Read this essay in Hindi language to learn about the definition and functions of family.
परिवार की परिभाषा (Definition of Family):
परिवार को विभिन्न विद्धानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है:
1. मैकाइवर और पेज के अनुसार:
”परिवार एक समूह है जो यौन सम्बन्धों पर आधारित है और पर्याप्त रूप से सीमित एवं स्थायी हो कि सन्तानोत्पत्ति और सन्तान का पालन-पोषण करने में सक्षम है ।”
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2. बगेर्स और लॉक के अनुसार:
”परिवार विवाह के बन्धन में बंधे हुए रक्त व गोद आदि के सूत्र से बँधे हुए व्यक्तियों का समूह है जो एक घर बनाकर, पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के रूप में एक-दूसरे से अन्तःकियाएँ करते हैं तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण करके उसकी देखरेख करते हैं ।”
अत: उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि परिवार माता-पिता तथा बच्चों का एक छोटा-सा सामाजिक धर्म है । अत: परिवार रक्त सम्बन्धों में बँधे हुए सदस्यों के एक सामाजिक समूह के रूप में रहता है । इस प्रकार परिवार एक समाज में विद्यमान एक ऐसी संस्था है जिसके दो संरचनात्मक एवं कार्यात्मक पहलू होते हैं ।
परिवार के कार्य: (Function of Family):
परिवार समाज का एक स्थायी समूह है जिसके अनेकों कार्य होते हैं । विवाह के पश्चात नये परिवार की स्थापना होती है जूनमें बच्चों का जन्म होता है । जन्म के पूर्व से जीवन पर्यन्त व्यक्ति को अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवार की आवश्यकता होती है ।
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परिवार पूर्ण जीवन भर अपने सदस्यों की सुख-सुविधा, मान-सम्मान, रुचि-अरुचि, शिक्षा-दीक्षा आदि आवश्यकताओं की पूर्ति तो करता ही है इसके साथ ही मृत्यु के पश्चात् अंत्येष्टि तथा पितरों को पिंडदान देने का कार्य भी परिवार ही करता है ।
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परिवार के प्रति प्रौढ़ों के उत्तरदायित्व (Responsibilities of Family for Adults):
परिवार चाहे संयुक्त हो या एकांकी । परिवार के मुखिया का उत्तरदायित्व होता है कि वह अपने परिवार का संचालन व प्रबन्धन उचित प्रकार से करे जिससे परिवार के सदस्य उन्नति करें, संतुष्ट रहें तथा देश के अच्छे नागरिक बनें ।
परिवार के निर्माता पति-पत्नी ही होते हैं जो एक-दूसरों के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करते हैं । परन्तु जब वे एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों को निभाने में उदासीनता दिखाने लगते हैं तो आपसी मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इसका परिणाम सम्बन्ध-विच्छेद की स्थितियों तक आ जाता है ।
सन्तान उत्पन्न होने के पश्चात् स्त्री-पुरूष के दायित्व बढ़ जाते हैं अब उन्हें प्रमुख रूप से माता-पिता के रूप में अपने भारी या जटिल उतरदायित्वों को निभाना पड़ता है । परिवार यदि संयुक्त है तो अन्य सदस्य भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपना योगदान देते हैं परन्तु परिवार संचालन का प्रमुख उत्तरदायित्व माता-पिता पर ही निर्भर करता है ।
पिता का परिवार में स्थान (Place of Father in Family):
भारतवर्ष में परिवार पितृ सत्तात्मक होते हैं । पिता परिवार का मुखिया, स्वामी व प्रबन्धक होता है । पिता शब्द की उत्पत्ति ‘पा’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है: ”सन्तान की रक्षा करने वाला ।” वेदों में पिता को ज्ञाता तथा परिवार को खाद्य-सामग्री प्रदान करने वाला बताया गया है ।
आधुनिक युग में भी पिता का परिवार में महत्वपूर्ण स्थान व योगदान है ।
पिता के कर्तव्य निम्न प्रकार हैं:
i. उसका पति के रूप में प्रमुख कर्तव्य है कि पत्नी की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना ।
ii. घर-गहस्थी की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धनोपार्जन करना उसका प्रधान कार्य है ।
iii. पिता के रूप में वह सन्तान को भोजन, वस्त्र, शिक्षा, मनोरंजन आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु साधन जुटाता है व गृहणी के सहयोग से उन्हें पूरी करता है ।
iv. पिता की सहानुभूति व नियन्त्रण में बालकों का विकास स्वाभाविक रूप से होता है ।
