Read this essay in Hindi to learn about disaster management in India.
भारतीय उपमहाद्वीप में सूखा, बाढ़, चक्रवात, भूकंप, भूस्खलन, बर्फानी तूफान और वनों में आग लगने की संभावना बहुत अधिक रहती है । देश के 35 राज्यों और संघीय क्षेत्रों में से 22 आपदा संभावित क्षेत्र हैं । देश में सबसे अधिक आनेवाली प्राकृतिक आपदा बाढ़ है जिसका कारण भारतीय मानसून की अनियमितता है ।
भारत की वार्षिक वर्षा की लगभग 75 प्रतिशत वर्षा मानसून के तीन-चार महीनों में ही होती है । फलस्वरूप इस अवधि में नदियों में बहुत भारी बहाव होता है जिससे भयंकर बाढ़ें आती हैं । देश में लगभग 4 करोड़ हेक्टेयर भूमि बाढ़-संभावित क्षेत्र के रूप में बताई जाती है । बड़ी बाढ़ें मुख्यतः गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना वादी में आती हैं जहाँ देश की नदियों का 60 प्रतिशत बहाव होता है ।
भारत का समुद्रतट 5700 किलोमीटर लंबा है जहाँ बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठनेवाले उष्णकटिबंधीय चक्रवात आते रहते हैं । हिंद महासागर दुनिया के 6 प्रमुख चक्रवात-संभावित क्षेत्रों में एक है । भारत में चक्रवात अकसर अप्रैल-मई में तथा कभी-कभी अक्टूबर-दिसंबर में आते हैं । पूर्वी तट पर चक्रवातों की संभावना अधिक है; इस क्षेत्र के लगभग 80 प्रतिशत चक्रवातों की मार यहीं पड़ती है ।
ADVERTISEMENTS:
भारत के कुछ राज्यों में सूखा एक शाश्वत विशेषता है; देश का 16 प्रतिशत क्षेत्र सूखा-संभावित है । सूखा पर्यावरण की एक महत्त्वपूर्ण समस्या है क्योंकि यह लंबे समय तक औसत से कम वर्षा का परिणाम होता है । सरकार द्वारा पहचान किए गए अधिकांश सूखा-संभावित क्षेत्र देश के शुष्क और अर्धशुष्क इलाकों में स्थित हैं ।
भूकंप को सबसे विनाशकारी प्राकृतिक आपदाओं में गिना जाता है । इसकी मार इस कदर बिना चेतावनी के पड़ती है कि इमारतों को गिरने से बचाना और नुकसान रोकना लगभग असंभव होता है । भारत के लगभग 50 से 60 प्रतिशत भाग में विभिन्न तीव्रता वाले भूकंप आ सकते हैं । अधिकांश संभावित क्षेत्र हिमालय के इलाके और उसकी तराई में स्थित हैं ।
‘सुनामी’ (Tsunami) शब्द जापानी भाषा से आया है; इसका अर्थ बंदरगाह (सु) और लहर (नामी) है । सुनामी ऐसी किसी भी हलचल से आ सकती है जो तेजी से जल की भारी मात्रा को विस्थापित करे, जैसे समुद्र की तली में भूकंप, ज्वालामुखी का विस्फोट या सागर के अंदर भूस्खलन । इसकी लहरें समुद्र में 500 से 1000 किमी प्रति घंटा की चाल से दौड़ती हैं और जब भूमि के पास पहुँचती हैं तो ‘संपीड़ित’ होकर कभी-कभी 30 मीटर ऊँची उठ जाती हैं ।
इस जलराशि का भार ही रास्ते की वस्तुओं को कुचलने, अकसर इमारतों को नींव तक गिराने और खुली जमीन को आधारशिला तक नग्न करने के लिए पर्याप्त होता है । 26 दिसंबर 2004 की सुनामी ने 3,10,000 लोगों की जानें लीं और इस तरह यह लिखित इतिहास की सबसे जानलेवा सुनामी बन गई ।
आपदा के प्रबंध से शमन तक (From Management to Mitigation of Disaster):
ADVERTISEMENTS:
