Read this article in Hindi to learn about the impact of environment on human health.
हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले पर्यावरणीय मुद्दे बेहतर पर्यावरण प्रबंध की आवश्यकता की चेतना बढ़ानेवाले सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में एक हैं । जीवन के लगभग हर क्षेत्र में मानव के कार्यकलापों से पर्यावरण में जो परिर्वतन आए हैं उन्होंने हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित किया है । यह मान्यता सही नहीं है कि आर्थिक संवृद्धि मानव की प्रगति का अकेला सूचक है ।
हम नगरीकरण और औद्योगीकरण से समृद्धि लाने की आशा तो करते हैं पर हानिकारक बात यह है कि इससे भीड़भाड़ और गंदे जल से संबंधित रोग पैदा हो रहे हैं । इससे संक्रामक दस्त जैसे जलजन्य रोगों और क्षयरोग जैसे वायुजन्य रोगों में वृद्धि हो रही है । शहरों का भारी यातायात दमा जैसे साँस के रोगों को बढ़ा रहा है । हरित क्रांति के दौरान खाद्य-उत्पादन बढ़ानेवाले कीटनाशकों ने खेतिहर मजदूरों को और पैदावार का उपयोग कर रहे हम सब लोगों को प्रभावित किया है ।
आधुनिक चिकित्सा से स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याओं के हल होने की आशा जागी है, खासकर एंटीबायोटिक दवाओं के कारण संक्रामक रोगों के इलाज की । पर जीवाणुओं ने भी प्रतिरोध की क्षमता विकसित कर ली है और इस प्रक्रिया में वे अकसर अपना व्यवहार बदल लेते हैं जिससे नई-नई दवाओं की खोज जरूरी हो जाती है । अनेक दवाओं के गंभीर पार्श्व-प्रभाव पाए गए हैं । कभी-कभी इलाज खुद बीमारी जितना ही हानिकारक होता है ।
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इस तरह विकास ने स्वास्थ्य की अनेक दीर्घकालिक समस्याएँ पैदा की हैं । बेहतर स्वास्थ्य-रक्षा के कारण जीवन की अवधि बढ़ी है और शिशु मृत्यु की दर कम हुई है । पर इससे हमारी जनसंख्या में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है जिससे पर्यावरणीय समस्याओं ने सर उठाया है । समाज में स्वास्थ्य की बेहतर स्थिति से जीवनशैली बेहतर तभी बनेगी जब साथ ही साथ जनसंख्या की वृद्धि में स्थिरता आए ।
पर्यावरणीय स्वास्थ्य (Environmental Health):
विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के अनुसार पर्यावरणीय स्वास्थ्य में जीवन की गुणवत्ता समेत मानव-स्वास्थ्य के वे पक्ष शामिल हैं जो पर्यावरण में भौतिक, रासायनिक, जैविक, सामाजिक और मनोवैज्ञाजिक कारकों से निर्धारित होते हैं । इसका तात्पर्य पर्यावरण के उन कारकों के आकलन, संशोधन, नियंत्रण और निरोध के सिद्धांत और व्यवहार से भी है जो मौजूदा और भावी पीढ़ियों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं ।
हमारा पर्यावरण अनेक प्रकार से स्वास्थ्य को प्रभावित करता है । जलवायु और मौसम मानव के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं । लोक स्वास्थ्य पर्याप्त मात्रा में उम्दा भोजन, सुरक्षित पेयजल और पर्याप्त आवास पर निर्भर है । तूफान, चक्रवात और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ आज भी हर साल अनेक जानें लेती हैं । अतिवर्षा मलेरिया और जलजन्य रोगों को जन्म देती है ।
