साम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रीयता । “Communalism and Nationalism” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. साम्प्रदायिकता की पृष्ठभूमि ।
3. वर्तमान साम्प्रदायिकता के कारण ।
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4. साम्प्रदायिकता का निवारण ।
5. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
प्रत्येक व्यक्ति की एक जाति विशेष होती है । मनुष्य भी समाज से ही बंधा हुआ जीव है । समाज से सम्प्रदाय तथा सम्प्रदाय से ही साम्प्रदायिकता का उद्गम हुआ है । इस प्रकार साम्प्रदायिकता वह विचार शैली या दर्शन है, जो सम्प्रदाय विशेष के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता का द्योतक है ।
साम्प्रदायिकता की भावना न तो नैतिक है और न राष्ट्र के प्रति द्वेष है । परन्तु आज साम्प्रदायिकता एक अभिशप्त शब्द बन गया है । धर्म विशेष के प्रति प्रतिबद्धता साम्प्रदायिकता नहीं है, परन्तु एक धर्म को अन्य धर्मो से श्रेष्ठ मानना या धार्मिक विभेद को ही आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विभेद का आधार मान लेना निश्चित रूप से साम्प्रदायिकता का विकृत रूप है ।
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इसका जन्म प्राय: अन्य सम्प्रदायों के प्रति भय और शंका के कारण होता है । जिस प्रकार एक राष्ट्र विभिन्न तत्त्वों के संयोजन से निर्मित होता है, उसी प्रकार इसका जन्म एवं पल्लवन धार्मिक, राजनीतिक व सामान्य नागरिक के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग द्वारा किया जाता है ।
एक विद्वान् के अनुसार ”साम्प्रदायिकता आज भारतीय एकता व अखण्डता के मनोरम और सायास निर्मित स्वप्न को खण्डित करने का प्रयास कर रही है । साम्प्रदायिकता धर्म से जुड़ी हुई वह राजनीतिक विधा है, जो किसी भी राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता को नष्ट कर सकती है ।”
2. साम्प्रदायिकता की पृष्ठभूमि:
आज साम्प्रदायिकता एक ज्वलन्त समस्या है । इसका हल तो शायद कुछ हद तक सम्भव है; क्योंकि आज यह जिस तरह से अपना फैलाव बढ़ा रही है, उसे देखकर लगता है कि आने वाले समय में सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभरकर सामने आयेगी ।
साम्प्रदायिकता का इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता से आरम्भ होता है । सर्वप्रथम आर्य व अनार्य संघर्ष, इसके बाद आर्य व द्रविड़ समस्या, हिन्दू बौद्ध व जैन मतावलम्बियों के मध्य प्रकृतिस्पर्धा, हीनयान व महायान श्वेताम्बर-दिगम्बर, वैष्णव व शैव समस्या आदि ।
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अब तो बात यहां तक पहुंच गयी है कि सामूहिक अत्याचार करते हुए लोगों के हाथ नहीं कांपते । भारत के गुजरात प्रान्त में ‘गोधरा काण्ड’ तथा भिवंडी, मुरादाबाद आदि शहरों में आकर साम्प्रदायिकता स्थिर-सी हो गयी थी ।
भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता के तत्त्व उस समय पुन: उभरे, जब भारत के उत्तर पश्चिमी भाग में मुसलमानों का शासन था और हिन्दू-मुसलमान के मध्य घृणा एवं द्वेष की नींव पड़ गयी । फिर अंग्रेजी शासनकाल में यह समस्या और अधिक जटिल हो गयी; क्योंकि अंग्रेजी शासन के पास ”फूट डालो व राज्य करो” की नीति थी । इस हथियार के जरिये साम्प्रदायिकता को और अधिक बढ़ावा देने लगे ।
यह तो एक सबसे बड़ा प्रश्न है कि भारत में आने वाली सभी जातियां प्राय: भारतीय समाज के साथ एकीकृत हो गयीं, परन्तु मुसलमान भारत में क्यों घुल-मिल नहीं पाये ? मुख्यत: साम्प्रदायिकता को मजबूत नींव मुसलमानों ने प्रदान की ।
इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि इस्लाम एकेश्वरवादी है और वह बहुदेवोपासक धर्म एवं समाज को काफिर कहता है तथा उसके विरुद्ध जेहाद का नारा लगता है । दूसरा कारण, मुसलमान मूर्तिपूजा का कट्टर विरोध करते मैं । इसी कारण मुसलमान भारतीय समाज में घुल-मिल न सके ।