अभी बहुत हाल तक प्राकृतिक आपदा के प्रबंध आपदाओं के गुजर जाने के पश्चात होते रहे हैं । इनमें इलाकों को खाली कराने, चेतावनी, संचार, तलाश और बचाव, अग्निशमन, चिकित्सा और मनोचिकित्सा सहायता, राहत कार्य, शरण आदि प्रमुख रहे हैं । किसी प्राकृतिक आपदा के बाद आरंभिक सदमा जब गुजर जाता है तथा जनता, गैर-सरकारी संगठनों और सरकारों के द्वारा पुनर्निर्माण और पुनर्वास का काम पूरा हो जाता है तब उस विपत्ति की यादें इतिहास का अंग बन जाती हैं ।
आज यह बात स्पष्ट है कि मानव के कार्यकलाप ही प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारता और तीव्रता में वृद्धि के लिए जिम्मेदार हैं । बाढ़, भूकंप, चक्रवात आदि प्राकृतिक घटनाएँ तो होती ही रहेंगी । वे हमारे पर्यावरण के अंग हैं । लेकिन चेतावनी की एक सुचारु कार्यव्यवस्था हो और प्रभावित होनेवाला समुदाय भी इसके लिए तैयार हो तो प्राकृतिक आपदाओं की विनाशलीला को कम किया जा सकता है ।
इसलिए भी परंपरागत आपदा प्रबंध मुख्यत प्रतिक्रियात्मक व्यवस्थाओं (reactive mechanisms) पर आधारित था, पर पिछले कुछ वर्षों में एक अधिक कर्ममुखी (proactive), शमन-आधारित दृष्टिकोण की दिशा में धीरे-धीरे परिवर्तन आया है । आपदा प्रबंध एक बहुशास्त्रीय (multidisciplinary) क्षेत्र है जिसमें मुद्दों का एक व्यापक दायरा शामिल है, जैसे भविष्य का अनुमान, चेतावनी, इलाका खाली कराने के प्रयास, तलाश और बचाव, राहत, पुनर्निर्माण और पुनर्वास ।
यह बहुक्षेत्रीय भी हैं क्योंकि इससे प्रशासकों, वैज्ञनिकों, योजनाकारों, स्वयंसेवकों और समुदायों का संबंध होता है । ये भूमिकाएँ और गतिविधियाँ आपदा-पूर्व, आपदाकालीन और आपदा-पश्चात योजनाओं को समेटती हैं । चूँकि ये गतिविधियाँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं, इसलिए इनके बीच तालमेल होना जरूरी है ।
ADVERTISEMENTS:
लोगों तक वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास का लाभ पहुँचाने के लिए वैज्ञानिक समुदायों और विभिन्न क्षेत्रों में स्थित एजेंसियों के बीच संपर्क सूत्र स्थापित होना चाहिए । सरकारी ऐजेसियों और गैर-सरकारी संगठनों के बीच सामंजस्य की भी आवश्यकता है ताकि गतिविधियों में दोहराव न हो तथा सरकार और लोगों के बीच दूरी कम हो ।
आज हमारे पास अनेक प्रकार की आपदाओं के लिए अग्रिम चेतावनी की विभिन्न प्रणलियाँ मौजूद हैं । हालाँकि वे पहले से अधिक सटीक और भविष्यानुमान में सहायक हैं, पर यही सुनिश्चित करना काफी नहीं है कि समुदाय आपदाओं से सुरक्षित रहें । आपदाओं के शमन (mitigation) की भूमिका यहीं आकर महत्त्वपूर्ण हो जाती है । ‘शमन’ का अर्थ प्राकृतिक आपदाओं के नकारात्मक प्रभाव को कम करना है ।
इसका अर्थ प्राकृतिक आपदाओं से मानव के जान-माल की दीर्घकालिक सुरक्षा करना है । जहाँ आपात प्रबंध (emergency management) घटना विशेष के होने पर प्रत्युत्तर (response) और बहाली (recovery) संबंधी अल्पकालिक व्यवस्था है, वहीं शमन के कार्यकलाप (mitigation activities) दीर्घकालिक व्यवस्था के अंग हैं ।
कुछ मार्गदशक सिद्धांतों को अगर सही ढंग से लागू किया जाए तो शमन का एक कारगर कार्यक्रम सामने आ सकता है:
i. आपदा-पूर्व शमन आपदा के दुष्प्रभावों से तेजी से उबरने में मददगार साबित होता है ।
ii. शमन के उपायों से समुदाय के प्राकृतिक और सांस्कृतिक परिसंपत्तियों की रक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए ।