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विश्व की जलवायु के परिवर्तन के स्वास्थ्य संबंधी गंभीर निहितार्थ हैं । अनेक देशों को वैश्विक उष्णता से जलवायु की दशाओं में पैदा अनिश्चितता से तालमेल बिठाना होगा । कुछ देशों में तूफान और कुछ में सूखे बढ़ रहे हैं जबकि पूरे संसार में तापमान बढ़ रहा है ।
अल-नीनो (El Nino) हवाएँ पूरी दुनिया के मौसम को प्रभावित कर रही हैं । 1997-98 के अल-नीनो ने अनेक देशों के लाखों लोगों के स्वास्थ्य और कल्याण पर गंभीर प्रभाव डाला और गंभीर सूखे, बाढ़ों और महामारियों को जन्म दिया । जलवायु के उतार-चढ़ाव और परिवर्तनों के आगे मानव की असहायता को कम करने के लिए नई रणनीतियाँ विकसित करनी होंगी ।
आर्थिक असमानता और पर्यावरण के परिवर्तनों का आपस में गहरा संबंध है । निर्धन देश जलवायु के परिवर्तन में धीमापन लाने के लिए उत्सर्जन (emission) के आवश्यक मानदंड पूरे कर सकने में असमर्थ हैं । समतापमंडल (मध्यवायुमंडल) में ओजोन पर्त के ह्रास ने विश्व की जलवायु पर और इस प्रकार मानव के स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है । पृथ्वी की सतह तक पहुँचनेवाली हानिकारक पराबैंगनी किरणों की मात्रा बढ़ी है । इससे त्वचा का कैंसर जैसे रोग पैदा हो रहे हैं ।
विकास की जिन रणनीतियों में पर्यावरण सुरक्षा के उपाय शामिल नहीं हैं, वे अकसर कुस्वास्थ्य का कारण बनती हैं जबकि स्वास्थ्य को सुरक्षित रखनेवाली रणनीतियाँ पर्यावरण की रक्षा भी करती हैं । इस तरह पर्यावरण के स्वास्थ्य और मानव के स्वास्थ्य का आपस में गहरा संबंध है । स्वास्थ्य में सुधार उम्दा पर्यावरण प्रबंध का केंद्रीय तत्त्व है । पर विकास की रणनीतियों के नियोजन में बहुत कम बार ही इसे पर्याप्त महत्त्व दिया जाता है ।
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इन संबंधों के उदाहरण:
i. दूषित भोजन या जल के कारण हर साल लाखों बच्चे दस्त से मर जाते हैं । अनुमान है कि संसार भर में 200 करोड़ लोग इन रोगों से प्रभावित हैं और हर साल 30 लाख से अधिक बच्चे जलजन्य रोगों से मर जाते हैं । अनुमान है कि भारत में पाँच से कम आयु का हर पाँचवाँ बच्चा दस्त से मरता है । यह अपर्याप्त पर्यावरण प्रबंध का परिणाम है और इसका मुख्य कारण पेयजल का अपर्याप्त शुद्धीकरण है ।
जलाशयों में शोधित हुए बिना जो गंदा पानी पहुँचता है वह मानव समुदाय में पेट तथा आँतों के रोगों को और कभी-कभी बड़ी महामारियों तक को जन्म देता है । उष्ण देशों में रहने वाले लोगों की एक बड़ी संख्या मलेरिया से मरती है और लाखों लोग इससे प्रभावित होते हैं ।
ठहरा हुआ पानी एनोफिलीज मच्छर का प्रजनन-स्थल होता है और उसका अपर्याप्त पर्यावरण प्रबंध मलेरिया के फैलने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है । भारत में मलेरिया का पुनर्प्रसार मष्तिष्क के मलेरिया को जन्म दे रहा है । इससे दिमाग पर प्रभाव पड़ता है और मृत्युदर बढ़ती है ।
ii. एमीबा और कृमियों जैसे परजीवियों के संक्रमण के कारण लाखों व्यक्तियों और मुख्यतः बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा है । दूषित भोजन खाने या भोजन पकाने के लिए गंदे पानी का प्रयोग करने से ऐसा होता है । अनुमान है कि निम्न- आय वाले देशों में 36 प्रतिशत और मध्यम-आय वाले देशों में 12 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं । भारत में 4 साल से कम आयु के बच्चों में लगभग आधे बच्चे कुपोषित हैं और 30 प्रतिशत नवजात शिशुओं का भार औसत भार से काफी कम होता है ।
