Read this essay in Hindi to learn about the functions of ecosystem.
पारितंत्र की अवधारणा (Concept of an Ecosystem):
‘पारितंत्र’ (ecosystem) एक विशेष और पहचान योग्य भूदृश्य वाला क्षेत्र होता है, जैसे वन, चरागाह, रेगिस्तान, दलदल या तटीय क्षेत्र । पारितंत्र की प्रकृति उसके पहाड़ियों, पहाड़, मैदानों, नदियों, झीलों, तटीय क्षेत्रों या द्वीपों जैसी भौगोलिक विशेषताओं पर आधारित होती है । जलवायु की दशाएँ भी उसे नियंत्रित करती हैं, जैसे उस क्षेत्र में धूप की मात्रा, तापमान और वर्षा की मात्रा ।
भौगोलिक, जलीय, जलवायवीय (climatic) और मिट्टी संबंधी विशेषताएँ उसके अजैविक घटक (abiotic components) होते हैं । ये विशेषताएँ ऐसी दशाएँ पैदा करती हैं जो उन पेड़-पौधों और प्राणियों के समुदाय को सहारा देती हैं जिनको उन विशेष दशाओं में विकास की प्रक्रिया ने पैदा किया है । पारितंत्र के जीवित भाग को उसका जैविक घटक (biotic components) कहते हैं ।
पारितंत्रों को स्थलीय और जलीय पारितंत्रों में विभाजित किया जाता है । ये पृथ्वी पर जीवित प्रणियों के निवास की प्रमुख दशाएँ हैं । किसी क्षेत्र के सभी प्राणी पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों के समुदायों में रहते हैं । वे अलग-अलग समय पर अलग-अलग कारणों से अपने अजैविक पर्यावरण से और आपस में भी अंतःक्रिया करते रहते हैं । पृथ्वी पर जल, थल और वायु के एक छोटे-से भाग में ही जीवन संभव है । विश्व के स्तर पर पृथ्वी का पतला-सा ऊपरी भाग, जिसमें जल, थल और वायु आते हैं, जीवमंडल (biosphere) कहलाता है ।
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विश्व से नीचे के स्तर पर इसे जैव-भौगोलिक परिमंडलों (biogeographical realms) में बाँटा जाता है । उदाहरण के लिए, यूरेशिया पैलियार्टिक परिमंडल (Paleartic realm) है, दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया (जिसका भारत एक बड़ा भाग है) ओरियंटल परिमंडल (Oriental realm) है । उत्तरी अमेरिका नियार्टिक परिमंडल (Neartic realm) है, दक्षिण अमेरिका नियोट्रोपिकल परिमंडल (Neotropical realm) है, अफ्रीका इथियोपियाई परिमंडल (Ethiopean realm) है और आस्ट्रेलिया आस्ट्रेलियाई परिमंडल (Australian realm) है ।
राष्ट्र या राज्य के स्तर पर जैव-भौगोलिक क्षेत्र (bio-geographical regions) होते हैं । भारत में अनेक सुस्पष्ट भौगोलिक क्षेत्र हैं-हिमालय, गंगा का मैदान, मध्य भारत का पठार, पश्चिमी और पूर्वी घाट, पश्चिम का अर्धशुष्क रेगिस्तान, दकन का पठार, तटीय पट्टियाँ तथा अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह । भौगोलिक रूप से सुस्पष्ट इन क्षेत्रों में प्रत्येक में ऐसे पौधे और प्राणी हैं जो क्षेत्र-विशेष की परिस्थितियों के अनुकूल अपने को ढाल चुके हैं ।
और भी स्थानीय स्तर पर लें तो हर क्षेत्र में ढाँचागत और प्रकार्यात्मक दृष्टि (structurally and functionally) से पहचान योग्य पारितंत्र हैं, जैसे विभिन्न प्रकार के वन, चरागाहें, नदियों के जलग्रहण क्षेत्र (river catchments), डेल्टाओं की मैनग्रोव दलदलें, सागर तट, द्वीप आदि इसके कुछ उदाहरण हैं । इनमें हर एक विशेष पौधों और प्राणियों का आवास (habitat) है ।
