Read this essay in Hindi to learn about desert ecosystems of India.
मरुस्थली और अर्धशुष्क (semi-arid) क्षेत्र अत्यंत विशेष प्रकार के और संवेदनशील पारितंत्र हैं जो मानवीय कार्यकलापों से प्रभावित होकर आसानी से नष्ट हो जाते हैं । इन खुशक क्षेत्रों की प्रजातियाँ इस विशेष आवास में ही रह सकती हैं ।
मरुस्थली या अर्धशुष्क पारितंत्र क्या है?
मरुस्थल और अर्धशुष्क क्षेत्र मुख्यतः पश्चिम भारत और दकन के पठार में स्थित हैं । इन विशाल क्षेत्रों में मौसम बेहद शुष्क होता है । लद्दाख जैसे ठंडे मरुस्थल भी हैं जो हिमालय के ऊँचे पठारों में स्थित हैं । सबसे आम प्रकार का मरुस्थल थार का रेगिस्तान है जो राजस्थान में स्थित है ।
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यहाँ रेत के टीले होते हैं और कहीं-कहीं घास या झाड़ियों वाले क्षेत्र भी मिलते हैं; ये झाडियाँ वर्षा होने पर बढ़ जाती हैं । थार के अधिकांश भागों में वर्षा बहुत कम और कभी-कभी होती है । कुछ इलाकों में तो और अनेक वर्षों में एक बार वर्षा होती है । साथ में लगे अर्धशुष्क क्षेत्र में वनस्पति कुछ एक झाड़ियों तथा खैर और बबूल जैसे काँटेदार पेड़ों तक ही सीमित होता है ।
कच्छ के बड़े और छोटे रन अत्यंत विशिष्ट शुष्क पारितंत्र हैं । गर्मियों में ये रेगिस्तान से मेल खाते हैं । लेकिन चूँकि ये समुद्र के पास और निचाई पर स्थित क्षेत्र हैं, इसलिए वे मानसून में खारे दलदल में बदल जाते हैं । इस काल में यहाँ बतख, हंस, सारस और बगुले जैसे पानी के पक्षी बड़ी संख्या में आकर्षित होकर आते हैं । बड़ा रन हमारे देश में बड़े और छोटे फ्लेमिंगो पक्षियों के अकेले ज्ञात प्रजनन स्थल के रूप में मशहूर है । कच्छ का छोटा रन भारत में जंगली गधों का एकमात्र क्षेत्र है ।
रेगिस्तानी और अर्धशुष्क क्षेत्रों में अनेक अत्यंत विशिष्ट कीड़े-मकोड़े और रेंगने वाले प्राणी (सरीसृप) पाए जाते हैं । दुर्लभ पशुओं में भारतीय भेड़ियों, रेगिस्तानी बिल्ले, रेगिस्तानी लोमड़े और पक्षियों में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और फ्लोरिकन शामिल हैं । कुछ अधिक आम परिंदों में तीतर, बटेर और भाट तीतर (sand-grouse) शामिल हैं ।
मरुस्थली और अर्धशुष्क पारितंत्रों का उपयोग कैसे होता है?
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अर्धशुष्क झाड़ीदार इलाकों और कम वनस्पति वाले क्षेत्रों का उपयोग राजस्थान और गुजरात में ऊँटों, मवेशियों और बकरियों को तथा दकन के पठार में भेड़ों को चराने के लिए किया जाता है । जिन क्षेत्रों में, जैसे जलाशयों के पास, थोड़ी-सी नमी होती है उनका उपयोग ज्वार-बाजरा उगाने के लिए किया जाता है ।
ये प्राकृतिक घासें और फसलों की स्थानीय किस्में इस योग्य बन चुके हैं कि बहुत कम नमी में भी उग सकें । इनका उपयोग भविष्य में आनुवंशिक इंजीनियरी (genetic engineering) के लिए और अर्धशुष्क भूमियों की फसलों के विकास के लिए किया जा सकता है ।
मरुस्थली पारितंत्रों के सामने क्या खतरे हैं?
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विकास की रणनीतियों और मनुष्य की जनसंख्या वृद्धि ने मरुस्थली और अर्धशुष्क भूमियों के प्राकृतिक पारितंत्र को प्रभावित करना आरंभ कर दिया है । सिंचाई की व्यापक व्यवस्था के द्वारा इन भूमियों को सींचे जाने से इस क्षेत्र की प्रकृति में बदलाव आया है । नहर का जल जल्दी वाष्प बनकर सतह पर लवण छोड़ जाता है । खारा बनकर यह क्षेत्र अनुत्पादक हो जाता है ।
नलकूपों से भूमिगत जल की निकासी जलस्तर को गिराती है तथा फिर और भी शुष्क वातावरण पैदा करती है । इस तरह मानव के कार्यकलाप इस अद्वितीय पारितंत्र की विशिष्टताओं को नष्ट कर रहे हैं । यहाँ लाखों वर्षों में विकसित विशेष प्रजातियाँ हो सकता है कि जल्द ही लुप्त हो जाएँ ।
मरुस्थली पारितंत्रों का संरक्षण कैसे संभव है?
मरुस्थली पारितंत्र अत्यंत संवेदनशील होते हैं । मरुस्थलों का पारितंत्रीय संतुलन जिसके कारण वे पौधों और प्राणियों के आवास हैं, आसानी से भंग हो सकता है । मरुस्थल निवासियों ने अपने मामूली जल संसाधनों को परंपरागत ढंग से बचाकर रखा है ।
राजस्थान की बिशनोई जाति के बारे में ज्ञात है कि वह अनेक पीढ़ियों से अपने खेजड़ी (khejdi) पेड़ों और काले हिरन की रक्षा करती आई है । यह परंपरा तब शुरू हुई जब उनके क्षेत्र के राजा ने अपनी सेना को अपने उपयोग के वास्ते पेड़ों को काटने के लिए भेजा । कहते हैं कि अपने पेड़ों की रक्षा करते हुए अनेक बिशनोइयों ने अपनी जानें दीं ।
आज रेगिस्तानी और अर्धशुष्क क्षेत्रों में स्थित राष्ट्रीय पार्कों और अभयारणों में इस पारितंत्र के बचे-खुचे टुकड़ों की रक्षा की तात्कालिक आवश्यकता है । राजस्थान की इंदिरा गाँधी नहर इस महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक शुष्क पारितंत्र को नष्ट कर रही है क्योंकि वह इस क्षेत्र को सघन खेती वाले क्षेत्र में बदल देगी । कच्छ में छोटे रन के इलाके, जो जंगली गधों के एकमात्र ठिकाने हैं, लवण निर्माण के प्रसार के कारण नष्ट हो जाएँगे ।
विकास की परियोजनाएँ मरुस्थली और शुष्क भूदृश्य को बदल रही हैं जिसके कारण यहाँ की विशिष्ट प्रजातियों के लिए उपलब्ध आवास तेजी से घट रहा है और ये विनाश के कगार तक पहुँच चुकी हैं । हमें विकास के ऐसे निर्वहनीय रूप की आवश्यकता है जो रेगिस्तान की विशेष आवश्यकताओं पर ध्यान दे ।