v. पुत्र के लिये पिता एक आदर्शपूर्ण स्थान प्राप्त करता है तथा वह उसके व्यवहार का अनुकरण करने का प्रयत्न करता है ।
vi. पिता परिवार में मतभेद तथा अशान्ति होने पर उसे दूर करता है ।
vii. परिवार के हित के लिये उसे त्याग करना पड़ता है चाहे उसके अपने स्वार्थ का ही क्यों न हो ।
viii. उत्सव, त्योहार, विवाह तथा अन्य कोई भी हर्ष-शोक के समय उसे अत्यन्त संयम तथा विवेक से कार्य लेना पड़ता है ।
माता का परिवार में स्थान (Place of Mother in Family):
माता का भी स्थान पिता के ही समान परिवार में अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है । माता भी सन्तान के प्रति अपने महत्वपूर्ण कर्तव्यों का निर्वाह करती है । यथार्थ में परिवार की मुख्य निर्मात्री माता ही होती है । माता बच्चे को जन्म देकर परिवार व वंश का निर्माण करती है ।
विवाह के बाद पत्नी, पति के घर की स्वामिनी हो जाती है । पति द्वारा अर्जित सम्पत्ति का उपयोग करना, घर-गृहस्थी के विभिन्न कार्यों में पति की सहायता करना, गृह का प्रबन्ध करना आदि उसके प्रमुख कर्तव्य होते हैं ।
माता के रूप में वह केवल सन्तान पैदा ही नहीं करती है अपितु वह सन्तान का पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा का कार्य भी करती है । वह प्यार, प्रेम, सेवा व सहनशीलता से परिवार के सदस्यों की सेवा सुभूषा व आवश्यकताओं की पूर्ति भी करती है ।
प्रौढ़ावस्था में परिवार के मुखिया के रूप में उत्तरदायित्व:
प्रौढ़ावस्था में पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक के रूप में काम करते हैं । परिवार केवल लिंग के आधार पर ही नहीं चलता परन्तु अपनी योग्यता व कुशलता के आधार पर दोनों में से कोई एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है परन्तु हर परिवार में दोनों की भूमिका अलग-अलग होती है किसी परिवार में पिता प्रधान प्रभुत्व की भूमिका अदा करता है तो किसी परिवार में माता का प्रभाव अधिक होता है ।
यह बात तो पूर्ण रूप से निश्चित है कि दोनों ही गृह निर्माता के रूप में कार्य करते हैं ।
अत: गृह निर्माता के रूप में प्रौढ़ों के पारिवारिक उत्तरदायित्व निम्न प्रकार हैं:
(1) आयोजक के रूप में (As an Organizer):
गृह निर्माता के रूप में आयोजक का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जिसकी सफलता निम्न बातों पर निर्भर करती है: कार्य की सफलता उसके कुशल आयोजन व सुव्यवस्थित सम्पादन पर निर्भर करती है । विवेकपूर्ण ढंग से बनाई हुई योजना कार्य को सरल एवं लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायता करती है । गृह निर्माता में आयोजक क्षमता होने पर ही समय, शक्ति तथा धन की दृष्टि से परिवार की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है ।
(2) संगठक के रूप में (As a Manager):
गृह निर्माता का संगठक के रूप में स्थान भी अति महत्वपूर्ण होता है । परिवार के विभिन्न कार्यों का आयोजन करने के पश्चात् उनका संगठन करना अत्यन्त आवश्यक होता है ।
योग्य, अनुभवी, कुशल एवं बुद्धिमान गृह निर्माता अपने पास उपलब्ध सभी साधनों का संगठन इस प्रकार करता है कि उसके घर के रहन-सहन का स्तर पर्याप्त रूप से उन्नत व खुशहाल हो । धन का उचित व्यय करना तथा भविष्य के लिये बचत करना भी संगठन का कार्य है ।
सीमित आय में बच्चों की शिक्षा, परिवार के सभी सदस्यों का विकास, व्यवसाय सम्बन्धी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करना भी संगठन में ही आता है । इसके साथ-साथ घर में होने वाले अन्य विभिन्न शारीरिक व मानसिक कार्यों का संगठन भी इसी प्रकार किया जाता है । परिवार के अन्य सदस्यों को उनकी योग्यता व रुचि के अनुसार कार्य दिया जाता है ।
परिवार में होने वाले धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का संगठन भी इस प्रकार करना चाहिए कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को यथाशक्ति अपना योगदान करने का अवसर मिले । इसी प्रकार मनोरंजनात्मक, शिक्षा सम्बन्धी आदि विभिन्न क्रिया-कलापों का संगठन करना ।
(3) प्रबन्धक के रूप में (As an Administrator):
गृह निर्माता अपने घर में एक क्रियाशील प्रबन्धक के रूप में कार्य करता है । उसका कार्य केवल योजना बनाना ही नहीं है अपितु योजना के अनुसार उन्हें संगठित करके क्रियान्वयन करना है । इसके लिये उसे उचित व विस्तारपूर्वक प्रबन्ध करना पड़ता है । घर के वातावरण को आकर्षक बनाये रखना ।
