Read this article in Hindi to learn about the endangered and endemic species of India.
भारत की स्थानिक और संकटग्रस्त प्रजातियों का महत्त्व जानने के लिए इस देश में पाई जाने वाली पौधों और प्राणियों की प्रजातियों की व्यापक विविधता को समझना होगा ।
सुज्ञात प्रजातियों मे अनेक आज मानव के कार्यकलाप के कारण संकटग्रस्त हैं । इस देश की संकटग्रस्त प्रजातियों को असहाय (Vulnerable), दुर्लभ (Rare), अनिश्चित (Indeterminate) और संकटग्रस्त (Threatened) श्रेणियों में बाँटा गया है । अन्य प्रजातियाँ केवल भारत में पाई जाती हैं और इस तरह स्थानिक हैं या हमारे देश तक सीमित हैं । इनमें से कुछ का वितरण बहुत ही स्थानबद्ध है और ये अत्यधिक स्थानिक मानी जाती हैं ।
देश में पौधों और प्राणियों की अनेक प्रजातियाँ ऐसी हैं जो आज केवल ऐक या कुछ ही संरक्षित क्षेत्रों में पाई जाती हैं । महत्त्वपूर्ण संकटग्रस्त प्रजातियों में बाघ, हाथी, गेंडा आदि भारी प्राणी शामिल हैं । कम ज्ञात प्रमुख स्तनपायी प्राणियों में, जो केवल एक क्षेत्र तक सीमित हैं, भारत का जंगली गधा, हंगुल (कश्मीरी हिरन), सुनहरा लंगूर, पिग्गी सूअर और बहुत-से दूसरे प्राणी शामिल हैं । पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ भी संकटग्रस्त हैं, जैसे साइबेरियाई सारस, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, फ्लोरिकन और बहुत-से शिकारी पक्षी ।
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हाल में गिद्ध, जो एक दशक पहले तक आम देखे जाते थे, एकाएक गायब हो गए हैं और आज बहुत ही संकटग्रस्त हैं । उतना ही संकट सरीसृपों और जलथलचरों की अनेक प्रजातियों पर भी है । अनेक अकशेरुकी प्राणी भी संकटग्रस्त हैं; इनमें प्रवाल भित्तियों पर रहनेवाले प्राणियों की एक बड़ी संख्या भी शामिल है । पौधों की अनेक प्रजातियाँ आज अधिकाधिक संकटग्रस्त हैं क्योंकि मानव के कार्यकलाप के कारण उनके आवासों में परिवर्तन आ रहे हैं ।
अत्यधिक आवास-विशिष्ट और इसलिए संकटग्रस्त प्रमुख पेड़ों, झाड़ियों और लताओं के अलावा हजारों छोटे-छोटे झाड़ों पर भी आवास की हानि के कारण संकट छा गया है । पौधों का एक अन्य समूह-अनेक प्रकार के आर्किड-भी आज जोखिम में हैं । दवाओं या प्रसाधन सामग्रियों में प्रयोग के लिए बहुतायत से काटे जाने वाले अनेक पौधे भी संकटग्रस्त हो गए हैं ।
संकटग्रस्त प्रजातियों को सुरक्षित रखने के लिए भारत ने वन्यजीवन संरक्षण अधिनियम बनाया है । इसमें अस्तित्व के लिए पैदा हुए संकट के आधार पर वर्गीकृत पौधों और प्राणियों की सूचियाँ शामिल हैं ।
हम अपने देश में प्रजातियों की विविधता के बारे में बहुत कम जानते हैं । ऐसे अनेक समूह हैं जिनके बारे में हमारा ज्ञान बहुत कम है । हममें से अधिकांश लोग कुछ शानदार बड़े पशुओं की दुर्दशा से ही परिचित हैं । लेकिन हमें पौधों और प्राणियों की कम ज्ञात प्रजातियों के संकट को भी समझना होगा । हमें भारत की भावी पीढ़ियों के लिए अपने अद्भुत विश्वसनीय वन्यजीवन के संरक्षण के उपाय सोचने होंगे ।
पौधों की आम प्रजातियाँ (Common Plant Species):
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i. सागवान (Teak):
यह प्रायद्वीपीय भारत के दक्षिण-पश्चिमी भाग का वृक्ष है । यह पर्णपाती वनों का आम पेड़ है और ऐसी लकड़ी देता है जिसकी काफी माँग है और जिससे उम्दा फर्नीचर बनते हैं । ब्रिटिश काल के आरंभ में जहाज बनाने के लिए इसे वनों से काटा जाता था । जब इसका भंडार कम होने लगा तो अंग्रेजों ने कुछ क्षेत्र चुने और उन्हें आरक्षित वन नाम दिया । यहाँ सरकार के उपयोग के लिए टीक के पेड़ लगाए जाते थे । आज वन विभाग बड़े पैमाने पर टीक लगाता है जिससे उसे कीमती लकड़ी मिलती है ।