परिभाषा: किसी क्षेत्र में प्राणियों और पौधों के जीवंत समुदाय और साथ में पर्यावरण के अजैविक घटक-जैसे मिट्टी, हवा, पानी-को पारितंत्र कहते हैं । कुछ पारितंत्र खासे जानदार होते हैं और एक सीमा तक मानव के कार्यकलापों से कम ही प्रभावित होते हैं । कुछ अन्य पारितंत्र नाजुक होते हैं और मानव के कार्यकलापों से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । पर्वतीय पारितंत्र बेहद नाजुक होते हैं । इसका कारण है कि वनों के आवरण का ह्रास होने पर मिट्टी का भारी कटाव होता है और नदियों के मार्ग बदल जाते हैं ।
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द्वीपीय पारितंत्र भी मानवीय कार्यकलाप से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं और इसके कारण वहाँ के पौधों और पशु-पक्षियों की अनेक अनोखी प्रजातियों का तेजी से विनाश हो सकता है । सदाबहार वन और प्रवाल भित्तियाँ (coral reefs) भी अनेक प्रजातियों वाले नाजुक पारितंत्रों के उदाहरण हैं जिनको उसका ह्रास कर सकने वाले अनेक प्रकार के मानवीय कार्यकलापों से बचाया जाना चाहिए । प्रदूषण द्वारा और आसपास भूमि के उपयोग में परिर्वतनों से नदियों और दलदलों के पारितंत्र भी गंभीरता से प्रभावित हो सकते हैं ।
पारितंत्रों का बोध (Understanding Ecosystems):
प्राकृतिक पारितंत्रों में जंगल, चरागाहें, रेगिस्तान तथा तालाब, नदी, झील और समुद्र जैसे जलीय पारितंत्र शामिल हैं । मनुष्य द्वारा परिवर्तित पारितंत्रों (man-modified ecosystems) में खेती की जमीनें तथा भूमि के औद्योगिक और नगरीय उपयोग के ढर्रे शामिल हैं ।
हर पारितंत्र में कुछ साझी विशेषताएँ होती हैं जिनको उस क्षेत्र में देखा जा सकता है:
i. वह पारितंत्र दिखाई कैसा देता है ?
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हम अपने परिवेश के विशेष पारितंत्रों की खास विशेषताओं का वर्णन कर सकते हैं । नगरीय और प्राकृतिक परिवेश, दोनों में क्षेत्रीय अवलोकन (field observations) किए जाने चाहिए ।
ii. उसका ढाँचा क्या है ?
क्या वह जंगल है, चरागाह, जलाशय, खेतिहर क्षेत्र, चरागाही क्षेत्र, नगरीय क्षेत्र अथवा औद्योगिक क्षेत्र आदि है ? आपको देखना है उसकी विभिन्न विशेषताओं को । एक जंगल में जमीन से फुनगी तक अनेक स्तर होते हैं । तालाब में किनारे से लेकर मध्य तक अनेक प्रकार के पौधे होते हैं । पहाड़ों पर वनस्पति तलहटी और चोटी के बीच बदलती रहती है ।
iii. उसके पौधों और पशुओं की प्रजातियों की संरचना क्या है ?
जिन जाने-पहचाने पौधों और पशुओं को आप देखें, उनकी सूची बनाइए । फिर प्रकृति में उनकी बहुतायत और संख्या को दर्ज कीजिए-बहुत आम, आम, कम नजर आने वाले, और दुर्लभ । मिसाल के लिए जंगली स्तनपायी कम मिलेंगे और मवेशी आम मिलेंगे । कुछ पक्षी आम हैं; पता कीजिए कि पक्षियों की सबसे आम प्रजातियाँ कौन-सी हैं? कीड़ों की प्रजातियाँ बहुत आम और सबसे प्रचुर हैं । वास्तव में ये इतनी अधिक होती हैं कि आसानी से गिनी नहीं जा सकतीं ।
iv. पारितंत्र कैसे काम करता है ?