iii. कम हवादार घरों और सार्वजनिक स्थानों में भीड़भाड़ के कारण करोड़ों लोग फेफड़े के कैंसर और क्षयरोग जैसे गंभीर श्वसन रोगों से ग्रस्त हैं । मोटर वाहनों का धुआँ, उद्योगों का धुआँ, तंबाकु का धुआँ और खराब बनावट वाले चूल्हों पर भोजन पकाने के कारण उठता धुआँ साँस के रोगों को बढ़ाता है ।
iv. लाखों लोग कार्यस्थलों पर या घरों में घातक रसायनों के संपर्क में आते हैं जिससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ता है । उद्योगों में नियंत्रण उपायों का ठीक से पालन नहीं किया जाता ।
v. दुनियाभर में हजारों लोग यातायात की दुर्घटनाओं में मरते हैं क्योंकि यातायात की दशाओं का प्रबंध अपर्याप्त है । दुर्घटनास्थल पर प्राथमिक उपचार की कमी और अकसर घंटे भर के अंदर अस्पताल न पहुँच पाने के कारण अनेक जानें जाती हैं, खासकर सर की चोटों के कारण ।
vi. साफ पानी, साफ हवा और पर्याप्त भोजन जैसी बुनियादी पर्यावरणीय आवश्यकताएँ, जिनका संबंध पर्यावरणीय वस्तुओं और सेवाओं से है, घोर निर्धनता में रह रहे 100 करोड़ से भी अधिक लोगों को नहीं मिलतीं ।
vii. खासकर नगरीय परिवेश में करोड़ों लोग अपर्याप्त आवासों में रहते हैं या उनका कोई आवास नहीं होता । इसका संबंध संपदा और रहने के स्थान के वितरण में मौजूद भारी असमानताओं से है ।
viii. जनसंख्या की वृद्धि और संसाधनों का शोषण और अपव्यय पर्यावरण की अखंडता के लिए खतरे पैदा कर रहा है और हर व्यक्ति के स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित कर रहा है ।
ix. स्वास्थ्य जनता और उसके पर्यावरण के परस्पर संबंधों का परिणाम होता है । बेहतर स्वास्थ्य पर्यावरण के अधिक निर्वहनीय प्रबंध से ही संभव है ।
रणनीति से संबंधित महत्त्वपूर्ण मुद्दे (Important Strategic Concerns):
i. दुनिया को जनता की स्वास्थ-रक्षा संबंधी आवश्यकताओं और प्राकृतिक संसाधनों के निर्वहनीय उपयोग पर ध्यान देना होगा । इनका आपस में गहरा संबंध है ।
ii. समस्त जनता को साफ पेयजल और भोजन प्रदान करने की रणनीतियाँ स्वस्थ और रहने योग्य वातावरण का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं ।
iii. ऊर्जा के साफ स्रोतों की व्यवस्था, जो स्वास्थ्य को प्रभावित न करें, साँस के रोगों में कमी लाने की कुंजी है ।
iv. औद्योगिक तथा अन्य प्रदूषकों, जैसे यातायात के धुएँ आदि के पर्यावरणीय परिणामों में कमी से लोक स्वास्थ्य में सुधार संभव है ।
v. खेती के तरीकों में परिवर्तन लाकर हानिकारक रोगनाशकों, शाकनाशकों और कीटनाशकों का प्रयोग करने के बजाए जैविक खादों और अविषाक्त जैव-रोगनाशकों जैसे विकल्पों का प्रयोग करने से खेतिहर समुदायों के और उपभोक्ताओं के भी स्वास्थ्य में सुधार संभव है ।
vi. ऐसी औद्योगिक प्रणालियों का प्रयोग करना जो मजदूरों या उद्योगों के आसपास रहनेवाले लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित न करती हों । ऐसा करने से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण में सुधार हो सकता है ।
vii. परंपरागत ऊर्जा-स्रोतों की जगह सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा और समुद्र ऊर्जा जैसे अधिक स्वच्छ और अधिक सुरक्षित स्रोतों का प्रयोग करने की आवश्यकता है जो मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव नहीं डालते । इस प्रकार स्वच्छ ऊर्जा की व्यवस्था से स्वास्थ्य में सुधार आएगा ।