टीक का पेड़ अपने बड़े पत्तों से पहचाना जाता है; ये पत्ते 40-50 सेमी लंबे और 20 सेमी चौड़े भी होते हैं । इसके फल और फूल छोटे होते हैं । जाड़े में पेड़ों के सारे पत्ते झड़ जाते हैं । नए पत्तों के मौसम में, जो अप्रैल में आरंभ होता है और मानसून में जारी रहता है, टीक के जंगल चमकीले, हरे और छायादार होते हैं ।
टीक के अधिकांश प्राकृतिक वनों में पौधों की बहुत-सी दूसरी प्रजातियाँ भी होती हैं और जंगली पशुओं की एक बड़ी संख्या रहती है । कुछ टीक के वनों को, जहाँ वन्यजीवन की अधिकता है, संरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया है और ये हमारे राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों में शामिल हैं ।
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ii. साल (Sal):
पूर्वोत्तर भारत, मध्यप्रदेश और उड़ीसा के अनेक प्रकार के वनों की यह आम प्रजाति है । इसके पत्ते चमकीले, हरे होते हैं और छतरी लगभर पूरे साल हरी-भरी रहती है । साल की लकड़ी कड़ी और टिकाऊ होती है । साल का पेड़ बड़ी संख्या में ऐसे बीज देता है जिनका उपयोग प्रसाधन सामग्री बनाने में होता है । साल वनों में वन्य स्तनपाइयों, पक्षियों, सरीसृपों और कीड़े-मकोड़ों की अधिकता होती है । साल वनों के अनेक क्षेत्र हमारे राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों में शामिल किए गए हैं ।
iii. आम (Mango):
यह हमारी बागबानी की सबसे लोकप्रिय प्रजातियों में से एक है और देश भर में इसकी अनेक किस्में उगाई जाती है । बागों के बड़े, गूदेदार फलों की तुलना में जंगली आम के पेड़ में छोटे नोकदार फल होते हैं और बीज बड़ा होता है । आम का पेड़ एक सदाबहार प्रजाति है और इसमें छोटे-छोटे फूल (बौर) लगते हैं । जो कीड़ों द्वरा परागित होते हैं । वनों में बंदर, गिलहरी, शाकाहारी चमगादड़ और पक्षियों जैसे फलाहारी प्राणी इसके पके फल को चाव से खाते हैं ।
iv. फाइकस स्पेशल (Ficus Sp.):
महत्वपूर्ण पेड़ों के इस समूह में पीपल, बरगद और फाइकस की दूसरी अनेक प्रजातियाँ शामिल हैं । पर्यावरण के लिए ये सभी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि कीड़ों, पक्षियों और स्तनपाइयों की अनेक प्रजातियाँ इनके बेरों पर जीती हैं । फूल बेरों के अंदर होते हैं । ये एक खास प्रजाती के ततैयों द्वारा सेंचे जाते हैं जो बेरों के अंदर अंडे देती है और लार्वा उसी को खाकर बढ़ते हैं ।
फाइकस वृक्षों में सालभर बेर लगते हैं और इस तरह ये पशुओं की अनेक प्रजातियों को तब भी पौष्टिक भोजन देते हैं जब दूसरे पेड़ों पर फल नहीं होते । इस तरह फाइकस प्रजातियों को पारितंत्र की ‘बुनियादी’ प्रजातियाँ कहा जाता है और ये अनेक पारितंत्रों में खाद्य-जाल को बनाए रखने का कार्य करती हैं । पीपल और बरगद जैसे फाइकस को भारत में पवित्र माना जाता है और सुरक्षित रखा जाता है ।
v. नीम (Neem):
इस प्रजाति को एजडिरैचटा इंडिका (Azadirachta Indica) कहते हैं । अतीत में इसका देशी दवाओं में उपयोग होता रहा है । इसमें छोटे-छोटे पीले फल लगते हैं । पत्तों और फलों का स्वाद कड़वा होता है । पर्यावरण-स्नेही कीटनाशक के रूप में इसका व्यापक उपयोग होता है । अर्धशुष्क क्षेत्रों में यह बहुत अच्छी तरह बढ़ता है और जहाँ मिट्टी खराब हो या वर्षा कम हो, वहाँ भी वनरोपण कार्यक्रमों में लगाया जा सकता है ।
vi. इमली (Tamarind):
यह सबसे सुज्ञात भारतीय वृक्षों में से एक है । यह बढ़कर काफी ऊँचा हो जाता है और 200 वर्षों से अधिक समय तक जीवित रहता है । इसका फल टेढ़ी फली जैसा होता है जिसका गूदा खट्टा होता है और उनमें लगभग वर्गाकार अनेक बीज होते हैं । ताजे फल का गूदा या तो हरा या लाल होता है और जब पकता है तो चिपचिपा और भूरा होकर छाल से अलग हो जाता है ।
इसका पेड़ आम तौर पर छायादार पेड़ के रूप में और उसके खट्टे फल के लिए लगाया जाता है जिसमें विटामिन सी की भारी मात्रा होती है । इसका उपयोग खाद्य-रक्षक (Preservative) के रूप में किया जाता है और भोजन में मिलाने पर सोंधी महक आ जाती है । यह वृक्ष इमारती लकड़ी और जलावन दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।