पारितंत्र अनेक जैव-भूरासायनिक चक्रों (biogeochemical cycles) और ऊर्जा के स्थानांतरण की व्यवस्थाओं (energy-transfer mechanism) के द्वारा काम करता है । पारितंत्र के घटकों को देखिए और इनमें वायु, जल, जलवायु और मिट्टी जैसे अजैविक घटक और विभिन्न पौधों और प्राणियों जैसे जैविक घटकों को दर्ज कीजिए ।
पारितंत्र के ये दोनों पक्ष अनेक कार्यप्रणालियों के द्वारा आपस में अंतःक्रिया करके प्रकृति के पारितंत्र बनाते हैं । पौधों, शाकाहारियों और मांसाहारियों से खाद्य शृंखलाएँ (food chains) बनती देखी जा सकती हैं । ये सभी शृंखलाएँ जुड़कर वह ‘जीवन-जाल’ (web of life) बनाती हैं जिस पर मानव निर्भर है । इनमें से हर खाद्य-शृंखला ऊर्जा का उपयोग करती है जो सूर्य से मिलती है और पारितंत्र को संचालित करती है ।
पारितंत्र का ह्रास (Ecosystem Degradation):
पारितंत्र स्वयं जीवन के आधार हैं । निर्जन क्षेत्र के प्राकृतिक पारितंत्रों से अनेक उत्पाद प्राप्त होते हैं ओर इनमें ऐसी प्रक्रियाएँ अनवरत चलती रहती हैं जिन पर मानव सभ्यता का अस्तित्व टिका हुआ है ।
लेकिन मानव के कार्यकलाप प्रायः पारितंत्रों में विघ्न डालते हैं जिससे पौधों व प्राणियों की उन प्रजातियों का विनाश होता है जो विशेष प्राकृतिक पारितंत्रों में ही रह सकते हैं । कुछ प्रजातियों का विनाश पारितंत्रों पर गंभीर प्रभाव डालता है । इनको ‘आधारी’ (keystone) प्रजातियाँ कहते हैं । इनका विनाश भूमि के उपयोग में परिवर्तन से होता है ।
इमारती लकड़ी के लिए जंगल काटे जाते हैं, खेती की जमीन बढ़ाने के लिए दलदलों को सुखाया जाता है तथा घास के उन अर्धशुष्क मैदानों को सिंचित खेतों में बदल दिया जाता है जिनका इस्तेमाल चरागाहों के रूप में होता आया था । औद्योगिक प्रदूषण तथा नगरीय बस्तियों से निकलने वाले कचरे अनेक प्रजातियों में विषाक्तता पैदा कर उन्हें नष्ट कर सकते हैं ।
प्राकृतिक संसाधनों में कमी के दो कारण हैं-हमारी तेजी से बढ़ती जनसंख्या जिसे जीने के लिए और संसाधन चाहिए, और समृद्ध समाजों की वृद्धि जो बड़ी मात्रा में संसाधनों और ऊर्जा का उपयोग और अपव्यय करते हैं । प्राकृतिक पारितंत्रों की कीमत पर संसाधनों का अधिकाधिक दोहन किया जा रहा है जिसके कारण उनके अनेक महत्वपूर्ण कार्य बाधित हो रहे हैं । हम सभी अपने दैनिक जीवन में अनेक प्रकार के संसाधनों का उपयोग करते हैं ।
यदि हम उनके स्रोतों को देखें तो पाएँगे कि ये संसाधन प्रकृति और प्राकृतिक पारितंत्रों से प्राप्त किए गए हैं । कुछ समाजों द्वारा संसाधनों के उपयोग के प्रति सावधानी न बरतने के कारण प्रकृति अब उनको सहारा नहीं दे सकती । अगर हम जल जैसे संसाधनों के उपयोग से पहले सोचें, कागज का पुनरोपयोग और पुनर्चालन करें और ऐसे प्लास्टिक का कम उपयोग करें जो क्षरणीय नहीं (non degradable) हैं तो इन उपायों से हमारे प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण संभव होगा ।
संसाधनों का उपयोग (Resource Utilization):
अधिकतर परंपरागत समाजों ने अपने संसाधनों का निर्वहनीय उपयोग किया है । संसाधनों के उपयोग में असमानता तो हर समाज में रही है, पर संसाधनों के एक बड़े भाग का उपयोग करने वाले व्यक्तियों की संख्या अत्यंत सीमित रही है । लेकिन हाल के वर्षों में समृद्ध समाजों में ‘धनिकों’ की संख्या तेजी से बढ़ी है जिसके कारण संसाधनों के उपयोग में असमानता एक गंभीर समस्या बन चुकी है ।