viii. जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण और पर्यावरणीय वस्तुओं और सेवाओं का कम उपयोग वह बुनियादी तत्त्व है जो ‘सबके स्वास्थ्य’ के नारे को साकार कर सकता है ।
ix. निर्धनता का स्वास्थ्य से गहरा संबंध है और यह स्वयं भी अनुचित पर्यावरण प्रबंध का परिणाम है । प्राकृतिक संसाधनों तथा पर्यावरणीय वस्तुओं और सेवाओं के असमान वितरण का तथा स्वास्थ्य में गिरावट का भी संबंध है ।
स्वास्थ्य-प्रभाव आकलन की परिभाषा:
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य-प्रभाव आकलन (health impact assessment, HIA) की परिभाषा उन तौर-तरीकों, पद्धतियों और उपकरणों की समग्रता के रूप में की है जिनकी सहायता से एक आबादी के स्वास्थ्य पर संभावित प्रभावों और उस आबादी के बीच उन प्रभावों के वितरण की दृष्टि से किसी नीति, कार्यक्रम या परियोजना का आकलन किया जा सके ।
जलवायु और स्वास्थ्य (Climate and Health):
सैंकड़ों वर्षों में मानवजाति ने उष्णकटिबंधीय से लेकर ठंडे आर्कटिक तक, रेगिस्तानों, दलदलों और ऊँचे पहाड़ों तक अनेक प्रकार की जलवायु में रहना सीख लिया है । मानव के जीवन और स्वास्थ्य पर जलवायु और मौसम दोनों ने बड़ा प्रभाव डाला है ।
प्राकृतिक आपदाएँ (भारी वर्षा, बाढ़ें, चक्रवात) एक समुदाय के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालती हैं । जलवायु के परिवर्तन से अमीरों की अपेक्षा गरीब लोगों का स्वास्थ्य अधिक प्रभावित होता है । प्राकृतिक आपदाओं के कारण संसार भर में हर साल होनेवाली लगभग 80,000 मौतों में लगभग 95 प्रतिशत गरीब देशों में होते हैं ।
मौसम से पैदा आपदाओं से सैकड़ों मनुष्य और पशु मरते हैं, आवास नष्ट होते हैं तथा फसलें और अन्य संसाधन बरबाद होते हैं । लोक-स्वास्थ्य का ढाँचा, जैसे गंदे पानी का निकास, अपशिष्ट प्रबंध, अस्पतालों और सड़कों की भी हानि होती है । 1999 में उड़ीसा के चक्रवात ने 10,000 जानें लीं । अनुमान है कि प्रभावित होनेवालों की कुल संख्या एक से डेढ़ करोड़ तक थी !
मानव का शरीर एक सीमा तक ही मौसम के परिवर्तनों से तालमेल बिठा सकता है । लेकिन मौसम के स्पष्ट अल्पकालिक उतारचढ़ाव स्वास्थ्य की गंभीर समस्याएँ खड़ी कर सकते हैं । लू से बीमारियाँ होती हैं और जानें जाती हैं । बुजुर्ग लोग और हृदय या साँस की बीमारियों वाले व्यक्ति लू से अधिक प्रभावित होते हैं । भारत में लू ने 1998 में अनेक जानें लीं ।
जलवायु मच्छरों जैसे कीटों से रोगों के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । रोगों के ये वाहक तापमान, वर्षा के ढर्रे और पवन जैसे जलवायु के प्रत्यक्ष प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं । जलवायु परपोषक पौधों और पशुओं पर अपने प्रभावों के कारण उनके वितरण और अधिकता को प्रभावित करती है ।
मलेरिया का संक्रमण जलवायु और मौसम के प्रति खासकर संवेदनशील होता है । मौसम की असामान्य दशाएँ जैसे भारी वर्षा, मच्छरों की संख्या को बहुत अधिक बढ़ाकर महामारी ला सकती है । रेगिस्तानों में और मलेरिया के क्षेत्रों की पठारी सीमाओं पर मलेरिया के संक्रमण में स्थायित्व नहीं होता और मनुष्यों में जन्मजात प्रतिरक्षा शक्ति नहीं होती ।