iii. आपदा कम करने के उपायों में समुदाय को प्रभावित करने वाली विभिन्न विपत्तियों, समुदाय की इच्छाओं और प्राथमिकताओं का ध्यान रखा जाना चाहिए ।
iv. शमन के किसी भी उपाय में सरकार, वैज्ञानिकों, निजी-क्षेत्र, गैर-सरकारी संगठनों और स्थानीय समुदाय के बीच कारगर भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए ।
शमन की किसी रणनीति के प्रमुख तत्त्व निम्न प्रकार से हैं:
जोखिम का आकलन और संभावना का विश्लेषण (Risk assessment and vulnerability analysis):
इसमें प्रमुख संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करना, अतीत में घटित प्राकृतिक अपादाओं के बारे में सूचनाओं का संग्रह, प्राकृतिक पारितंत्रों तथा जनसंख्या और बुनियादी ढाँचा संबंधी सूचनाओं का संग्रह शामिल है । जब ये सूचनाएँ जमा हो जाएँ तो जोखिम का आकलन आपदा की बारंबारता, तीव्रता, प्रभाव और उसके बाद सामान्य स्थिति में वापस आने के लिए आवश्यक समय का निर्धारण करने के लिए किया जाना चाहिए ।
जोखिम और संभाव्यता के आकलन को समय-समय पर संशोधित करना आवश्यक है । इस कारण इसके लिए एक नियमित व्यवस्था की आवश्यकता है । भौगोलिक सूचना व्यवस्था (Geographical Information Systems-GIS) नामक एक कंप्यूटर प्रोग्राम इस प्रक्रिया के लिए मूल्यवान हो सकता है क्योंकि प्राथमिक सूचनाओं को आसानी से अधुनातन बनाया जा सकता है और उसी आधार पर मूल्यांकन किया जा सकता है ।
व्यावहारिक अनुसंधान और प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण (Applied research and technology transfer):
प्रेक्षण के उपकरणों और तंत्रों का उपयोग करने और उन्हें अधुनातन बनाने की, आपदाओं पर सही निगरानी रखने की, पूर्वानुमान और चेतावनी की गुणवत्ता में सुधार लाने की, चेतावनी की प्रणालियों के द्वारा तेजी से सूचनाओं के प्रसार की और आपदा अनुकरण (disaster simulation) की आवश्यकता है ।
इस तरह दूर-संवेदन, उपग्रह संचार और वैश्विक स्थितिक प्रणालियों (global positioning system) जैसी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियों की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण होगी । भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) जैसे सरकारी संगठन एक केंद्रीय भूमिका निभा सकते हैं ।
इसी तरह राष्ट्रीय भवन अनुसंधान संगठन, मौसम विभाग, सिंचाई विभाग आदि अन्य सरकारी संगठन शिक्षा संस्थाओं और विश्वविद्यालयों के सहयोग से शमन की स्थान-विशिष्ट रणनीतियाँ तैयार करने के लिए व्यावहारिक अनुसंधान कार्य कर सकते हैं ।
ये कदम शमन के स्थान-विशिष्ट उपायों के निर्धारण में मदद देते हैं । शमन के समुदाय – आधारित उपायों के साथ वैज्ञानिक ज्ञान और विशेषज्ञता का संयोग न केवल आँकड़ा-भंडार (database) को बढ़ाएगा बल्कि शमन की सफल रणनीति का आधार भी बनेगा ।
लोकचेतना और प्रशिक्षण (Public awareness and training):
शमन की किसी भी रणनीति के सबसे महत्त्वपूर्ण घटकों में एक घटक राज्य और जिला स्तर पर कार्यरत विभिन्न अधिकारियों को दिया जानेवाला प्रशिक्षण है । इससे सूचनाओं और विधियों का आदान-प्रदान होता है । शमन की एक रणनीति की सफलता बड़ी हद तक अनुभागों और विभागों के बीच समन्वय और कारगर सामूहिक कार्य पर निर्भर होती है । इसलिए एक सुविचारित प्रशिक्षण कार्यक्रम, जिसमें विभिन्न आवश्यक कार्यों संबंधी ज्ञान, कौशल और रूझान में मौजूद कमियों पर ध्यान दिया जाए, एक अनिवार्य घटक है ।