जंगलों से प्राप्त इमारती लकड़ी और जलावन लकड़ी जैसे अनेक संसाधनों को अतीत में निर्वहनीय ढंग से हासिल किया जाता था, पर पिछली सदी में यह ढर्रा पूरी तरह बदल चुका है । आर्थिक शक्ति से संपन्न वर्ग जंगलाती पैदावारों का अधिकाधिक उपयोग करने लगे हैं, जबकि जंगलों में रहने वाले लोग गरीब होते चले गए हैं । इसी तरह सिंचाई की बड़ी परियोजनाओं ने नहर वाले क्षेत्रों को समृद्ध बनाया है, जबकि पानी की निंरतर आपूर्ति के लिए स्वयं नदी पर निर्भर रहने वाले लोगों का जीवन मुश्किल हो गया है ।
सभी प्रकार के संसाधनों का ‘समतामूलक’ वितरण इस समस्या का समाधान है । समुदाय के लोगों के बीच संसाधनों का अधिक समतामूलक वितरण प्राकृतिक पारितंत्रों पर पड़ने वाले दबावों को कम कर सकता
है ।
पारितंत्र की संरचना एवं कार्य (Structure and Functions of an Ecosystem):
हर पारितंत्र का एक जैविक और एक अजैविक भाग होता है जो परस्पर संबंधित होते हैं । इस पारस्परिक संबंध को समझने के लिए अपने चारों ओर इसका गंभीर अवलोकन करना आवश्यक है ।
एक पारितंत्र के अजैविक घटक हैं जल की मात्रा, अकार्बनिक पदार्थ और कार्बनिक यौगिक, तथा जलवायु की दशाएँ जो भौगोलिक दशाओं और स्थानों पर निर्भर होती हैं । एक पारितंत्र के जीवित प्राणियों को उनके आवासों से अलग नहीं किया जा सकता ।
पौधों के जीवन के जैविक घटक में हवा, पानी और मिट्टी में रहने वाले अत्यंत सूक्ष्म जीवाणुओं (bacteria) और ताजे या खारे पानी के शैवालों (algae) से लेकर वनों के विशाल, दीर्घजीवी पेड़ तक आते हैं । पौधे अपनी वृद्धि के लिए सूरज की ऊर्जा को कार्बनिक पदार्थों में बदलते हैं और इस तरह पारितंत्र में उत्पादकों का काम करते हैं ।
प्राणिजगत के जैविक घटकों में सूक्ष्म कीटाणुओं से लेकर छोटे कीड़ों-मकोड़ों तक तथा मछलियाँ, जलथलचारी प्राणियों, रेंगनेवाले प्राणियों, पक्षियों और स्तनपाइयों तक आ जाते हैं । मनुष्य पृथ्वी पर पौधों और प्राणियों की 18 लाख प्रजातियों में केवल एक है ।
पारितंत्रीय अनुक्रमण (Ecological Succession):
पारितंत्रीय अनुक्रमण ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पारितंत्र में कालांतर में परिवर्तन होते हैं । अनुक्रम का संबंध पर्यावरण में मौसमी बदलावों से होता है जो उस पारितंत्र के पौधों और प्राणियों के समुदाय में बदलाव लाते हैं । दूसरी क्रमिक घटनाएँ काफी लंबा समय ले लेती हैं जो कई दशकों तक का होता है । अगर एक जंगल साफ किया जाए तो आरंभ में उसमें पौधों और पशुओं की कुछ विशेष प्रजातियाँ रहने लगेंगी जो सामुदायिक विकास की एक क्रमिक प्रक्रिया में धीरे-धीरे परिवर्तित होंगी, अर्थात् एक साफ किया गया या खुला क्षेत्र धीरे-धीरे परिवर्तित होगा ।
हम कह सकते हैं कि एक साफ किया गया या खुला क्षेत्र धीरे-धीरे एक चरागाह, झाड़-झंखाड़ और अंततः पेड़ों का समूह और जंगल बन जाएगा, बशर्ते उसमें मानव का हस्तक्षेप न हो । इस क्रमिक प्रक्रिया में अंत में एक स्थिर अवस्था पैदा करने की प्रवृति होती है । इस तरह पारितंत्र में विकास के चरणों में एक प्रारंभिक चरण (pioneer stage) होता है, परिवर्तनों की एक शृंखला होती है जिसे शृंखला का चरण (serial stage) कहते हैं, और अंत में एक समापन का चरण (climax stage) होता है ।