vii. बबूल (Babool):
यह काँटेदार प्रजाति है और पश्चिमी भारत और दकन के पठार के अर्धशुष्क क्षेत्रों की खास प्रजाति है । यह घास के मैदानों में और खेतों के आसपास कहीं-कहीं उगता है तथा चारे और जलावन के लिए इसका प्रयोग होता है । यह साल भर, सूखे से सूखे दिनों में भी, हरा रहता है और वन्य प्राणी और मवेशी इसे चरते हैं । इसके पत्ते छोटे और फूल चमकदार होते हैं तथा छोटी-छोटी फलियों में अनेक बीज होते हैं । लंबे, नोकदार और सीधे काँटे इसकी प्रमुख विशेषता हैं । ये अधिक पुरानी शाखों को अत्यधिक चराई से बचाते हैं ।
viii. जिजिफस (Ziziphus):
ये भारत के शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में मिलने वाले छोटे पेड़ या झाड़ होते हैं । सबसे आम मिलनेवाली प्रजातियाँ जिजिफस मारीतियाना और जिजिफस जुजूबा हैं । यह फलाहारी पक्षियों की पसंद है । पेड़ में काफी फल लगते हैं जिनको अनेक प्रकार के पक्षी और स्तनपायी खाते हैं । इसके लोकप्रिय फल को आम तौर पर जमा करके स्थानीय बाजारों में बेच दिया जाता है ।
ix. जामुन (Jamun):
यह एक सदाबहार प्रजाति है जिसका फल स्वादिष्ट और बैंगनी होता है । लोग ही नहीं बल्कि अनेक जंगली पक्षी और स्तनपायी भी इसे पसंद करते हैं । यह भारत के अनेक भागों में उगता है तथा इसकी अनेक किस्में होती हैं जिनमें अलग-अलग आकार के फल लगते हैं ।
x. तेदूं (Tendu):
यह मझोले आकार का पर्णपाती वृक्ष है जो पूरे भारत के शुष्क पर्णपाती वनों में पाया जाता है । भारत में इसकी लगभग 50 प्रजातियाँ हैं । इसकी छाल बड़े आयताकार आकारों में उतरती रहती हैं । शाखाएँ घनी छतरी का रूप ले लेती हैं । पत्ते दीर्घवृत्त के और चिकनाईदार होते हैं । नए पत्तों का व्यापक उपयोग बीड़ी बनाने के लिए किया जाता है ।
फल भूरा-पीला होता है और कब्ज पैदा करता है । तेंदू के पत्ते जमा करने के लिए पेड़ के नीचे के झाड़-झखाड़ को जलाना पड़ता है तथा पत्तों तक पहुँचने के लिए शाखाओं को काटना पड़ता है । इससे वन्यजीवन के लिए समस्याएँ खड़ी होती हैं, और सुरक्षित क्षेत्रों के लिए यह एक गंभीर प्रश्न है ।
xi. कटहल (Jack fruit):
यह पेड़ गाँवों के इर्दगिर्द लगाया जाता है और इसका फल बड़ा-सा होता है जो सीधे शाखाओं से फूटता है । इसके फल की छाल काँटेदार होती है । इसका कच्चा फल सब्जी की तरह पकाया जाता है । पक जाने पर यह मीठा, चिपचिपा, चमकता पीला फल बनता है जिसकी तीखी महक होती है ।
xii. फ्लेम आफ द फारेस्ट; टेसू (Butea Monosperma):
यह पेड़ भारत के अनेक भागों में उगता है । जब इसमें पत्ते नहीं होते तब इसमें चमकते नारंगी फूल लगते हैं और इसीलिए यह ‘फ्लेम आफ द फारेस्ट’ कहलाता है । इसके फूल रस से भरे होते हैं और बंदरों को और अनेक रस पर निर्भर पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं ।
xiii. मूँगे का पेड़ (Coral Tree, Erythrina):
यह एक आम पर्णपाती वृक्ष है जो फरवरी में बिना पत्तों का होता है । इसी समय इसमें चमकते सिंदूरी रंग के फूल लगते हैं । मैना, कौवा और शकरखोरा (Sunbirds) जैसे अनेक पक्षी इसके रस का उपयोग करते हैं और ये ही परागण करनेवाले प्रमुख पक्षी हैं । इसकी काली और लंबी फलियों में चमकते भूरे रंग के अनेक बीज होते हैं जो अच्छी तरह उगते हैं । इस पेड़ की नई शाखाओं की कलमें काटकर और लगाकर भी नए पेड़ उगाए जा सकते हैं । यह तेजी से बढ़ता है और आम तौर पर चार-पाँच साल में फल देने लगता है ।
xiv. आमला (Goose Berry) :
यह मझोले आकार का पर्णपाती पेड़ अपने खट्टे, हरे-पीले फल के लिए जाना जाता है जिसमें विटामिन सी भरपूर होता है । इसका उपयोग दवा की तरह, अचार में तथा रंगाई और चर्मशोधन में किया जाता है । इसे अकसर भारत का ‘जैतून’ (Olive) कहा जाता है जिससे यह न तो शक्ल में मेल खाता है और न स्वाद में ।