इसलिए मौसम की दशाएँ (वर्षा और तापमान) अनुकूल हों तो ऐसे क्षेत्रों में गंभीर महामारी फैल सकती है । अनेक वर्षों के दौरान मलेरिया से संबंधित उतारचढ़ावों का अल-नीनो चक्र से जुड़ी वर्षा संबंधी परिवर्तनों से संबंध रहा है ।
संक्रामक रोग (Infectious Diseases):
अनेक संक्रामक रोग और भी भयानक होकर वापस पलटे हैं । मलेरिया और तपेदिक (क्षयरोग) जैसे रोगों पर कारगर नियंत्रण न रह पाने से दशकों तक बिलकुल नियंत्रण में रहने के बावजूद ये रोग फिर से लौट रहे हैं ।
पिछले कुछ दशकों में एकाएक कुछ और रोगों ने हमारे स्वास्थ्य और हमारे जीवन को प्रभावित किया है जो पहले विज्ञान के लिए अज्ञात थे । इसके दो उदाहरण हैं एच आई वी (Human Immunodeficiency Virus-HIV) नाम के विषाणुओं से पैदा एड्स (Acute Immuno Depressive Syndrome-AIDS) रोग जो संभोग के द्वारा संक्रमित होता है तथा साँसों का भयानक सार्स (Severe Acute Respiratory Syndrome-SARS) रोग ।
इनको हम सीधे-सीधे पर्यावरण के परिवर्तनों से नहीं जोड़ सकते । फिर भी ये जीवनशैलियों और व्यवहार के प्रतिमानों में परिर्वतन लाकर उस पर्यावरण को प्रभावित करते हैं जिसमें हम रहते हैं । उदाहरण के लिए, सार्स ने अनेक देशों के लोगों को महीनों तक दूसरे देशों की यात्रा करने से रोका । इससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं, एयरलाइन कंपनियों और पर्यटन उद्योग पर बुरे प्रभाव पड़े ।
हमारे पर्यावरण से संबंधित जो संक्रामक रोग नियंत्रण में थे वे एकाएक क्यों पलट रहे हैं ? तपेदिक (tuberculosis) जैसे रोगों का तपेदिकमारक दवाओं से दशकों तक कारगर इलाज किया जाता रहा है । इन एंटीबायोटिक दवाओं से उन जीवाणुओं को मारा जाता रहा है जो यह रोग पैदा करते थे । लेकिन प्रकृति के उद्विकास की प्रक्रियाओं ने जीवाणुओं के नए संशोधित जीन वाले प्रकारों को जन्म देकर उन्हें प्रतिरोध में समर्थ बना दिया है ।
ये रूपांतरित जीवाणु, जो आम प्रयोग की एंटीबायोटिक दवाओं से प्रभावित नहीं होते, अब तेजी से फैलने लगे हैं । इस तरह इस रोग का पुनर्जन्म हुआ है । क्षयरोग की मिसाल में तो इसके कारण अनेक दवाओं का प्रतिरोधी रोग (multi-drug resistant tuberculosis) पैदा हुआ है । इसे अकसर एच आई वी से जोड़ा जाता है जो किसी व्यक्ति में जीवाणुओं, मसलन क्षयरोग पैदा करनेवाले mycobacterium tuberculosis, से लड़ने की क्षमता को कम करता है ।
इस तरह नए प्रकार की एंटीबायोटिक, एंटिसेप्टिक और डिसइंफेक्टेड दवाएँ और वैक्सीन, जिनको कभी संक्रामक रोगों का पर्याप्त जवाब माना जाता था, संक्रामक रोगों के उन्मूलन में असफल रहे हैं । वास्तव में, विशेषज्ञ तो आज यह समझ रहे हैं कि भविष्य में कैंसर या हृदय रोग नहीं, बल्कि ये संक्रामक रोग ही सबसे अधिक जानलेवा साबित होंगे ।
जहाँ एंटीबायोटिक दवाओं का प्रतिरोध एक सुपरीचित प्रवृत्ति है, वहीं इन रोगों के पुनर्जन्म के दूसरे कारण भी हैं । नगरीय परिवेश में गंदी बस्तियों के कारण पैदा भीड़भाड़ से आसानी से साँस के रोगों के प्रसार के अलावा स्वास्थ्य संबंधी अनेक खतरे पैदा होते हैं ।
पीने का गंदा पानी, बंद निकास व्यवस्था के अभाव के कारण मानव के मलमूत्र का अनुपयुक्त निबटारा और कचरे का कुप्रबंध, ये सभी नगरीय स्वास्थ्य की समस्याएँ हैं । इसके कारण ही हैजा का फिर से जन्म हुआ है तथा दस्त और पेचिश की तथा संक्रामक हेपेटाइटिस (पीलिया) में वृद्धि हुई है ।