परिवार के सदस्यों की आयु, लिंग, मौसम तथा रुचि के अनुकूल पौष्टिक व उचित वस्त्र तथा रहने का उचित प्रबन्ध करने का कार्य प्रधानत: वही करता है । घर में मनोरंजनात्मक, सामाजिक एवं धार्मिक क्रिया-कलापों का विस्तृत प्रबन्ध करना भी गृह निर्माता का दायित्व है ।
उसे विभिन्न कार्यों के सम्पादन का प्रबन्ध इस प्रकार करना चाहिए कि श्रम, समय व धन की बचत हो सके । गृह निर्माता का प्रमुख कार्य यह भी है कि वह परिवार के सदस्यों के मध्य स्वस्थ, सुदृढ़ एवं स्नेहपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रबन्ध करे ।
(4) निर्देशक के रूप में (As a Director):
कार्य के सुपरिणाम इस बात पर निर्भर होते हैं कि रह निर्माता निर्देशक के रूप में कितना व्यावहारिक है । गृह निर्माता का कार्य फिल्म के निर्देशक के समान ही होता है । परिवार के स्तर, जीवन मूल्यों व वारिवारिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से वह अपने बच्चों को, पत्नी को व घर के नौकर को भी निर्देशित करता है ।
गृह में होने वाले कार्यों की कुशलता इस बात पर निर्भर होती है कि निर्देशन कितना प्रभावपूर्ण है । गृह-निर्माता को विनम्रता एवं मधुरता पूर्ण ढंग से स्पष्ट तथा संक्षेप में निर्देशन देने चाहिए ताकि निर्देशित व्यक्ति अच्छी तरह से समझकर उत्साह व प्रसन्नतापूर्वक निर्देशों का पालन कर उन्हें क्रियान्वयन कर सके ।
जहाँ तक सम्भव हो निर्देशन कम से कम दिये जाएँ । निर्देशन प्रसल मुद्रा में सहानुभूतिपूर्ण ढंग से देने चाहिए । परिवार में बच्चों को सर्वाधिक निर्देशन की आवश्यकता होती है । बालकों व किशोरों में अच्छी आदतों के निर्माता तथा अवांछनीय आदतों से बचाने, उनके व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास का दायित्व गृह निर्माता पर ही होता है । बच्चों को निर्देशित करते समय उसे प्यार व सहानुभूतिपूर्ण से व्यवहार करना चाहिए । निर्देश देते समय बच्चों की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं का भी ध्यान रखना चाहिए ।
किन्हीं परिस्थितियों में गृह निर्माता को अपने जीवन साथी को भी निर्देशित करने की आवश्यकता है प्राय: ऐसे अवसर कम ही आते हैं । यदि पति-पत्नी में से किसी एक में बुरी आदत है तो प्रभावपूर्ण निर्देश की आवश्यकता होती है ।
(5) गृह निर्माता के रूप में (As a Home Maker):
गृह निर्माण का पूरा दायित्व गृह निर्माता को होता है । एक सफल गृह निर्माता घर में उत्तम साज-सजा से सामग्रियों को उपलब्ध करता है । घर में आवश्यकतानुसार फर्नीचर, वस्त्र आदि को खरीदने की योग्यता होनी चाहिये । घर में पुरानी फटी व खराब वस्तुओं में सुधार करके उन्हें उत्तम ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए । यदि घर सुसजित व व्यवस्थित होगा तो परिवार के सभी सदस्यों को प्रसन्नता होगी ।
(6) संयोजक के रूप में (As a Connector):
घर के विभिन्न सदस्यों तथा उनके क्रिया-कलापों के मध्य संयोजन का महत्वपूर्ण कार्य करता है । सभी कार्यों को एकीकृत, सन्तुलित एवं व्यावहारिक रूप से आयोजित करने में सहायता प्रदान करता है । गृह निर्माता का कुशल संचालन ही पारिवारिक जीवन को सुखमय बना सकता है ।
(7) एक शिक्षक एवं मार्गदर्शक के रूप में (As an Instructor):
बालकों के लिये घर ही सर्वप्रथम पाठशाला है तथा माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक है । बच्चों के व्यक्तित्व का विकास, उचित नैतिक मूल्यों, चारित्रिक गुणों, पास्परिक व्यवहार कुशलता अर्थात् मानवोचित गुणों का समावेश माता-पिता ही अपने आदर्श व्यक्तित्व तथा व्यवहार के माध्यमों से करते हैं ।
वे बालकों को स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय तथा धार्मिक शिक्षा में सहायता प्रदान करने का कार्य करते हैं । इन कार्यों को वे तभी कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं जब उनमें तत्पर बुद्धि तथा शैक्षिक योग्यता हो ।
अत: गृह निर्माता में बच्चों को समाज द्वारा मान्य विधियों के अनुसार सिखाने व पथ प्रदर्शन का कार्य करने की योग्यता होना आवश्यक है । उपरोक्त बिन्दुओं से स्पष्ट होता है कि गृह निर्माता जितनी कुशलतापूर्वक एवं बुद्धिमत्ता से अपने बहुमुखी उत्तरदायित्व को वहन करता है परिवार उतना ही सुदृढ़, प्रगतिशील एवं सुखी होता है ।