संस्थागत व्यवस्थाएँ (Institutional mechanisms):
आपदा-शमन की रणनीतियाँ अपनाने की क्षमता पैदा करना और उसे बढ़ाना राष्ट्रीय स्तर पर सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है । आपदा-पश्चात रणनीतियों के स्थान पर कर्ममुखी आपदा-पूर्व उपायों पर जोर देने की आवश्यकता है । इसके लिए ऐसे स्थायी प्रशासनिक ढाँचे की आवश्यकता है जो विभिन्न विभागों के विकास-कार्यों की निगरानी करे और शमन के आवश्यक उपायों संबंधी सुझाव दे ।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंध केंद्र (The National Disaster Management Centre-NDMC) ऐसा काम कर सकता है । वास्तुकारों, संरचना अभियंताओं, डाक्टरों और घातक रसायनों के प्रबंध से जुड़े रसायन अभियंताओं जैसे पेशेवर लोगों से ऐसे समूह बनाने को कहा जा सकता है जो शमन के विशिष्ट उपायों की रूपरेखा तैयार करें ।
शमन के लिए प्रोत्साहन और संसाधन (Incentives and resources for mitigation):
शमन के कार्यक्रमों की सफलता बहुत हद तक धन व्यवस्था पर निर्भर है । इस कारण शमन के सभी कार्यक्रमों के लिए धन के स्थायी स्रोतों की व्यवस्था करने की आवश्यकता है । इसमें व्यावसायिक और आवासीय कार्यकलापों को आपदा-संभावित क्षेत्रों से बाहर जाने के लिए प्रोत्साहन देना भी शामिल है ।
आवासीय ऋण देने वाली वित्तीय कंपनियों को आपदा-संभावित क्षेत्रों में भवन-निर्माण के कुछ विशेष नियमों का पालन करना अनिवार्य बना देना चाहिए । आपदा से संबंधित बीमा शुरू करने की संभावना तलाशी जानी चाहिए और इसमें सिर्फ जीवन नहीं बल्कि घरेलू वस्तुओं, मवेशियों, इमारतों और फसलों का बीमा भी शामिल होना चाहिए ।
भू-उपयोग का नियोजन और नियम (Land-use planning and regulations):
आपदा में कमी के दीर्घकालिक प्रयासों का उद्देश्य आपदा-संभावित क्षेत्रों में भूमि के समुचित उपयोग को बढ़ावा देना होना चाहिए । आवासीय क्षेत्रों से औद्योगिक क्षेत्रों का अलगाव, बाढ़ों के सिलसिले में तटस्थ क्षेत्रों में दलदली भूमियों का संरक्षण, समुचित भू-उपयोग के बारे में लोकचेतना का सृजन तथा दीर्घकालिक निर्वहनीय विकास के लिए भू-उपयोग संबंधी नीतियों का निर्धारण, ये सभी अनिवार्य हैं ।
आपदा रोधक रूपरेखा और निर्माण (Hazard-resistant design and construction):
जो क्षेत्र आपदा-संभावित हैं उनमें और निर्माण की प्रौद्योगिकी का सावधानी से चुनाव करके सुरक्षा में वृद्धि की जा सकती है । इसलिए अभियंताओं, वास्तुकारों और तकनीशियनों के बीच आपदा रोधक निर्माण सामग्री, तकनीकों और तौर-तरीकों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है ।
मौजूदा इमारतों के ढाँचों और निर्माण में परिवर्तन (Structural and constructional reinforcement of existing buildings):
मौजूदा इमारतों में थोड़ा-सा फेरबदल करके उनके गिरने की संभावना को कम किया जा सकता है और उनको ज्यादा सुरक्षित बनाया जा सकता है ।
इमारतों को सुरक्षित बनाने के निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
i. इमारत के बाहर दीवार उठाकर तथा दीवारों पर टेक लगाकर,
ii. इमारत के अंदर दीवारों का प्रयोग,