xv. डिप्टेरोकार्प (Dipterocarp):
इस समूह के पेड़ पश्चिमी घाट के दक्षिणी भाग और पूर्वोत्तर भारत के सदाबहार वनों में उगते हैं जो भारी वर्षा वाले क्षेत्र हैं । यह बहुत ऊँचा होता है और इसका तना मोटा होता है । बीज में पंख जैसे ढाँचों का एक जोड़ा होता है जो इसे दूर-दूर तक फैलने में मदद देता है ।
xvi. क्वर्कस (बाँज, ओक, शाहबलूत):
यह एक बड़ा पेड़ है और आर्थिक महत्त्व की श्रेणी वाले पेड़ों में आता है । इस श्रेणी के अनेक पेड़ अपनी सुंदर आकृति और मौसम के साथ बदलते रंगों के लिए जाने जाते हैं । भारत में इसकी 30-40 प्रजातियाँ हैं जो हिमालय के पूरे शीतोष्ण क्षेत्र में पाई जाती हैं ।
इसका फल बड़ा, कड़ा और एक अकेली गरी (अकॉर्न) होता है । ओक के पेड़ बेहतरीन, और बहुत मजबूत लकड़ी देते हैं जिनका उपयोग कभी जहाज और पुल बनाने के लिए किया जाता था । यह उम्दा फर्नीचर देनेवाली एक मशहूर लकड़ी है । इसकी कुछ प्रजातियाँ उत्तम चारा भी प्रदान करती हैं ।
xvii. चीड़ (Pine):
असली चीड़ की पाँच प्रजातियाँ हैं जो भारत के हिमालय क्षेत्र में पाई जाती हैं । इन पेड़ों की लकड़ी का उपयोग अकसर निर्माण, बढ़ईगीरी और कागज उद्योग में किया जाता है । चीड़ की रेजिन का उपयोग तारपीन, रोजीन, टार और पिच बनाने के लिए किया जाता है ।
चीड़ का तेल पत्तों और कोंपलों के आसवन (Distillation) से प्राप्त होता है । चीड़ के पत्ते पतले और सुई जैसे होते हैं । नर और मादा बीजाणु (Spores) लकड़ी के कोटरों में पैदा होते हैं और हर दाने के दो पंख होने के कारण पराग के फैलने में मदद मिलती है ।
xviii. साइकैस (Cycas):
ये पौधे भारत में आम नहीं मिलते हैं । ये ताड़ जैसे दिखाई देते हैं । शंकुधारी वृक्षों के साथ साइकैस भी अनावृतबीजी (Gymnosperms) हैं । ये सबसे आदिम बीजवाले पौधों में गिने जाते हैं और पिछले 20 करोड़ बरस से (जुरासिक काल से) लगभग अपरिवर्तित रहे हैं । भारत में, खासकर भारी वर्षा वाले क्षेत्र में, इसकी पाँच प्रजातियाँ पाई जाती हैं ।
xix. नारियल (Coconut):
इस लंबे राजसी ताड़ का कमोबेश सीधा तना होता है जिसपर गोल धारियाँ होती हैं, यह अधिकतर समुद्रतटीय मैदानों में उगता है । इसका आधार पतली जड़ों के एक ढेर से घिरा होता है । इसी वृक्ष से जाना-पहचाना नारियल मिलता है जिसमें पानी भरा होता है और नर्म, सफेद, खाने योग्य जेली जैसा गूदा होता है जो फल के पकने पर कड़ा हो जाता है ।
यह भारत और खासकर इसके दक्षिणी राज्यों में भोजन की आम सामग्री है । भारत के तटीय क्षेत्रों और द्वीपों में इसकी व्यापक खेती की जाती है । पेड़ के अधिकांश भागों से अनेक उपयोगी वस्तुएँ मिलती हैं जैसे पत्तों से झाडू और सूखे नारियल से रेशा ।
xx. आर्किड (Orchids):
दुनिया के फूल देनेवाले पौधों का यह सबसे बड़ा समूह है जिसकी 18,000 से अधिक ज्ञात प्रजातियाँ हैं । इनमें से कोई 1500 प्रजातियाँ भारत में मिलती हैं जिसके कारण यह देश के सबसे बड़े पादप परिवारों में से एक है । हमारे यहाँ पूर्वोत्तर राज्यों में 700 प्रजातियों का भारी संकेंद्रण है । ये पौधे धरती पर या किसी सहारे पर फैले झाड़ होते हैं । पौधों के अनेक चमकदार रंग होते हैं और अनेक ढाँचों में भारी अंतर होता है ।
कुछ प्रजातियों में एक पंखुड़ी दूसरी पंखड़ियों से भन्न होती है; उसे होंठ या (Labellum) कहते हैं और यही रंगीन पंखुड़ी परागण करने वाले कीटों को आकर्षित करती है । भारत में आर्किड की प्रजातियों की एक भारी संख्या पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर राज्यों तथा अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह में पाई जाती है । वैसे आर्किड अत्यंत ठंडे या अत्यंत गर्म पारितंत्रों को छोड़कर अनेक पारितंत्री दशाओं में पाए जाते हैं ।
xxi. ड्रोसरा (Drosera):