विश्वव्यापी उष्णता के बढ़ने के साथ रोगों के ढर्रों में परिवर्तन आते रहेंगे । मच्छरों जैसे वाहकों से फैलनेवाले उष्णकटिबंधीय रोग निश्चित ही मलेरिया को विषुवत रेखा (equator) से और आगे तक फैलाएँगे । विश्वव्यापी उष्णता डेंगू, पीलाबुखार, मष्तिष्क ज्वर आदि के वितरण में भी बदलाव लाएगी । अधिक गर्म और नम जलवायु हैजा जैसे रोगों की भयानक महामारियाँ फैलाएगी । समय-समय पर उष्णता लानेवाला अल-नीनो, हो सकता है कृतंको (rodents) की संख्या को बढ़ाए जिससे प्लेग जैसे रोग फिर से होने लगें ।
वैश्वीकरण और संक्रामक रोग (Globalization and infectious diseases):
वैश्वीकरण एक विश्वव्यापी प्रक्रिया है जिसमें संचार, व्यापार और आर्थिक संकट का अंतर्राष्ट्रीयकरण शामिल हैं । इसमें तीव्र सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव जैसे समानांतर परिवर्तन भी शामिल हैं । जहाँ वैश्वीकरण में कुछ विशेष जनसमूहों के जीवन के मानदंड को ऊपर उठाने की क्षमता है, वहीं यह विकासशील देशों के अनौपचारिक और औपचारिक दोनों आर्थिक क्षेत्रों में गरीब और हाशियाई जनता के लिए आर्थिक असमानताएँ बढ़ाता है ।
एच आई वी से क्षयरोग के प्रसार में तेजी आ रही है:
एच आई वी और क्षयरोग का संबंध एक बड़ी संख्या को प्रभावित करता है और दोनों रोग एक-दूसरे के प्रसार में तेजी लाते हैं । एच आई वी से प्रतिरक्षा प्रणाली कमजोर होती है । एच आई वी और क्षयरोग से संक्रमित एक व्यक्ति उस व्यक्ति की अपेक्षा जो क्षयरोग से संक्रमित हो पर एच आई वी से संक्रमित न हो क्षयरोग से अधिक गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है । क्षयरोग एच आई वी वाले व्यक्तियों में मृत्यु का एक प्रमुख कारण है और संसार भर में 11 प्रतिशत एड्स मौतें इसी के कारण होती हैं ।
जलजनित रोग (Water Related Diseases):
जल-आपूर्ति, स्वच्छता और आरोग्य (Water supply, sanitation and hygiene development):
इस क्षेत्र की प्रमुख समस्याएँ हैं इस क्षेत्र के लिए प्राथमिकता का अभाव, वित्तीय संसाधनों का अभाव, अनियमित जल-आपूर्ति और सफाई की सेवाएँ, आरोग्य से संबंधित खराब व्यवहार-प्रतिमान तथा विद्यालयों, होटलों, अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों आदि सार्वजनिक स्थानों पर अपर्याप्त सफाई ।
साथ ही, पर्यावरण शिक्षा का अभाव है और इस चेतना का भी कि रोग की इन प्रक्रियाओं का संबंध विभिन्न क्षेत्रों में पर्यावरण के कुप्रबंध से है । पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति, मलमूत्र के उचित निबटारे की व्यवस्था और स्वास्थ्य संबंधी नियमों का पालन इन कारणों से पैदा होनेवाले रोगों और मौतों में कमी ला सकता है ।
पर्यावरण की स्वच्छता और आरोग्य विकास (Environmental sanitation and hygiene development) :
विश्वभर में लगभग 2.4 अरब व्यक्ति बहुत गंदी दशाओं में रहते हैं । स्वास्थ्यकर दशाओं के अभाव में संक्रामक रोगों में वृद्धि हो जाती है । घरों में गलत ढंग से जमा किया गया जल अकसर अपर्याप्त प्रबंध के कारण प्रदूषित हो जाता है । जलजनित रोगों का प्रसार कैसे होता है, इससे संबंधित शिक्षा और जागरूकता से इसमें आसानी से कमी लाई जा सकती है ।