इन क्रमिक चरणों का संबंध जैव प्रणाली में ऊर्जा के प्रवाह के ढंग से होता है । क्रमिक परिर्वतनों का सबसे अच्छा उदाहरण किसी तालाब के पारितंत्र में देखा जा सकता है जो एक शुष्क स्थलीय आवास से मानसून के बाद छोटे-छोटे जलचर प्राणियों के निवासस्थल में बदल जाता है; फिर वह धीरे-धीरे एक परिपक्व जलीय पारितंत्र बनता है और अंत में गर्मियों में फिर से शुष्क चरण में पहुँच जाता है जब उसका जलचर जीवन निष्क्रिय पड़ा रहता है ।
खाद्य-शृंखला, खाद्य-जाल और पारितंत्रीय पिरामिड (Food Chains, Food Webs and Ecological Pyramids):
पौधारूपी ऊर्जा-स्रोत से प्राणियों में ऊर्जा का स्थानांतरण खाद्य-शृंखला बनाता है । यह स्थानांतरण प्राणियों द्वारा पौधों को खाए जाने तथा स्वयं उन प्राणियों का किसी दूसरे प्राणियों का आहार बनने से संभव होता है । हर बार स्थानांतरण में ऊर्जा का एक बड़ा भाग ऊष्मा के रूप में गायब हो जाता है ।
ये खाद्य-शृंखलाएँ (food chains) कोई अलग-अलग नहीं होतीं बल्कि एक दूसरे से जुड़ी होती हैं । संबद्धता के इस ढर्रे को खाद्य-जाल (food web) कहते हैं । खाद्य-जाल के हर स्तर को खाद्य-स्तर (trophic level) कहा जाता है । ये खाद्य-स्तर आपस में मिलकर पारितंत्रीय पिरामिड (ecological pyramid) का निर्माण करते हैं ।
a. खाद्य-शृंखला (The Food Chains):
प्रकृति का यह नियम है कि एक जीवित काया से दूसरी जीवित काया को ऊर्जा का स्थानांतरण होना चाहिए । शाकभक्षी प्राणी जब पौधों को खाते हैं तो उनकी ऊर्जा इन प्राणियों को मिल जाती है ।
किसी एक पारितंत्र में कुछ प्राणी दूसरे जीवों को खाकर जीवित रहते हैं जबकि कुछ अन्य जीव मृत जीवों पर जीवित रहते हैं । ये बाद वाले जीव ‘मृतभक्षी’ खाद्य-शृंखला (detritus food chain) बनाते हैं । शृंखला की हर कड़ी में खाद्य पदार्थ से प्राप्त ऊर्जा का एक बड़ा भाग प्रतिदिन के कार्यकलापों में लग जाता है । हर शृंखला में आम तौर पर ऐसी चार या पाँच कड़ियाँ होती हैं । तो भी किसी एक प्रजाति का संबंध प्रजातियों की एक बड़ी संख्या से हो सकता है ।
b. खाद्य-जाल (The Food Webs):
एक पारितंत्र में बड़ी संख्या में परस्पर संबंधित शृंखलाएँ होती हैं जो मिलकर खाद्य-जाल बनाती हैं । जीवन-जाल बनाने वाली शृंखलाओं की इन कड़ियों में अगर मानव के कार्यकलापों से विघ्न पैदा हो तो कुछ प्रजातियों का लोप या विनाश हो जाता है और जाल टूट जाता है ।
c. पारितंत्रीय पिरामिड (The Ecological Pyramids):
एक पारितंत्र में हरे पौधे (उत्पादक) सूर्य से सीधे ऊर्जा ग्रहण करके उसे खाद्य में बदलते हैं । ऐसे पौधे खाद्य पिरामिड के एकदम बुनियादी या पहला खाद्य स्तर (first trophic level) होते हैं । ऐसे पौधों को खानेवाले शाकभक्षी दूसरा खाद्य स्तर (second trophic level) होते हैं और प्राथमिक उपभोक्ता (primary consumers) कहे जाते हैं ।
खाद्य पिरामिड के शीर्ष पर थोड़े-से ही मांसभक्षी प्राणी होते हैं जो तीसरा खाद्य स्तर (third trophic level) होते हैं । जीवित प्राणी ऊर्जा का उपयोग इसी क्रम में करते हैं और पारितंत्र के आधार से लेकर शीर्ष तक ऊर्जा का प्रवाह इसी प्रकार होता है ।
