोव वन (mangrove forests) । इन पेड़ों में आम तौर पर विभिन्न आकृतियों वाले चौड़े पत्ते होते हैं तथा ये बीचवाले या कम ऊँचाइयों पर पाए जाते हैं ।
सदाबहार वन पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत और अंडमान-निकोबार के भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं । ये वन उन क्षेत्रों में उगते हैं जहाँ मानसून का मौसम अनेक महीनों तक जारी रहता है । कुछ स्थानों पर दो मानसून होते हैं । पर्णपाती वनों की तरह इनका कोई पर्णहीन काल नहीं होता । इस कारण सदाबहार वन सालभर हरे-भरे दिखाई देते हैं । पेड़ों की चोटियाँ आपस में मिलकर लंबी-चौड़ी छतरी बनाती हैं ।
इसलिए वन के फर्श तक बहुत कम रोशनी पहुँचती है । जिन जगहों पर घनी छतरी से छन-छनकर थोड़ी-सी रोशनी पहुँचती है वहाँ जमीन पर कुछ एक छायाप्रेमी पौधे उग आते हैं । ऐसे वनों में आर्किड और फर्न बहुत होते हैं । पेड़ों की छालें काई से ढँकी होती हैं । इन वनों में वन्य प्राणी बहुत होते हैं और कीड़े-मकोड़े तो ढेरों होते हैं ।
पर्णपाती वन कम मौसमी वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं जहाँ मानसून कुछ माह तक ही जारी रहता है । टीक के पेड़ों के अधिकांश वन इसी प्रकार के होते हैं । पर्णपाती वन जाड़ों में और गर्मी के महीनों में पत्ते गिराते हैं । मानसून से ठीक पहले, मार्च और अप्रैल में उन पर नए पत्ते आ जाते हैं और फिर वर्षा के कारण ये बहुत अधिक बढ़ते हैं । इस तरह पत्तों के गिरने के और फिर से छतरी के बनने के अपने-अपने काल होते हैं । इन वनों में अकसर नीचे फर्श पर घनी वनस्पति उगती है क्योंकि वन के फर्श तक रोशनी आसानी से पहुँच जाती है ।
काँटेदार वन भारत के अर्धशुष्क क्षेत्रों में पाए जाते हैं । इनमें पेड़ दूर-दूर स्थित होते हैं और घास के खुले क्षेत्रों से घिरे होते हैं । मरुद्भिद (xerophytes) प्रजाति कहलाने वाले काँटेदार पौधे जल-संरक्षण में समर्थ होते हैं । इनमें से कुछ पेड़ों में छोटे पत्ते होते हैं जबकि दूसरों में घने, चिकनाईदार पत्ते होते हैं जिनसे जल वाष्प बनकर कम निकलता है । काँटेदार पेड़ों में लंबी या रेशेदार जड़ें होती है जो काफी गहरे मौजूद जल तक पहुँच सकती हैं । इनमें से अनेक पेड़ों में काँटे होते हैं जो जल की हानि को कम करते हैं और पेड़ों को शाकभक्षियों से बचाते हैं ।
मैनग्रोव वन समुद्रतट पर, खासकर नदियों के डेल्टाओं में उगते हैं । ये पेड़ इस योग्य होते हैं कि खारे और ताजे जल के मिश्रण में बढ़ सकें । नदियों की लाई हुई गाद (silt) से ढँके कीचड़दार क्षेत्रों में ये खूब फलते-फूलते हैं । मैनग्रोव पेड़ों में साँस लेने वाली जड़ें होती है जो पंकतटों (mudbanks) से बाहर निकल आती हैं ।
वन समुदाय (Forest communities):
वनों के उपयोग (Forest utilization):
प्राकृतिक वनों का सावधानी से उपयोग किया जाए तो वे स्थानीय जनता को अनेक प्रकार की वस्तुएँ देते हैं । जलावन या इमारती लकड़ी के लिए उनका अति-शोषण और इमारती लकड़ी या दूसरी पैदावारों के लिए एक ही प्रजाति वाले बागानों में उनका परिवर्तन स्थानीय जनता को दरिद्र बनाता है, क्योंकि आर्थिक लाभ प्रायः उन लोगों को मिलते हैं जो कहीं और रहते हैं । संसाधनों का पूरा आधार, जिन पर अतीत में स्थानीय जनता अनेक पीढ़ियों से निर्भर रही है, तेजी से नष्ट हो जाता है । आखिरकार पूरा का पूरा जंगल खत्म हो जाता है ।