स्वास्थ्य और जल संसाधन विकास (Health and water resources development) :
जल से संबंधित रोगों (और खासकर जल से संबंधित और कीटों से फैलनेवाले रोगों) का संबंध जल संसाधनों के विकास और प्रबंध से है । दुनिया के अनेक भागों में बाँधों के निर्माण, सिंचाई के विकास और बाढ़ नियंत्रण से मलेरिया, जापानी मष्तिष्क ज्वर, शिस्टोसोमिएसिस, लसवाही फाइलेरिया (lymphatic filariasis) और अन्य दशाओं में वृद्धि हुई है । पोषाहार की बिगड़ती स्थिति, खेतिहर रोगनाशकों और अनेक अवशेषों के साथ संपर्क जल संसाधनों के विकास संबंधी अप्रत्यक्ष हानियाँ हैं ।
जल से फैलनेवाले रोग (Waterborne diseases):
तेजी से बढ़ती आबादी वाले शुष्क क्षेत्रों में पहले ही पानी का संकट सामने है । जल का संरक्षण और बेहतर प्रबंध इसकी तत्काल आवश्यकता है । माँग और आपूर्ति में संतुलन जल के निर्वहनीय उपयोग का एक अभिन्न अंग है । इसे ‘नील क्रांति’ (Blue Revolution) कहा जा रहा है और इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, राज्यीय, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तरों पर एक बेहतर जल नीति के हित में सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों और लोगों का मिलकर काम करना आवश्यक है ।
विकास के मौजूदा ढर्रे जल की अधिक खपत करनेवाले और जल बरबाद करनेवाले हैं । ये प्रदूषण और अति-उपयोग का ध्यान नहीं रखते । जल संसाधनों के विकास और स्वास्थ्य के संबंधों को पर्यावरण की समस्याओं के एक प्रमुख स्रोत के रूप में प्राथमिकता नहीं दी गई है जिनके लिए नीतियों में परिवर्तन, प्रशासनिक क्षमता-निर्माण और वित्तीय सहायता में वृद्धि की आवश्यकता हो ।
जल से संबंधित रोगों के चार प्रमुख प्रकार हैं :
1) जलजनित रोग (Water-borne diseases) :
ये मनुष्यों और पशुओं के मलमूत्र से और खासकर नगरों के गंदे पानी से या उद्योगों और कृषि के रासायनिक अपशिष्टों से प्रदूषित जल से पैदा होते हैं । इनमें से हैजा और टायफायड जैसे कुछ रोग गंभीर महामारियाँ पैदा करते हैं । दस्त, पेचिश, पोलियो, मेनिंजाइटिस और हेपेटाइटिस ए और ई गंदे पेयजल से पैदा होते हैं ।
नाइट्रेटों की भारी मात्रा जब जलस्रोतों को प्रदूषित करती है तो रक्त संबंधी विकार पैदा होते हैं । ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल में मिलनेवाले कीटनाशक कैंसर, स्नायविक रोगों और बाँझपन के कारण बनते हैं । स्वच्छता में वृद्धि और शोधित पेयजल की व्यवस्था से इन रोगों का प्रसार कम होता है ।
2) जल-आधारित रोग (Water-based diseases):
जो जलीय प्राणी अपने जीवन का एक भाग जल में और एक भाग परजीवियों के रूप में मानव-शरीर में गुजारते हैं, वे अनेक रोग पैदा करते हैं । भारत में गिनी कृमि पैरों को प्रभावित करता है । गोल कृमि खासकर बच्चों की छोटी आँत में रहते हैं ।
3) जल से संबंधित प्रसारण रोग (Water-related vector diseases):
ठहरे पानी में पैदा होनेवाले मच्छर मलेरिया और फाइलेरिया (फीलपाँव) पैदा करते हैं । मलेरिया, जिसे भारत में नियंत्रित किया जा चुका था, वापस आ चुका है क्योंकि मच्छर दवारोधक हो चुके हैं । साथ ही, मलेरिया की दवाएँ आज परजीवियों को मारने में असमर्थ हैं क्योंकि वे दवारोधक बन चुके हैं । जलवायु के परिवर्तन नए प्रजननस्थल पैदा कर रहे हैं । भारत में दूसरे कीटवाही रोगों में डेंगू बुखार और फीलपाँव शामिल हैं । डेंगु के कारण मृत्युदर अधिक है जबकि फाइलेरिया से बुखार और पैरों की सूजन की शिकायत होती है ।
