सबै दिन जात न एक समान । “All Days are Alike” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. संसार की परिवर्तनशीलता ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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संसार परिवर्तनशील है । इस संसार में प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है । यह समस्त प्रकृति परिवर्तन का ही रूप है । प्रातःकाल उदित होने वाला सूर्य सख्या होते ही अस्त हो जाता है । बाग में खिले हुए फूल समय के साथ मुरझा जाते हैं । इस संसार की परिवर्तनशीलता पर कविवर पंत ने कहा है: अरे! ओ निष्ठुर परिवर्तन । तुम्हारा ही कराण विर्वतन, विश्व का परिवर्तन ।
2. संसार की परिवर्तनशीलता:
मनुष्य के जीवन में सुख-दु:ख, लाभ-हानि, यश-अपयश, जय-पराजय, आशा-निराशा आदि का आना-जाना परिवर्तन की ही प्रक्रिया है । जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था से होकर अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । संसार नश्वर है । मनुष्य की देह नश्वर है । कबीर ने संसार की परिवर्तनशीलता पर कहा है:
यह संसार कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ । काल ही जो देखा मण्डपै, आज मसानै दीठ ।। अर्थात् यह संसार निस्सार है, परिवर्तनशील है । क्षण में खारा, अर्थात् दुखदायी । क्षण में मीठा, अर्थात् सुखदायी प्रतीत होता है ।
इस संसार की परिवर्तनशील गति ऐसी है कि जिस व्यक्ति को हम विवाह मण्डप में दूल्हे के रूप में कल खुशियां मनाते देख रहे थे, आज वह श्मशान घाट में चिता में जलता हुआ दिखाई देता है ।
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कवि पंत ने कहा है: मैं नहीं चाहता चिरसुख, मैं नहीं चाहता चिरदुःख । जीवन की आखमिचौली में, खोले जीवन अपना मुख ।।
हमें अपने जीवन में सुख और दुःख को समान महत्त्व देना चाहिए; क्योंकि आशा के बाद निराशा, उत्थान के बाद पतन होता ही रहता है । इस परिवर्तन के कारण ही आज मनुष्य समाज आदिम सभ्यता से मनुष्य सभ्यता तक आ पहुंचा है ।
कभी ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला धर्मगुरु के नाम से विख्यात हमारा भारत देश आज कितना बदल गया है । यह भाग्य की परिवर्तनशीलता रही है कि संसार में बड़े-बड़े सन्त-महात्माओं को दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख के दिन देखने पड़े ।
चाहे वह भगवान श्रीराम को मिला हुआ वनवास हो या हरिश्चन्द्र की ली हुई सत्य परीक्षा हो, नल-दमयन्ती का बिछोह हो । सभी परिवर्तन का ही रूप है । हर प्रलय के बाद विध्वंस होता है । उसके बाद सृष्टि का नवसृजन होता है । कहा गया हैं-सर्वे दिन जात न एक समान ।
3. उपसंहार:
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प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में इस सत्य को ध्यान में रखना चाहिए कि परिवर्तन का दूसरा नाम ही संसार है । संसार में सुख-दुःख, आशा-निराशा, जीवन-मरण का आना-जाना तो चलता रहता है । भगवान कृष्ण ने गीता में लिखा है: “सुख-दुःखे समे कृत्या लाभालाभौ जयाजयो । मय्युर्पितमनोबुद्धिर्भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ।”
अर्थात जो व्यक्ति सुख-दु:ख, लाभ-अलाभ, जय-अजय में अपनी बुद्धि को समान रखता है, वही मुझे प्रिय है । इस प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह सभी परिस्थितियों में स्थितप्रज्ञ रहकर अपने जीवन में विकास
करे ।