पारितंत्रीय वस्तुएँ और सेवाएँ (Ecosystem Goods and Services):
I. प्रत्यक्ष मूल्य (Direct Values) :
ये वे संसाधन हैं जिन पर लोग सीधे निर्भर होते हैं । इनका आर्थिक परिमाणीकरण (quantification) आसान होता है ।
i. उपभोक्ता उपयोग मूल्य (consumptive use value): लोग अपने परिवेश से जिन फलों, चारे, जलावन लकड़ी आदि को जमा करते हैं उनका गैर-बाजारी मूल्य ।
ii. उत्पादक उपभोग मूल्य (productive use value): लोग बिक्री के लिए जिन इमारती लकड़ियों, मछलियों, जड़ी-बूटियों आदि को जमा करते हैं उनका व्यापारिक मूल्य ।
II. अप्रत्यक्ष मूल्य (Indirect Values):
ये ऐसे उपयोग हैं जिनका स्पष्ट ढंग से निर्धारित दामों के रूप में परिमाणीकरण आसान नहीं है ।
i. गैर-उपभोक्ता उपयोग मूल्य (non-consumptive use value): वैज्ञानिक अनुसंधान, पक्षियों का अध्ययन, पर्यावरणीय पर्यटन आदि ।
ii. विकल्प मूल्य (option value): भविष्य के लिए विकल्पों को बचाकर रखना ताकि उनका संरक्षण करके भविष्य में उनसे आर्थिक लाभ उठाए जा सकें ।
iii. अस्तित्व मूल्य (existence value): वन्यजीवन और प्रकृति के अस्तित्व के नैतिक और भावात्मक पक्ष ।
स्थलीय पारितंत्र (terrestrial ecosystems) अपने प्राकृतिक स्वरूप में विभिन्न प्रकार के वनों, चरागाहों, अर्धशुष्क क्षेत्रों, रेगिस्तानों में और समुद्रतटों पर मिलता है । इनमें से जिन पारितंत्रों की भूमि का गहन उपयोग हुआ, वो धीरे-धीरे हजारों साल की अवधि में खेतिहर और पशुपालक क्षेत्रों में परिवर्तित हो गए । हाल के वर्षों में ऐसे क्षेत्रों को सघन सिंचाई वाले खेतिहर पारितंत्र या नगर और उद्योग केंद्रों में परिवर्तित कर दिया गया है ।
इसके कारण खाद्य उत्पादन बढ़ा है तथा जिन ‘उपभोक्ता’ वस्तुओं का हम प्रयोग करते हैं उनके लिए कच्चा माल भी मिलता है । फिर भी, भूमि और प्राकृतिक पारितंत्रों के अति-उपयोग और दुरुपयोग से हमारे पर्यावरण का गंभीर ह्रास हुआ है । मिट्टी, जल, जंगलों की जलावन लकड़ी, इमारती लकड़ी, चरागाहों की घासों और जड़ी-बूटियों का अनिर्वहनीय उपयोग और बार-बार घासों के जलाए जाने से इन प्राकृतिक पारितंत्रों का ह्रास होता है ।
इसी तरह संसाधनों का गलत उपयोग प्राकृतिक पारितंत्रों से मिलने वाले लाभों को समाप्त कर सकता है । प्रकृति की इन प्रक्रियाओं-प्रकाश-संश्लेषण, जलवायु नियंत्रण, मृदा अपरदन (मिट्टी का कटाव) नियंत्रण-में अनेक मानवीय कार्यकलापों ने विघ्न डाला है ।
जब मानव की संख्या कम थी तब अधिकांश पारितंत्र हमारी सारी आवश्यकताएँ पूरी कर देते थे । इस तरह संसाधनों का निर्वहनीय उपयोग होता था । जब औद्योगिक ‘विकास’ के कारण संसाधनों के उपयोग में बहुत वृद्धि हुई तो दीर्घकालिक पारितंत्रीय लाभों की बजाय अल्पकालिक आर्थिक लाभ प्रगति के सूचक बन गए ।
इससे संसाधनों का अनिर्वहनीय उपयोग होने लगा । इस तरह जंगल समाप्त होने लगे हैं, नदियाँ सूखने लगी हैं, रेगिस्तान फैलने लगे हैं और विकास के उप-उत्पादों (by-products) के रूप में वायु, जल और मिट्टी प्रदूषित हो रही है । स्वयं मानव का अस्तित्व गंभीर खतरे में है ।