यह एक छोटा-सा कीटभक्षी पौधा है जो आम तौर पर 5-6 सेमी ऊँचा होता है । इसके बारीक बाल होते हैं जो एक चिपचिपे द्रव की बूँद छोड़ते हैं जिसपर कीड़े चिपक जाते हैं । पत्ती संघर्षरत कीड़े को घेर लेती है और फिर उसे धीरे-धीरे चबा लिया जाता है । पौधे में सुंदर फूल लगते हैं । यह सतही और घटिया दर्जे की मिट्टी में उगता है । यह एक दुर्लभ पौधा है और छोटे-छोटे समूहों में पाया जाता है ।
xxii. कमल (Lotus) :
यह जल में तैरता एक पौधा है जिसकी लंबी जड़ कीचड़ में धँसी होती है । पत्ते गोलाकार, सपाट और मोमी सतह वाले होते हैं जो इसे पानी में सुरक्षित रखते हैं । फूल एक सीधे तने पर खड़ा होता है । उसकी अनेक पंखुड़ियाँ होती हैं जो रंग में गुलाबी बैंगनी से लेकर सफेद तक होती हैं । फल स्पंज जैसा होता है और तिकोना होता है जिसके अंदर अनेक गोल बीज होते हैं ।
नम आवासों में झीलों के छिछले हिस्सों और दलदली क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से उगता है । इसकी जड़ राइजोम (Rhizome), पत्ते, तने (नाल) और बीजों को उम्दा खाद्य पदार्थ माना जाता है । शुष्क सज्जा में भी इसके फल का उपयोग होता है । कमल का फूल भारतीय कला का परंपरागत बिंब रहा है । कमल भारत का राष्ट्रीय पुष्प है ।
xxiii. घास (Grasses):
घास दुनिया में फूल देनेवाले पौधों का दूसरा बड़ा समूह हैं । घास बहुत महत्त्वपूर्ण श्रेणी के पौधे हैं जिनका उपयोग अनेक कार्यों में होता है, जैसे रस्सी या कागज बनाने, छप्पर छाने, तेल, गोंद, दवाएँ और बहुत-सी दूसरी उपयोगी वस्तुएँ पाने के लिए । आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण घास में गन्ना, बाँस तथा धान, गेहूँ, ज्वार-बाजरा और मकई जैसे अनाज शामिल हैं । घास का महत्त्व इस कारण भी है कि ये मवेशियों के लिए चारे का काम करती हैं ।
xxiv. बाँस (Bamboo):
यह बड़ी घास जैसी प्रजातियों का एक समूह है और भारत के अनेक जंगलों में झुंड में काफी ऊँचाई तक उगता है । बाँस अत्यंत उपयोगी होते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में झोपड़े या घरेलू उपयोग की अनेक वस्तुएँ बनाने के काम आते हैं, जैसे टोकरे, खेती के औजार, बाड़ें, घरेलू समान, चटाई आदि । इसकी नई कोंपलें खाने के काम आती हैं । लुगदी और कांगज उद्योग में कच्चे माल के रूप में इसका व्यापक उपयोग होता है ।
बाँस के पौधे दो दशक से अधिक समय बाद फूल देते हैं; फिर वह पौधा मर जाता है । फूल से सैंकड़ों बीज निकलते हैं जिसके कारण धीमी गति से बाँस फिर से उगता है । बाँस हाथियों का तथा वनों के दूसरे बड़े शाकभक्षी प्राणियों, जैसे गौर (gaur) और हिरन का प्रिय भोजन है ।
फसलों के वन्य संबंधी:
हमारे यहाँ आज चावल की जिन प्रजातियों की खेती खाद्यान्न पाने के लिए की जाती है वे सभी धान की जंगली प्रजातियों से मिली हैं । इनमें से अनेक का जन्म भारत, चीन और इंडोनेशिया में हुआ । चावल दुनिया के प्रमुख खाद्य पदार्थों में एक है ।
हालाँकि जंगली प्रजातियों का उपयोग खाने में नहीं होता, फिर भी वे इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि उनमें जो जीन होते हैं उनका उपयोग फसलों में बीमारी या कीड़ों का प्रतिरोध विकसित करने के लिए किया जा सकता है । धान की अनेक स्थानीय प्रजातियाँ पहले ही नष्ट हो चुकी हैं क्योंकि आज अधिकांश किसान केवल भारी उपज देनेवाली किस्मों की खेती कर रहे हैं ।
पशुओं की आम प्रजातियाँ (Common Animal Species):
i. स्तनपायी जीव (Mammals):
हिरनों की आम भारतीय प्रजातियाँ सांभर, चीतल, बारासिंगा और मुंजक हिरन (barking deer) हैं । साँभर छोटे परिवारों में, खासकर पर्वतों के जंगली क्षेत्रों में रहते हैं और मुख्यतः झाड़ियों या नीची टहनियों के पत्ते खाकर रहते हैं । ये गहरे भूर रंग के होते हैं और इनकी बड़ी-बड़ी मोटी सींगें होती हैं जिनमें से हर एक की तीन शाखाएँ होती हैं । चीतल या चित्तीदार हिरन जंगल के खुले भागों में बड़े-बड़े झुंडों में रहते हैं जहाँ वे घास चरते हैं । उनका शरीर जंग जैसा भूरा होता है जिसपर सफेद चित्तियाँ होती हैं; ये उनको जंगल में छिपाकर रखती हैं ।