प्राकृतिक वन्य पारितंत्र स्थानीय जलवायु और जलप्रवाह के नियंत्रण में अहम् भूमिका निभाते हैं । यह बात सब जानते हैं कि वन के बाहर की अपेक्षा प्राकृतिक वन की छतरी के नीचे अधिक ठंडक रहती है । मानसून में वन नमी को सोखकर सुरक्षित रखता है और बाकी साल बारहमासी नदियों में यह नमी धीरे-धीरे पहुँचती रहती है ।
बागान यह काम सही ढंग से नहीं कर पाते । एक नदी के जलग्रहण क्षेत्र में वन के आवरण का विनाश इस तरह के स्थायी परिवर्तन पैदा करता है, जैसे मिट्टी का अत्यधिक कटाव (अपरदन), मानसून में भूजल का भारी बहाव जिसके कारण आकस्मिक बाढ़ें आती हैं, और मानसून की समाप्ति के बाद जल की कमी ।
लोग वनों से फल, कंद-मूल जैसे खाद्य पदार्थ तथा जड़ी-बूटियाँ जैसे वन्य उत्पाद (forest products) प्राप्त करते हैं । लोग भोजन पकाने के लिए जलावन, मवेशियों के लिए चारा, घर बनाने के लिए निर्माण सामग्री तथा अनेक औषधीय पौधे भी प्राप्त करते हैं । वे रेशे, बेंत, गोंद आदि पदार्थ घरेलू वस्तुएँ बनाने के लिए प्राप्त करते हैं । विभिन्न प्रजातियों के पेड़ों की लकड़ी के अलग-अलग उपयोग होते हैं । उदाहरण के लिए, नर्म लकड़ी का इस्तेमाल बैलगाड़ी का जुआ और सख्त लकड़ी का इस्तेमाल धुरा बनाने के लिए होता है ।
इन वन्य पैदावारों का भारी आर्थिक महत्त्व होता है । इन्हें जमा करके बाजार में लाया और बेचा जाता है । वनवासी और कृषक इन पदार्थों का सीधे इस्तेमाल करते हैं जबकि दूसरे लोग इन्हें अप्रत्यक्ष ढंग से, बाजार से प्राप्त करते हैं । परंपरागत ढंग की खेती में शाखाओं और जाड़ों जैसी वन्य वस्तुओं का उपयोग होता है । इनको जलाकर राख बनाई जाती है जो धान जैसी फसल लिए खाद का काम करती है ।
नगरवासी इन वन्य संसाधनों का अप्रत्यक्ष उपयोग करते हैं । उनके खाने-पीने की और अन्य वस्तुएँ कृषि के क्षेत्रों से आती हैं जो पास के वनों पर निर्भर होते हैं । नदी-नालों में जलप्रवाह का नियंत्रण वनों से मिलने वाले लाभों (forest services) में शामिल है । वन्य आवरण भूतल पर वर्षा जल के बहाव को कम करता है और उसका भूमिगत संचय संभव बनाता है । वन मिट्टी के कटाव को भी रोकता है ।
मिट्टी कटकर बह जाए तो उसे फिर से बनने में हजारों साल लग सकते हैं । वन स्थानीय तापमान को भी नियंत्रित करता है । वन में पेड़ों की छाँव में ठंडक और नमी अधिक होती है । सबसे बड़ी बात यह है कि वन कार्बन डाइआक्साइड लेकर आक्सीजन छोड़ता है जिसे हम साँस में लेते हैं ।
हमारी फसलों और फलदार पेड़ों के जंगली संबंधियों के जीन (gene) में कुछ खास विशेषताएँ होती हैं जिनका उपयोग नई फसलों और फलों की नई प्रजातियों के विकास के लिए किया जाता है । जंगली पौधों से विकसित ये नई किस्में अधिक उपज देती हैं और अधिक रोग-प्रतिरोधी होती हैं । वनों के जंगली पौधों से नई औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन किया जा रहा है । हमारी अनेक दवाएँ जंगली पौधों से आती हैं ।
वन्य पारितंत्र के लिए क्या-क्या खतरे हैं?
