जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नही वह हृदय नहीं है, पत्थर है जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।” विश्व में ऐसा तो कोई अभागा ही होगा जिसे अपने देश से प्यार न हो । मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी अपने देश या घर से अधिक समय तक दूर नहीं रह पाते ।
सुबह-सवेरे पक्षी अपने घोसले से जाने कितनी दूर तक उड़ जाता है दाना-दुनका चुगने के लिए पर शाम ढ़लते ही चहचहाता हुआ वापस अपने घोसले में लौट आया करता है । एक नन्ही-सी चींटी अपने बिल से पता नहीं कितनी दूर चली जाती है उसे भी अपने नन्हे और अदृश्य से हाथों या दाँतों में चावल का दाना दबाए वापस लोटने को बेताब रहती है ये उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी तक स्वदेश-प्रेमी हुआ करते हैं देश अपने आप में होता एक भू-भाग ही है ।
उसकी अपनी कुछ प्राकृतिक और भौगोलिक सीमाए तो होती ही हैं कुछ अपनी विशेषताएँ भी हो सकती है बल्कि अनावश्यक रूप से हुआ ही करती है । वहाँ के रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, भाषा और बोलचाल, धार्मिक-सामाजिक विश्वास और प्रतिष्ठान, संस्कृति का स्वरूप और अंतत: व्यवहार सभी कुछ अपना हुआ करता है ।
यहाँ तक कि पर्वत, नदियाँ झरने तथा जल के अन्य स्रोत, पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ तक अपनी हुआ करती हैं । देश या स्वदेश इन्हीं सबसे समन्वित स्वरूप को कहा जाता है । इस कारण स्वदेश प्रेम का वास्तविक अर्थ उस भू-भाग विशेष पर रहने और मात्र अपने विश्वासों और मान्यताओं के अनुसार चलने-मानने वालों से प्रेम करना ही नहीं हुआ करता बल्कि उस धरती के कण-कण से धरती पर उगने वाले
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पेड़-पौधों, वनस्पतियों, पशु-पक्षियों और पत्ते-पत्ते या ज़र्रे से प्रेम हुआ करता है ।
जिसे अपनी मातृभूमि से स्नेह, वह तो मनुष्य कहलाने लायक ही नहीं है । जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है वह नर नहीं है, पशु गिरा है, और मृतक समान है ।” श्री राम ने अपने छोटे भाई लक्षमण को कहा था कि मुझे यह सोने की लंका भी स्वदेश से अच्छी नहीं लगती । माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान लगते हैं ।
”अपिस्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते जननी जन्मभूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी ।” उपर्युक्त पंक्तियों में श्री राम ने स्वदेश का महत्व स्पष्ट किया है । यदि माँ हमें जन्म देती है तो मातृभूमि अपने अन्न-जल से हमारा पालन-पोषण करती है । पालन-पोषण मातृभूमि वास्तव में स्वर्ग से भी महान है । यही कारण है कि स्वदेश से दूर जाकर व्यक्ति एक प्रकार की उदासी और रूगणता का अनुभव करने लगता है ।
अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता और रक्षा के सामने व्यक्ति अपने प्राणों तक का महत्व तुच्छ मान लेता है । अपना प्रत्येक सुख-स्वार्थ, यहाँ तक कि प्राण भी उस पर न्योछावर कर देने से झिझकना नहीं । बड़े से बड़ा त्याग स्वदेश प्रेम और उसके मान सम्मान की रक्षा के सामने तुच्छ प्रतीत होता है ।
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जब देश स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष कर रहा था । तब नेताओं का एक संकेत पाकर लोग लाठियाँ-गोलियाँ तो खाया-झेला ही करते थे, फांसी का फंदा तक गले में डाल झूल जाने को तैयार रहा करते थे अनेक नौजवान स्वदेश प्रेम की भावना से प्रेरित होकर ही जेलों में सड़ गल गए फांसी पर लटक गए और देश से दर-बदर होकर काले पानी की सजा भोगते रहे ।
स्वदेश प्रेम वास्तव में देवी-देवताओं और स्वयं भगवान की भक्ति-पूजा से भी बढ्कर महत्वपूर्ण माना जाता है । घर से सैकड़ों-हजारों मील दूर तन की हड्डियों तक को गला देने वाली बर्फ से ढकी चोटियों पर पहरा देकर सीमाओं की रक्षा करने में सैनिक ऐसा कुछ रुपये वेतन पाने के लिए ही नहीं किया करते बल्कि उन सबसे मूल में स्वदेश-प्रेम की अटूट भावना और रक्षा की चिंता भी रहा करती है ।
इसी कारण सैनिक गोलियों की निरंतर वर्षा करते टैंकों-तोपों के बीच घुसकर वीर सैनिक अपने प्राणों पर खेल जाया करते हैं । स्वदेश प्रेम की भावना से भरे लोग भूख-प्यास आदि किसी भी बात की परवाह न कर उस पर मर मिटने के लिए तैयार दिखाई दिया करते हैं ।