हर सींग की तीन शाखाएँ होती हैं जिनको नोक (tines) कहते हैं । दुर्लभ हंगुल हिरन केवल कश्मीर में पाया जाता है । इसके सींग काफी सुंदर ढंग से फैले होते हैं और हर सींग की छह शाखाएँ होती हैं । बारासिंगा के चौड़े खुर होते हैं जिनके कारण यह सुंदर पशु तराई के कीचड़दार क्षेत्रों में भी रहता है ।
हर सींग में छह या इससे भी अधिक शाखाएँ होती हैं । छोटा-सा मुंजल हिरन पूरे भारत के अनेक जंगली क्षेत्रों में पाया जाता है । इसके मुँह पर दो उभरे हुए घेरे होते हैं और एक छोटी-सी सींग होती है जिसकी कुल दो शाखाएँ होती हैं । उसकी आवाज कुत्ते की भौंकने जैसी मालूम होती है ।
काला हिरन (Blackbuck) भारत में मिलने वाला अकेला सच्चा हिरन है । यह बड़े झुंडों में रहता है । नर ऊपर से काला और नीचे क्रीम के-से रंग का होता है और उसके सुंदर लहरदार सींग अंग्रेजी अक्षर ‘V’ की शक्ल में होते हैं । चिंकारा को भारतीय गजाल (Gazelle) भी कहते हैं । कुछ छोटा यह प्राणी हल्के भूरे रंग का होता है और इसकी सुंदर टेढ़ी सींगें होती हैं ।
दुर्लभ चौरंगा अर्थात चार सींगों वाला हिरन दुनिया का अकेला प्राणी है जिसकी सींगें होती हैं । नीलगाय शुष्क क्षेत्रों का सबसे बड़ा शाकभक्षी प्राणी है । नर का रंग नीला-धूसर होता है । नीलगाय के पैरों और सर पर सफेद निशान होते हैं और छोटे मगर मजबूत सींग होते हैं ।
भारत में पाया जाने वाला एक बहुत ही विशेष और दुर्लभ प्रजाति जंगली गधा (Indian Wild Ass) है जो कच्छ के रन का स्थानिक प्राणी है । हिमालयी चरागाहों में जंगली बकरियों और भेड़ों की अनेक प्रजातियाँ पलती हैं । इनमें गोरल और हिमालयी ताहर (Tahr) (पहाड़ी बकरा) तो इसी क्षेत्र में ही पाई जाती हैं । दक्षिण भारत की नीलगिरि और अन्नामलाई पहाड़ियों में नीलगिरि ताहर (जंगली बकरा) नाम की एक ही प्रजाति है ।
एक सींग वाला गेंडा आज असम तक सीमित है पर कभी पूरे गंगा के मैदान में पाया जाता था । आज जंगली बैल (गौर) भी तराई तक ही सीमित है । भारतीय हाथी पूर्वोत्तर और दक्षिणी राज्यों में विभाजित है । आवास नष्ट हो जाने और हाथी दाँत के लिए शिकार के कारण आज यह प्रजाति संकट में है । गौर (Gaur) भारत के घने जंगलों वाले अनेक भागों में यहाँ-वहाँ पाया जाता है ।
हमारे जंगलों का सबसे मशहूर शिकारी बाघ है । उसकी सुनहरी और काली धारियाँ उसे घने जंगल में अच्छी तरह छिपाकर रखती हैं । वह सांभर और चीतल जैसे शाकभक्षी प्राणियों के और कभी-कभार पालतू पशुओं के शिकार पर निर्भर है । बाघ महीने में तीन-चार बार ही शिकार करता है ।
उसकी सुंदर खाल तथा उसके दाँतों, पंजों और गलगुच्छों के कल्पित जादुई महत्व के कारण उसका शिकार किया जाता है जिससे बाघों की संख्या गिर गई है । उसकी हड्डियों के कथित चिकित्सकीय मूल्य के कारण जिसका उपयोग चीनी आयुर्विज्ञान में होता है, हाल में उसको बड़े पैमाने पर मारा गया है । एशियाई शेर आज केवल गुजरात के गिरि वन में पाया जाता है ।
चीता तालमेल में बाघ से अधिक समर्थ होता है तथा घने जंगलों में और कटे हुए जंगली क्षेत्रों में भी रहता है । उसकी सुंदर गोल चित्तियाँ उसे इतने उम्दा ढंग से छिपाए रखती हैं कि उसका शिकार उसको चुपके से आते नहीं देख पाता । उससे छोटा जंगली बिल्ला हल्का भूरा प्राणी है तथा चित्तीदार बिल्ला घरेलू बिल्ली से थोड़ा बड़ा होता है । ये बहुत दुर्लभ हैं । हिमालय क्षेत्र का सबसे खास शिकारी बर्फ का चीता है जो बहुत दुर्लभ है । उसकी सुंदर खाल के लिए ही उसका शिकार किया जाता है । यह खाल हल्की धूसर होती है और उस पर कुछ गहरी भूरी, गोलाकार चित्तियाँ होती हैं ।