iii. दालानों में दीवारें बनाकर,
iv. विशेष प्रकार के फ्रेम लगाकर,
v. खंभे और शहत्तीरों को सीमेंट से ढँककर,
vi. विद्युत संयंत्रों को बाढ़ स्तर से ऊपर रखकर,
vii. चक्रवाती हवाओं, भूकंपों, बाढ़ों आदि को झेल सकने योग्य विशेष रूप से निर्मित पानी की टंकी बिठाकर ।
बाढ़ और शमन के उपाय (Floods and Mitigation Measures):
भारत के निचले मैदानी इलाके, खासकर गंगा के सिलसिले में बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल तथा ब्रह्मपुत्र के सिलसिले में असम हर साल बाढ़ के प्रतिकूल प्रभावों से ग्रस्त होते हैं । मानसून के तीन महीनों में गंगा-ब्रह्मपुत्र की वादी में सबसे अधिक जलप्रवाह होता है ।
जलविज्ञानी अध्ययनों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि केवल 18 प्रतिशत वर्षा बाँधों, जलाशयों आदि में जमा होती है जबकि 82 प्रतिशत पानी नदियों के रास्ते आखिरकार समुद्र में चला जाता है । इसलिए हमारे देश में बाढ़ें आती रहेंगी ।
बाढ़ें अलग-अलग प्राकृतिक, पर्यावरणीय या मानवजन्य कारणों से या उनके सम्मिलित प्रभाव से आती हैं । वनों का विनाश या झूम खेती जैसा मानवीय कार्य भी बाढ़ों को लाने में सहायक होते हैं । पहाड़ी ढालों के वन सामान्यतः स्पंज की तरह काम करते हैं । ये वर्षाजल की प्रचुर मात्रा को सोखकर जमा रखते हैं और लंबे समय तक थोड़ा-थोड़ा जल छोड़ते रहते हैं ।
लेकिन वनों के काटे जाने से नदियाँ मानसून के महीनों में गंदली हो जाती हैं और उफनाने लगती हैं जबकि साल के सूखे महीनों में पानी कम हो जाता है । इसलिए वर्षा का अधिकाधिक भाग वर्षा के थोड़े ही समय बाद बाढ़ों के रूप में मुक्त हो जाता है ।
बाढ़ों के शमन के उपायों में संरचनात्मक (structural) और असंरचनात्मक (non-structural), दोनों प्रकार के उपाय शामिल हैं ।
संरचनात्मक उपाय इस प्रकार हैं:
i. वर्षा का पानी रोकने के लिए जलाशय जो बाढ़ के गुजरने के बाद नियंत्रित ढंग से पानी छोड़ते रहें ।
ii. बाँध और बाढ़रोधक दीवारें बनाकर पानी को किनारे तोड़कर बहने से रोकना ।
iii. धारा में प्रवाह की दशाओं में सुधार और कटाव रोकने के उपाय ।
iv. जलनिकास में सुधार ।
असंरचनात्मक उपायों में शामिल हैं:
i. आपदा के लिए तैयारी तथा बाढ़ प्रबंध, जैसे फ्लड् प्लेन जोनिंग (Flood Plain Zoning) और फ्लड् प्रूफिंग (Flood Proofing) ।
ii. दलदली भूमियों का संरक्षण ।
iii. बाढ़ के पूर्वानुमान और चेतावनी संबंधी सेवाएँ ।
iv. आपदा-राहत, बाढ़ का शमन और जन-स्वास्थ्य संबंधी कदम ।
v. बाढ़ बीमा ।
भूकंप और शमन के उपाय (Earthquakes and Mitigation Measures):
गुजरात में आए 26 जनवरी 2001 के भूकंप के बाद अनेक वर्ष गुजर चुके हैं । इन वर्षों में व्यापक पैमाने पर पुनर्वास-कार्य हुआ है । गुजरात के अनुभव ने सिखाया है कि भूकंपरोधी शरणस्थलों के निर्माण में भूकंप पीड़ितों की विशेष आवश्यकताओं का ध्यान भी रखा जाना चाहिए ताकि वे शरणस्थल और अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकें । इसमें गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका बहुत अहम् है । उनका श्रमबल, अनौपचारिक कामकाज का तरीका और मूल्यवान मानव-संसाधन उनकी शक्ति हैं ।