मानसून के दौरान पानी के जमा होने पर मच्छरों के प्रजनन-स्थल समाप्त करना और मच्छरों के लार्वा को मारने के लिए मछलियों का उपयोग करना, मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक विषैले कीटनाशकों का प्रयोग किए बिना, इन रोगों में कमी लाने के दो उपाय हैं ।
4) जल की दुर्लभता वाले रोग (Water-scarcity diseases):
जिन क्षेत्रों में जल और स्वच्छता की कमी होती है वहाँ क्षयरोग, कोढ़, टिटनेस आदि रोग बहुत फैलते हैं । ये रोग तब लगते हैं जब व्यक्ति अपने हाथों को ठीक से नहीं धोता । दूसरे शब्दों में, जल की कमी आरोग्य की कमी का कारण होती है ।
पेयजल में आर्सेनिक:
पेयजल में आर्सेनिक की मौजूदगी मानव-स्वास्थ के लिए एक गंभीर खतरा है । 1990 के दशक में बाँग्लादेश के कुओं के पानी में यह काफी बड़े पैमाने पर पाया गया और तब से इस पर काफी ध्यान दिया गया
है । अन्य देशों में यह कम पाया जाता है । पेयजल में आर्सेनिक मुख्यतः आर्सेनिक से समृद्ध उन चट्टानों से आता है जिनसे होकर पानी रिसता है । कुछ क्षेत्रों में खनन या औद्योगिक कार्यों के कारण भी यह संभव है । संयुक्त राष्ट्र के दूसरे संगठनों के साथ मिलकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पेयजल में आर्सेनिक की मौजूदगी पर एक अधुनातन समीक्षा रिपोर्ट तैयार की है ।
भारी आर्सेनिक वाला पेयजल आर्सेनिक विषाक्तता अर्थात ‘आर्सेनिकासिस’ को जन्म देता है । स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव आम तौर पर देर से सामने आते हैं । रोकथाम का सबसे कारगर उपाय आर्सेनिक से मुक्त पयजल की आपूर्ति है । जल में आर्सेनिक प्रदूषण खनन, धातुकर्म और इमारती लकड़ी के शोधन जैसी औद्योगिक प्रक्रियाओं से भी होता है । कुपोषण रक्त कोशिकाओं पर आर्सेनिक के प्रभावों में तीव्रता ला सकता है ।
आर्सेनिक की भारी मात्रा वाला जल अगर 5 से 20 साल तक पिया जाए तो त्वचा के रंग में बदलाव, हथेलियों और तलवों पर सख्त चकते, त्वचा का कैंसर, ब्लैडर, गुर्दा और फेफड़े का कैंसर तथा पैरों और टाँगों की रक्त कोशिकाओं संबंधी रोग पैदा हो सकते हैं । इससे मधुमेह, भारी रक्तचाप और प्रजनन संबंधी विकार भी पैदा हो सकते हैं ।
आर्सेनिक का प्राकृतिक प्रदूषण अर्जेटीना, बाँग्लादेश, चिली, चीन, भारत, मेक्सिको, थाइलैंड और अमरीका में पाया जाता है । चीन (के ताइवान प्रांत) में आर्सेनिक से गैंगरीन हो रहा है जिसे ‘काले पाँव का रोग’ कहते हैं । आर्सेनिकोसिस की रोकथाम के दीर्घकालिक हल सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था पर निर्भर हैं ।
कुछ उपाय इस प्रकार हैं:
i. कुंओं की अधिक गहरी खुदाई क्योंकि इनके प्रदूषण की संभावना कम होती है ।
ii. पानी में आर्सेनिक की मात्रा की जाँच करना और उपभोक्ताओं को इसकी सूचना देना ।
iii. स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा निगरानी-जिन क्षेत्रों को आर्सेनिक प्रदूषण के लिए जाना जाता है वहाँ पर त्वचा की समस्याओं की निगरानी आर्सेनिकोसिस के आरंभिक लक्षणों की जाँच करके की जानी चाहिए ।
iv. आर्सेनिकोसिस के हानिकारक प्रभावों और उनसे बचने के उपायों के बारे में स्वास्थ्य-शिक्षा ।