भेड़िया, गीदड़, लोमड़ी और जंगली कुत्ता (धोल (Dhole)) ‘कैनिड’ (canids) वंश के प्राणी हैं । हिमालयी भेड़िया एक और संकटग्रस्त शिकारी जानवर है । भेड़िये पालतू भेड़ों पर अधिकाधिक निर्भर होते जाने के कारण आज अत्यंत संकटग्रस्त हैं । इस कारण गड़ेरिये भेड़िया के शिकार के लगातार नए तरीके निकालते रहते हैं ।
वनों में वानरों की एक आम प्रजाति बोनेट मकाऊ (Bonnet Macaque) है । इसका लाल मुँह होता है, लंबी पूँछ होती है और खोपड़ी पर बालों का एक गुच्छा होता है जो एक टोप जैसा दिखाई देता हाए । हमारा दूसरा आम बंदर रेसस मकाक (Rhesus Macaque) है जो बोनेट से कुछ छोटा होता है और उसकी पूँछ भी छोटी होती है । सिंह जैसी पूँछ वाला एक दुर्लभ वानर है मकाक (macaque) जो केवल पश्चिमी घाट के दक्षिणी भाग और अन्नामलाई पहाड़ियों में पाया जाता है ।
इसका रंग काला होता है, बाल लंबे होते हैं, धूसर अयाल होता है तथा पूँछ के सिरे पर एक झब्बा (tassel) होता है जो शेर की पूँछ की तरह दिखाई देता है । आम लंगूर का मुँह काला होता है और यह हनुमान वानर कहलाता है । दुर्लभ सुनहरा लंगूर रंग में सोने जैसा पीला होता है और असम में मानस नदी के तट पर रहता है । टोपीदार लंगूर पूर्वोत्तर भारत का एक दुर्लभ प्राणी है । काले रंग का दुर्लभ नीलगिरि लंगूर पश्चिमी घाट के दक्षिणी भाग, नीलगिरि और अन्नामलाई में रहता है ।
ii. पक्षी (Birds):
भारत में विभिन्न आवासों में पक्षियों की 1200 से अधिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं । हमारे अधिकांश जंगली पक्षी कुछ विशेष प्रकार के जंगलों में रहने के अभ्यस्त हैं । पर कुछ हिमालयी प्रजातियाँ पश्चिमी घाट में भी पाई जाती हैं । फलों पर जीने वाले धनेश (Hornbill) की अनेक प्रजातियाँ हैं ।
उनकी चोंच भारी और टेढ़ी होती है और ऊपर की ओर से थोड़ा बाहर की ओर निकली होती हैं । पैराकीट, बार्बेट और बुलबुल जैसे फलाहारी फलों पर जीते हैं और अकसर पीपल और बरगद जैसे फाइकस वृक्षों के फल खाते देखे जा सकते हैं ।
अनेक प्रजातियों के कीटभक्षी परिंदे जंगली कीड़े-मकोड़ों को खाकर जीते हैं । इनमें विभिन्न प्रकार के फ्लाईकैचर्स (Flycatchers), मतेना (Bee-eaters) और अन्य पक्षी शामिल हैं । नर पैराडाइज फ्लाईकैचर एक छोटा-सा सुंदर, सफेद पक्षी है जिसका सर काला होता है और पूँछ में दो लंबे, सफेद पंख होते हैं; इसकी मादा भूरी होती है और उसकी पूँछ में लंबे पंख नहीं होते । चील, फाल्कन और बाज जैसे अनेक शिकारी पक्षी भी होते हैं । आज इनमें से अनेक पक्षी संकटग्रस्त हैं ।
घास के मैदान अनेक पक्षियों को आश्रय देते हैं । सबसे अधिक जोखिमग्रस्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड है । यह लंबे पैरों वाली एक बड़ी और भूरी राजसी चिड़िया है जो टिड्डों (Locusts) और सुग्गों (Grasshoppers) की तलाश में घास के मैदान में फुदकती रहती है । जोखिमग्रस्त पक्षियों में एक और दुर्लभ समूह फ्लोरिकन का है । बटेर (Quails), तीतर (Patridges), लवा (Larks), मुनिया और दूसरे अनाज भक्षी पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ घास के मैदानों में ही रह सकती हैं ।
जलचर पक्षियों की भी अनेक प्रजातियाँ हैं, जैसे वेडर (Wader), गल (Gulls) और टर्नस् (Terns) जो समुद्रतट पर रहती हैं और समुद्र में कई किलोमीटर तक जाकर शिकार करती हैं । इनमें से अनेक पक्षी प्रदूषण के कारण अपने समुद्रतटीय आवासों से वंचित हो चुके हैं । ताजे जल के पक्षियों के लंबे पैर होते हैं । ये जलविनोदी होते हैं, जैसे पनलवा (Stilt), बगुला और सैंडपाइपर्स । दूसरा समूह जल में तैरने वाले पक्षियों का है, जैसे बतखों और हंसों की अनेक प्रजातियाँ ।
पानी या दलदली क्षेत्रों से संबंधित आकर्षक बड़े पक्षियों की अनेक प्रजातियाँ हैं । इनमें स्टार्क (Storks), सारस (Cranes), स्पूनबिल (Spoonbills), हेरन (Herons), फलेमिंगों (Flemingos) और पेलिकन (Pelicans) की अनेक प्रजातियाँ शामिल हैं । अनेक जलचर पक्षी प्रवास भी करते हैं । वे उत्तरी यूरोप या साइबेरिया में प्रजनन करते हैं और जाड़ों में हजारों की संख्या में भारत आते हैं ।
