राजनीति का नैतिक पतन पर अनुच्छेद । Article on Demoralization of Politics in Hindi Language!
भारत एक सशक्त लोकतंत्र के रूप में जाना जाता । भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों को यदि थोड़ा आघात भी पहुँचता है तो उसका प्रभाव केवल भारतीय जनता पर ही नहीं अपितु विश्व की समुचित लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पड़ता है ।
स्वतंत्रता के बाद पहले तीन आम चुनावों तक लगता था मानो भारत में लोकतंत्र अपनी जड़ें पकड़ चुका है किंतु 1967 के बाद के निर्वाचनों ने इस धारा का खंडन कर दिया और इसके बाद क्रमश: भारतीय राजनीति का नैतिक एवं चारित्रिक पतन स्पष्ट लक्षित होने लगा ।
लोकतंत्र को राजनीतिक दलों से ही जीवन मिलता है । बिना राजनीतिक दलों के हम लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं कर सकते । भारत की समकालीन परिस्थितियाँ भिन्न हैं । भारत में राजनीतिक दलों का गठन सिद्धांतों पर आधारित होता है । किंतु ! शीघ्र ही ये सिद्धांतों को छोड़कर व्यक्तिवाद की ओर उन्मुख हो जाते हैं ।
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नेतृत्व प्रदान करने वाला भी अपने दल के सदस्य की स्वयं के प्रति प्रतिबद्धता पर अधिक ध्यान देता है । आज हमारे राजनीतिक नेताओं का इतना चारित्रिक पतन हो चुका है कि वे अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए राष्ट्र के हित को भी भूल जाते हैं । राजनेताओं के इस आचरण का सीधा प्रभाव आम जनता पर पड़ता है ।
वर्तमान में भारतीय राजनीति का जो स्वरूप दिखाई देता है उसके लिए हमारे राजनेताओं का व्यक्तिगत आपराधिक चरित्र जिम्मेदार हैं । राजनीति का अपराधीकरण पिछले कुछ वर्षो के दौरान होना आरंभ हुआ । इसका वास्तविक रूप हमें इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान देखने को मिला जब राजनीति में व्यक्तिवाद के विरोधियों को लोकतंत्रीय मूल्यों से परे अनावश्यक रूप से जेल में बंद किया गया ।
इन्हीं दिनों राजनीति में ऐसे लोगों का पदार्पण हुआ जो अपने मित्रों एवं संबंधियों की निकटता और संपर्क से सत्ता तक पहुँच गए । इनमें से कई तो मंत्री पद तक पहुँचे । उन्हें राजनीति का कुछ भी नहीं पता था । आज हमारे देश की संसद से लेकर विधानसभाओं तक अनगिनत ऐसे लोग हैं जिनका पिछला रिकार्ड आपराधिक है ।
कुछ तो ऐसे हैं जिन पर दर्जनों आपराधिक मामले लंबित पड़े हैं । ऐसे अपराधियों को सत्ता तक पहुँचाने में मतदाता वर्ग का भी पूरा योगदान होता है । मतदाता वर्ग प्रत्याशी के अपराधों को जानता है लेकिन वह भावनाओं में बहकर बिना किसी सोच-विचार के उस आपराधिक छवि वाले प्रत्याशी को अपना कीमती मत दे देते हैं जबकि ऐसे समय में भावनाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए ।
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हमारा संविधान तब तक किसी को अपराधी नहीं मानता, जब तक कि उस पर अपराध सिद्ध न हो जाए । प्रत्याशी इसी का फायदा उठाते हैं और दोष सिद्ध होने पर उसकी अपील उच्च स्तर के न्यायालय में कर देते हैं । इस प्रकार अपील के निस्तारण तक उनका दोष सिद्ध होना लंबित हो जाता है ।
विधि व्यवस्था के इस तकनीकी दोष का लाभ उठाकर अनगिनत अपराधी विधि निर्माता बनकर संसद अथवा विधान सभाओं में मंत्री पद पर आसीन हैं । स्वतंत्रता के बाद आर्थिक विकास हुआ, जिसने संपूर्ण भारतीय समाज को भौतिकवादी बना दिया । व्यक्ति की भौतिक सुखों के प्रति लालसा इतनी तीव्र हो गई कि उसका चारित्रिक पतन हो गया ।
वे अपने स्वार्थ और हित के लिए देश के लोगों के हित को भूल गए । आज भारतीय राजनीति की पवित्रता नष्ट होने लगी है । हमारे नेता केवल अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगे हुए हैं उनका भ्रष्टाचार में लिप्त होना और अनैतिक कार्यों को करना उनका राष्ट्रीय आचरण कहलाया जाने लगा है ।
हमारे नेताओं की इन स्वार्थपरक नीतियों के कारण ही नौकरशाही का भी नैतिक पतन हुआ । स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में राजनीति की स्थिति ऐसी नहीं थी लेकिन इसके बाद स्वार्थी राजनीतिज्ञों का वर्चस्व भारतीय नौकरशाही पर लगातार बढ़ता ही चला गया ।
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लोलुप एवं नैतिकता विहीन राजनेताओं के कारण भारतीय नौकरशाही प्रभावहीन हो गई । लोकतंत्र की सफलता के लिए बेहद जरूरी है कि शासक और शासित के बीच परिपक्व एवं मधुर संबंध हो किंतु आज हमारे राजनेताओं के भ्रष्टाचार में लिप्त होने और उनका चारित्रिक पतन होने से ऐसा होना असंभव है ।
आजकल चुनावों में व्यक्ति की महत्ता की बजाय धन की महत्ता अधिक प्रदर्शित हुई है । निर्वाचन में धन के प्रभाव से भ्रष्टाचार का जन्म होता है । भारत में लोकतांत्रिक प्रणाली है और एक लोकतांत्रिक प्रणाली में निर्वाचन ही विभिन्न दलों की शक्ति एवं स्वरूप को तय करता है, जो आगे राष्ट्रहित से जुड़ा होता है ।
भारतीय राजनीति में अराजनीतिक, असामाजिक तथा असंवैधानिक तत्वों का प्रभाव बढ़ा है । निर्वाचन की पूरी प्रक्रिया काले धन के प्रभाव में आ चुकी है । लोकतंत्र के लिए चुनाव एक आवश्यक अंग है । चुनाव की अनिवार्यता के कारण भारत में चुनावी राजनीति का विकास हुआ ।
सत्ता तंत्र में जनता के प्रतिनिधि के बजाय व्यक्तिगत प्रभाव को अधिक महत्व दिया जाने लगा । भारतीय लोकतंत्र में राजनीति के नैतिक पतन के लिए केवल राजनेता ही नहीं बल्कि जनता, जनप्रतिनिधि, प्रशासक, व्यापारी, उद्योगपति सभी समान रूप से उत्तरदायी हैं ।
इन लोगों में राजनेताओं के राजनीतिक चरित्र पर खुलकर चर्चा करने का साहस है किंतु इतना साहस नहीं कि हम उन्हें दंडित करने के लिए सामूहिक रूप से आवाज उठा सकें । चुनाव के समय हम भावनाओं में बहकर गलत व्यक्ति को मत दे देते हैं, जिसका परिणाम हमें राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार के रूप में भुगतना पड़ता है ।