3. वर्तमान साम्प्रदायिकता के कारण:
वर्तमान साम्प्रदायिकता का स्वरूप अत्यधिक उलझा हुआ बन गया है । हिन्दू मुसलमानों की साम्प्रदायिकता तो है ही, साथ-साथ वर्गगत साम्प्रदायिकता भी बन गयी है; क्योंकि आज हर वर्ग अपने अधिकारों को लेकर सड़क पर उतर आता है और अधिकार नहीं मिलने पर तोड़फोड़, दंगा-फसाद आदि करके तनाव का माहौल बना देता है ।
इस कारण साम्प्रदायिकता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है और इसको हल करने का कोई ठोस कदम आज के राजनीतिज्ञों के पास नहीं है । साम्प्रदायिकता का उद्दाम सन 1947 में भारत को स्वतन्त्रता प्राप्ति के अवसर पर धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों की परिकल्पना को साकार करते हुए देश के विभाजन के समय हुआ ।
उस समय महात्मा गांधीजी ने कहा था कि ”इस विभाजन के साथ जाति या धर्म के नाम पर विभाजन का अनन्त क्रम चल पड़ेगा ।” और उनके बाद की स्थिति भी वैसे ही अलगाववादी होती चली गयी और इसी अलगाववाद के फलस्वरूप 3-4 नये राज्य बन गये ।
4. साम्प्रदायिकता का निवारण:
साम्प्रदायिकता का जहर आज पूरे भारतवर्ष में फैला हुआ है । इसको रोकने का उपाय करना बहुत जरूरी हो गया है । साम्प्रदायिकता के मोटे तौर पर तीन कारण दिखाई पड़ते हैं: 1. धर्म पर आधारित साम्प्रदायिकता, 2. जाति पर आधारित साम्प्रदायिकता और 3. भाषा पर आधारित साम्प्रदायिकता ।
इन तीनों कारणों को साथ लेकर ही सरकार को दूसरा निदान करना चाहिए । औद्योगिक प्रगति का लाभ सबको मिले, नियोजन इस प्रकार किया जाये कि बेरोजगारी दूर हो तथा उत्पादन शक्ति बड़े । राजनीति के सन्दर्भ में धर्म व जाति के नाम पर वोट मांगना दण्डनीय अपराध माना जाये ।
धर्म की राजनीति खेलने के बजाय राजनीतिकों को धर्माश्रित बनाया जाये । जनता को शुद्ध व ईमानदार राजनीति के प्रति प्रेरित किया जाये । धर्म की चर्चा छोड्कर दोनों धर्म को समान रूप से मिलाने का प्रयास किया जाये । भारत सरकार द्वारा अपने कानूनों में संशोधन करके एक जैसा कानून पास किया जाये; क्योंकि यदि कानून ही अलग-अलग होगा, तो वे भी अपने आपको अलग समझेंगे ।
अत: समान कानून सबके लिए लागू हो । भारत सरकार द्वारा सभी को विकास के समान अवसर प्रदान किये जायें । इसके लिए पिछड़ा वर्ग की उपेक्षा करने वाली नीतियों पर बन्दिशें लगाई जायें । उन कारकों को दूर किया जाये, जिनके कारण हिन्दु-मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलता है । भारत देश में अराजकता का प्रचार करने वाले विदेशी हाथों को निमर्मतापूर्वक काट देना चाहिए ।
हमें हमेशा इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद का सम्बन्ध धर्म अथवा सम्प्रदाय के साथ नहीं होता और उसकी भावभूमि आस्थाओं पर निर्मित होती है । वर्तमान चुनाव में प्रत्याशी और राजनीतिक दल सामूहिक मत प्राप्त करने के लिए जाति, बिरादरी, सम्प्रदाय, भाषा, धर्म आदि की दुहाई देते हैं ।
इसी कारण लोकतन्त्र के विघटन की प्रक्रिया बलवती होती जाती है । इसको रोकने का उपाय है कि राष्ट्रभाषा व राष्ट्र भावना को उजागर एवं प्रबल किया जाये ।
5. उपसंहार:
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में एकता व अखण्डता बनाये रखने की आवश्यकता बलवती हो गयी है । वास्तव में अपनी अखण्डता को बनाये रखना चाहते है तो हमें उन कारकों का सामना व निदान करना पड़ेगा, जिसके फलस्वरूप साम्प्रदायिकता का जन्म होता है ।
भारत के वर्तमान में राष्ट्रवाद की यहां आवश्यकता है कि भारत के सभी नागरिकों को अपनी आस्थाओं का केन्द्र भारत माता की आस्था होगी । अपने-अपने धार्मिक विश्वासों के प्रति आस्था रखते हुए अन्य धर्मो को भी सम्मान की दृष्टि से देखना होगा, तभी राष्ट्र देवोभव की मान्यता सही होगी और साम्प्रदायिकता की भावना समूल नष्ट होगी ।