iii. सरीसृप (Reptiles):
भारत में छिपकलियों, साँपों और कछुओं की बहुत अधिक विविधता है । इनकी भारी स्थानीयता (Endemism) होती है । छिपकलियों में बागों में आम मिलनेवाली छिपकलियाँ, गलपंखी छिपकलियाँ, गिरगिट, स्किंक, आम मानीटर और जलचर मानीटर शामिल हैं । सरीसृपों की खालों के व्यापार के कारण इनमें से अनेक प्रजातियाँ आज जोखिमग्रस्त हैं । भारतीय साँपों में अजगर, ग्रास स्नेक और वाइन स्नेक शामिल हैं ।
हम शायद ही इस बात का ध्यान रखते हैं कि साँपों की कुछ प्रजातियाँ ही जहरीली होती हैं, जैसे किंग कोबरा, कोबरा (नाग), करैत और रसेल्स वाइपर, जबकि अधिकांश साँप हानिरहित होते हैं । स्टार कछुआ और त्रावणकोर कछुआ आज दुर्लभ हैं । ओलिव रिडली एक समुद्री कछुआ है और उड़ीसा के तट पर बड़ी संख्या में रहने के लिए पहुँचता है; इस अनोखी घटना को ”अरिबड़ा” (arribada) कहते हैं ।
ताजे जल के कछुओं में फ्लैपशेल, गैंजेटिकस और टेंटेड कछुए शामिल हैं । प्राणियों और अंडों के शिकार के कारण कछुए अधिकाधिक दुर्लभ होते जा रहे हैं । कछुआ हमारा सबसे बड़ा सरीसृप है जिसका शिकार उसकी कीमती खाल के लिए किया जाता है । घड़ियाल मछली खानेवाले मगरमच्छों की एक प्रजाति है । यह भारत की स्थानिक प्रजाति है और बहुत ही संकटग्रस्त है ।
iv. जलथलचारी (Amphibians):
भारत की अधिकांश जलथलचारी प्रजातियाँ फ्राग और टोड (मेंढकों) की है । स्किंक की बस एक प्रजाति हैं; इनमें इंडियन बुलफ्राग, ट्री फ्राग आदि अनेक प्रजातियाँ शामिल हैं । ये प्राणी अधिकतर पूर्वोत्तर भारत और पश्चिमी घाट में पाए जाते हैं । आज ऐसा माना जा रहा है कि विश्वव्यापी उष्णता और पराबैंगनी विकिरण के बढ़ते स्तर कुछ क्षेत्रों में जलथलचारी प्राणियों की संख्या पर गंभीर प्रभाव डाल रहे हैं ।
v. अकशेरुकी (Invertebrates):
इनमें अनेक प्रकार के प्राणी शामिल हैं जो थलीय और जलीय, दोनों तरह के पारितंत्रों में रहते हैं । प्रोटोजोवा और जूप्लैंक्टन जैसे सूक्ष्मजीव जलीय आवासों में खाद्य-शृंखला के आधार हैं । प्रवाल का निर्माण पॉलिप जैसै प्राणियों के समूहों द्वारा किया जाता है । केंचुए, मोलाक (घोंघे), मकड़ी, केकड़े, जेलीफिश, आक्टोपस आदि भारत में कुछ अधिक ज्ञात अकशेरुकी प्राणी हैं ।
पृथ्वी पर वैज्ञानिकों को ज्ञात कीट प्रजातियाँ दस लाख से ऊपर हैं । इनमें सुग्गे (Grasshoppers), खटमल (Bugs, Beetles), चींटियाँ, मधुमक्खियाँ, तितलियाँ और पतंगें शामिल हैं । तितलियों और पतंगों की प्रजातियाँ भारत में काफी हैं ।
समुदी जीवन (Marine life):
अकसर बेहतर समुद्री पारितंत्रों का संबंध मछलियों और झींगों से जोड़ा जाता है जिनको हम खाते हैं । संकटग्रस्त दूसरी प्रजातियों में शामिल हैं समुद्री कछुए जो सरीसृप हैं और ह्वेलें जो स्तनपायी हैं । भारत की नदियों और झीलों में ताजे पानी में रहनेवाली अनेक प्रजातियाँ हैं । बाहर से मछलियों के आयात के कारण और एक नदी की मछलियों को दूसरी नदी में डाले जाने के कारण ये आज संकटग्रस्त हैं । आज प्रदूषण का मछलियों पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है ।
हमारे तटीय क्षेत्रों में समुद्री मछलियों का आवश्यकता से अधिक शिकार किया जा रहा है और पिछले कुछ वर्षों में मछलियों की पैदावार काफी घट गई है । विशाल, छोटी-छोटी गाँठों वाली जाल सहित यंत्रचालित नावें इस संसाधन के कम होने का प्रमुख कारण हैं । आज मछलियों की अनेक प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं, जैसे महशीर जो कभी एक मीटर तक लंबी हुआ करती थी । हिंद महासागर में रहनेवाले समुद्री प्राणियों की अनेक प्रजातियाँ जैसे ह्वेल, शार्क और डॉल्फिन गहरे समुद्र में होनेवाले शिकार के कारण खत्म होने के करीब हैं ।