ऐसी स्थितियों में उनकी समुदाय से संपर्क करने की योग्यता और स्थानीय परंपराओं के प्रति संवेदनशीलता मूल्यवान साबित होती है । डाउन टू अर्थ (वर्ष 12, अंक 2) में गुजरात की विभिन्न पहलों पर मिहिर भट्ट की रिपोर्ट भूकंप के बाद के विभिन्न विकासक्रमों पर रोशनी डालती है ।
इसके अनुसार अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष द्वारा समर्थन प्राप्त सेल्फ-इम्पलायड वुमन्स एसोसिएशन (SEWA (सेवा)) तथा सरकार द्वारा भूकंप और सूखे से पीड़ित व्यक्तियों को जीविका की समुदाय-आधारित सुरक्षा प्रदान करने की पहल में यह क्षमता है कि वह गुजरात में भावी आपदाओं का प्रत्युत्तर और विकास की परियोजनाओं की एक रूपरेखा प्रदान कर सकती है ।
इसी तरह विपत्ति के बाद स्त्रियों के कारोबार को दोबारा खड़ा करने के लिए गुजरात महिल आर्थिक विकास निगम की पहल भी स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं और दस्तकारी के बाजारों को पुनर्जीवन देने के बारे में अनेक व्यवहारिक पाठ पढ़ाती है । एशियाई विकास बैंक से सहयोग-प्राप्त यह परियोजना प्राकृतिक आपदा के बाद आय के सृजन और परिसंपत्तियों के निर्माण में निवेश को महत्त्व देती है ।
गुजरात के कृषि मंत्रालय ने प्रभावित किसानों को खेती के जो साज-सामान दिए, वे भी दो फसलों के बाद उत्साहजनक परिणाम देने लगे हैं । फिर भी लेखक यह बात कहना चाहता है कि बचाव और पुनर्वास दोनों के लिए सरकार, स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों और स्थानीय समुदाय के बीच समन्वय और भी अधिक बढ़ाने की आवश्यकता है क्योंकि इसके बिना देर हो सकती है या राहत की सामग्रियों और प्रयासों में दोहराव और अपव्यय हो सकता है ।
चक्रवात और शमन के उपाय (Cyclones and Mitigation Measures):
उष्णकटिबंध में चक्रवात प्राकृतिक विपत्ति हैं । ये वायुमंडल में हवा के विशाल घूमते हुए घेरे होते हैं जिनका क्षैतिज प्रसार 15 से 1000 किमी तक और ऊर्ध्व प्रसार सतह से 12-14 किमी तक होता है । ये अत्यंत कम दबाव के क्षेत्र होते हैं ।
उत्तरी गोलार्ध में हवाएँ निचले भाग में केंद्र के इर्द-गिर्द घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा में घूमती हैं । ऊपरी भागों में घूमने की दिशा नीचे की ठीक उल्टी होती है । ये सागर के ऊपर आम तौर पर प्रतिदिन 300 से 5000 किमी तक आगे बढ़ते हैं ।
सागर के ऊपर चलते हुए ये सागर के गर्म पानी से ऊर्जा लेते हैं और कुछ तो विनाशकारी तीव्रता प्राप्त कर लेते हैं । बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में हर साल औसतन 5 या 6 चक्रवात पैदा होते हैं जिनमें से दो-तीन भयानक हो सकते हैं । चक्रवातों से मुख्य खतरा बहुत जोरदार हवाओं के चलने, मूसलाधार वर्षा होने और ऊँची तूफानी लहरों के उठने से होता है ।
अधिकांश मौतें किनारों पर तूफानी लहरों के कारण होती हैं । फिर अकसर भारी वर्षा और बाढ़ आती हैं । तूफान के आगे बढ़ने से सबसे अधिक विनाश होता है । चक्रवातों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता । फिर भी शमन की प्रभावी और दक्ष नीतियों व रणनीतियों से इसके अनेक प्रभावों को कम किया जा सकता है ।
यहाँ इसका संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है:
अग्रिम चेतावनी प्रणालियों की स्थापना:
तटों पर लगी देसी प्रणालियाँ पूर्वानुमान में भारी सहायता दे सकती हैं । इस तरह तूफान के रास्ते में पड़ने वाले इलाकों से लोगों को पहले ही हटाया जा सकता है ।
संचार के ढाँचों का विकास:
चक्रवात के शमन में संचार की अहम् भूमिका होती है, लेकिन चक्रवातों के दौरान यही सबसे पहले भंग होने वाली व्यवस्था भी है । आज अव्यवसायी रेडियो (Amateur Radio) अपरंपरागत संचार प्रणाली की दूसरी पंक्ति बनकर उभरा है और आपदा के शमन के लिए महत्वपूर्ण साधन है ।
शरणपट्टियों का विकास:
पेड़ों की कतारों पर आधारित शरणपट्टियाँ हवाओं और लहरों के जोर से बचाव की कारगर उपाय हैं । कारगर पवनरोधकों का काम करने और फसलों को हानि से बचाने के अलावा ये मिट्टी का कटाव भी रोकती हैं ।
सामुदायिक शरणस्थलियों का निर्माण:
महत्त्वपूर्ण स्थानों पर चक्रवात से बचाव के आवास मानव-जीवन की हानि को कम करते हैं । सामान्य कम में ये शरणस्थल सार्वजनिक उपयोग में लाए जा सकते हैं ।
स्थायी आवासों का निर्माण:
कंक्रीट के समुचित रूपरेखा वाले ऐसे भवनों का निर्माण आवश्यक है जो तेज हवाओं और समुद्री लहरों को झेल सकें ।
प्रशिक्षण और शिक्षा:
चक्रवात की चेतावनी पर प्रत्युत्तर और तैयारी के ढंग बतलानेवाले लोकचेतना कार्यक्रम जान-माल की हानि को कम करने में बहुत सहायक हो सकते हैं ।
भू-उपयोग नियत्रंण और योजना:
आदर्श यह है कि समुद्र से 5 किमी तक की पट्टी में किसी आवासीय या औद्योगिक पट्टी की इजाजत न दी जाए क्योंकि सबसे असुरक्षित पट्टी यही होती है । इस क्षेत्र में किसी नई आबादी की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए । प्रमुख बसाव और दूसरे महत्वपूर्ण प्रतिष्ठान समुद्र से 10 किमी दूर होने चाहिए ।
भूस्खलन और शमन के उपाय (Landslides and Mitigation Measures):
भूस्खलन हिमालय क्षेत्र में बार-बार होने वाली घटना है । लेकिन हाल में भारी निर्माण-कार्यों और प्राकृतिक अस्थिरता ने इस समस्या को तीखा बना दिया है । भूस्खलन ढलानों पर संरचना, ढाँचे, जल प्रवाह या वनस्पति के आवरण में होने वाले क्रमिक या अकस्मात परिवर्तनों के कारण होते हैं । ये परिवर्तन भूगर्भीय कारणों से, जलवायु, घिसाव, बदलते भू-उपयोग या भूकंप के कारण आते हैं ।
जनता और सार्वजनिक सुविधाओं को भूस्खलन के संपर्क में आने से बचाकर तथा भूस्खलन पर भौतिक नियंत्रण करके उनसे पैदा विपत्तियों में महत्त्वपूर्ण कमी की जा सकती है । जिन विकास कार्यक्रमों से स्थलाकृति में, संसाधनों के उपयोग में और धरती पर पड़ने वाले बोझ में परिवर्तन आ सकते हों उनकी इजाजत नहीं दी जानी चहिए ।
भूस्खलन रोकने के लिए जो कदम उठाए जा सकते हैं, वे जल के निकास और मिट्टी के कटाव की रोकथाम से संबंधित हैं, जैसे बाँसों के बंध और टैरेस का निर्माण, जूट और नारियल के रेशों की जालियों का निर्माण । इनमें चट्टानों को गिरने से बचाने संबंधी उपाय भी शामिल हैं, जैसे घास उगाना, सूखी वनस्पतियाँ उगी हुई ईंट या पत्थर की दीवारें बनाना और सबसे बढ़कर वनों का विनाश रोकना और वनरोपण बढ़ाना ।
आपदाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता लेकिन अग्रिम चेतावनी प्रणालियों, सुविचारित योजनाओं और असुरक्षित समुदाय द्वारा बचाव की पूर्वतैयारी से इन आपदाओं के कारण होने वाले जान-माल की हानि को कम अवश्य किया जा सकता है ।