जंगल बहुत धीमी गति से बढ़ते हैं । इसलिए किसी एक मौसम में वे अपनी वृद्धि के दौरान जितना संसाधन दे सकते हैं, उससे अधिक का इस्तेमाल हम नहीं कर सकते । एक सीमा से आगे इमारती लकड़ी ली जाए तो जंगल का पुनर्जन्म नहीं हो सकता । वन में खालीपन आने से उसके प्राणियों के निवास की गुणवत्ता बदल जाती है, और इन बदली हुई दशाओं में अधिक नाजुक प्रजातियाँ जीवित नहीं रह सकतीं ।
वन्य संसाधनों का अति-उपयोग हमारे इन सीमित संसाधनों के उपयोग का एक अनिर्वहनीय ढंग है । आज हम अधिकाधिक ऐसी वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं जो वनों से प्राप्त कच्चे माल से बनती हैं । इससे वनों का ह्रास होता है और आखिरकार पारितंत्र एक बंजर क्षेत्र में बदल जाता है । आज अनेक जंगलों से लकड़ी की गैरकानूनी कटाई हो रही है जिससे पारितंत्र की अपूरणीय क्षति हो रही है ।
विकास के कार्य, तीव्र जनसंख्या वृद्धि और साथ में नगरीकरण, उद्योगीकरण और उपभोक्ता वस्तुओं के बढ़ते उपयोग के कारण वन्य पैदावारों का अति-उपयोग हो रहा है । हमारी खेतिहर जमीन की जरूरत बढ़ने के कारण जंगल तेजी से सिमट रहे हैं । अनुमान है कि पिछली सदी में भारत का वन्य आवरण 33 से घटकर 11 प्रतिशत रह गया है । इमारती लकड़ी या कागज के लिए लुगदी के बढ़ते उपयोग और जलावन के व्यापक उपयोग के कारण वन काटे जा रहे हैं ।
खनन कार्य और बाँधों के निर्माण से भी जगंल खत्म हो रहे हैं । वन्य संसाधनों का जब उपयोग होता है तो वनों की छतरी टूट जाती है, पारितंत्र का ह्रास होता है, और वन्यजीवन के लिए गंभीर खतरे पैदा होते हैं । वन जब छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट जाता है तो उसके पौधों और प्राणियों की वन्य प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं । फिर इनको कभी वापस नहीं प्राप्त किया जा सकता ।
वनों का लोप हो जाए तो?
अगर वन कट गए तो जनजातीय लोगों के लिए जीना मुश्किल हो जाएगा जो खाद्य, जलावन और दूसरी वस्तुओं के लिए सीधे-सीधे उस पर निर्भर होते हैं । कृषकों को पर्याप्त जलावन के लिए या घर और खेती के औजार के लिए पर्याप्त लकड़ी नहीं मिलेगी । नगरवासी भोजन के लिए कृषि क्षेत्रों पर निर्भर होते हैं जो खुद भी पास के वन्य पारितंत्रों पर निर्भर होते हैं, और मानव की जनसंख्या बढ़ने पर उनको भोजन के लिए अधिक दाम देने होंगे ।
जो कीड़े-मकोड़े वनों में रहते और पलते-बढ़ते हैं, जैसे मक्खियाँ, तितलियाँ और पतंगे, उनकी संख्या वनों के विनाश के साथ कम होने लगती है । जब उनकी संख्या कम हो जाती है तो वे खेतिहर फसलों और फलों के पौधों के कारगर परागण में असमर्थ हो जाते हैं । इससे खेतिहर पैदावार में कमी आती है ।
वनरहित भूमि पर जो वर्षा होती है वह बहकर सीधे पास की नदियों में चली जाती है । इस तरह जल का भूमिगत संचय नहीं होता और लोगों को साल भर पर्याप्त जल नहीं मिलता । वनों के रक्षक आवरण के नष्ट होने से वर्षा से नंगी धरती का तेजी से कटाव होता है जिससे ऐसे क्षेत्रों में कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ता है ।
वनरहित क्षेत्रों में बहकर आने वाली मिट्टी के कारण नदी-नालों का पानी मटमैले रंग का होता है जबकि वनों के पास के नदी-नालों में यह दर्पण जैसा साफ होता है । साथ ही वन्य प्राणियों के आवास नष्ट होने से अनेक बहुमूल्य प्रजातियाँ नष्ट हो जाती हैं । भावी पीढ़ियों के लिए अगर पौधों और प्राणियों की तमाम विविध प्रजातियों का संरक्षण करना है तो हमें बाकी बचे वनों को नष्ट होने से बचाना होगा ।
वन्य पारितंत्र का सरंक्षण कैसे करें?
हम वनों का संरक्षण तभी कर सकते हैं जब उसके संसाधनों का सावधानी से उपयोग करें । इसके लिए हमें जलावन लकड़ी की जगह ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग करना होगा । हर साल इमारती लकड़ी के लिए जितने वन काटे जाते हैं, उससे अधिक वन लगाने की आवश्यकता है । वनरोपण निरंतर होना चाहिए ताकि उसकी जलावन और इमारती लकड़ी का विवेकपूर्ण उपयोग किया जा सके । तमाम विविध प्रजातियों के साथ प्राकृतिक वनों का संरक्षण राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों के रूप में करना होगा जहाँ तमाम पौधे और पशु-पक्षी सुरक्षित रह सकें ।