मानव समाज की शुरुआत के साथ ही सामाजिक जीवन और कार्यकलापों को व्यवस्थित और विनियमित करने के लिए एक आदेशात्मक सत्ता की आवश्यकता को पहचान लिया गया है । एक आदेशात्मक सत्ता की उपस्थिति में ही मानवीय व्यवहार और कार्यों को सामाजिक हितों की पूर्ति और परिपोषण के उद्देश्य से नियंत्रित किया जा सकता था ।
राज्य की उत्पत्ति और राजकीय प्रभुसत्ता के क्रमिक विकास के पश्चात मानव समाज में शासन तंत्र के प्रति निष्ठा में स्वाभाविक रूप से वृद्धि होती गयी । इसके परिणामस्वरूप राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में आए । यद्यपि राष्ट्र-राज्यों का अस्तित्व मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में अनिवार्य रूप से मिलता है लेकिन इसके बावजूद भी ये संपूर्ण मानव जाति के हितों को अभिव्यक्ति देने में असफल रहे हैं । इसी बिंदु पर आकर हमारे मन में विश्व सरकार का आदर्शात्मक विचार जन्म लेता है । प्राचीन काल से ही संपूर्ण विश्व के लिए एक शासन सत्ता की कल्पना को साकार करने हेतु प्रयास होते रहे हैं ।
ऐसा करने का प्रयास करने वाले लोगों में एक ओर सिकंदर जैसे साम्राज्यवादी लोग थे जिन्होंने शक्ति और दमन के माध्यम से विश्व को एक शासन सत्ता के अंतर्गत लाने का प्रयास किया था तो दूसरी ओर हमारे प्राचीन भारतीय दार्शनिक थे जिन्होंने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा के माध्यम से शांति और सहयोग पर आधारित एक आदर्श विश्व समाज की कल्पना प्रस्तुत की, जो अंततोगत्वा विश्व सरकार की आधुनिक अवधारणा का आधार बन गई ।
बाद के कालों में साम्राज्यवादी समाजवाद अधिनायकवाद तथा लोकतंत्रवाद जैसे विभिन्न आधारों पर विश्व सरकार की विभिन्न रूपरेखाएँ तैयार की गई । नेपोलियन, मुसोलिनी तथा हिटलर आदि शक्ति, दमन और उत्पीडन के माध्यम से विश्व को एक शासन प्रणाली के अंतर्गत लाना चाहते थे ।
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समाजवादी तथा साम्यवादी चिंतकों ने समतापूर्ण समाजवादी विश्व राज्यमंडल को एक आदर्श के रूप में रेखांकित किया । उदारवादी और लोकतंत्रवादी विचारकों तथा नेताओं द्वारा शांति सहयोग और सामंजस्य पर आधारित एक ऐसी विश्व सरकार का विचार प्रस्तुत किया गया, जो मानवीय गरिमा तथा सामाजिक व आर्थिक विकास को पोषित और संरक्षित करने में सहायक सिद्ध हो सके ।
एच.जी, वेल्स, क्लेरेंस स्ट्रीट, अल्फेड टेनीसन और लॉस्की जैसे विद्वानों ने समय-समय पर विश्व सरकार के विचार को ऊर्जा और रूप-रेखात्मक ढाँचा प्रदान किया । संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की स्थापना से विश्व को एक शासन सूत्र में बाँधने की कल्पना को प्राणवायु प्रदान की है ।
वास्तव में व्यक्ति के जीवन पर राष्ट्र का अधिकार होता है, अत: राष्ट्रहित में जो व्यक्ति अपना समय व्यतीत करता है उसका जीवन सार्थक हो जाता है । इसलिए प्रत्येक देशवासी को अपने दैनिक कार्यक्रम में से राष्ट्रसेवा समाजसेवा के लिए समय अवश्य निकालना चाहिए ।
प्रत्येक मनुष्य को अपने समय का श्रेष्ठतम उपयोग करना चाहिए ताकि देश समाज और मानव-जाति के कल्याण में वह अपना योगदान सुनिश्चित कर सके ।विश्व सरकार के समर्थक मानते हैं कि अपनी संप्रभुता को संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत स्वेच्छा से सीमित करने के लिए राजी होने वाले राष्ट्र-राज्य भविष्य में विश्व सरकार का अंग बनने के लिए सहमत हो सकते हैं ।
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आज परमाणु युद्ध की आशंकाओं संचार प्रौद्योगिकी के विश्वव्यापी प्रसार बढ़ती हुई आर्थिक निर्भरता, राजनीतिक चेतना के विस्तार और शांति व आपसी सहयोग की जरूरतों के कारण विश्व के विभिन्न राष्ट्र तथा लोग एक-दूसरे के निकट आ खड़े हुए हैं ।
ऐपेक, यूरोपीय संघ जैसे क्षेत्रीय संगठनों का बढ़ता प्रभाव और विभिन्न सामाजिक तथा आर्थिक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की बढ़ती हुई जिम्मेवारियाँ तथा कार्यक्षेत्र विश्व सरकार के प्रति बढ़ती हुई चेतना का संकेत देते
हैं । पृथ्वी पर पर्यावरण संबंधी संकटों तथा भूमंडलीकरण की प्रवृत्तियों ने भी जनता और राष्ट्रों को विवश किया है कि वे राष्ट्रीय सीमाओं को लांघकर सामूहिक प्रयास करें ।
शिक्षा, साहित्य व कला, सिनेमा, रेडियो, टेलीविजन, कम्प्यूटर तथा इंटरनेट आदि के कारण भी विश्व जनमानस में व्यक्तिगत और सामूहिक स्तर पर एकात्मकता का भाव जागा है । एकात्मकता का यह भाव विश्व समाज तथा आगे चलकर विश्व सरकार के गठन की आधारशिला रखने के लिए जरूरी है ।
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किंतु इसी के साथ कुछ ऐसे भी कारक हैं, जो विश्व सरकार की कल्पना को पूर्णता के बजाय निराशा के गर्त में धकेलने का काम कर रहे हैं । क्षुद्र राष्ट्रीय स्वार्थ, अलगाववाद का प्रसार, धार्मिक और जातीय कट्टरता तथा भेदभाव विश्वव्यापी आतंकवाद, रंगभेद, अमीर और गरीब वर्ग के बीच बढ़ता वैमनस्य, छोटे-बड़े अनेक राष्ट्रों द्वारा परमाणु शक्ति का अधिग्रहण आदि ऐसे अनेक कारक हैं, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विश्व सरकार के गठन के विचार या कल्पना को यथार्थ में बदलने से रोक रहे हैं ।
इन बातों के अलावा विश्व सरकार के विचार के साथ अनेक शंकाएँ व आशंकाएँ भी जुड़ी हुई हैं । ये आशंकाएँ विश्व सरकार के भविष्य के प्रति संशय का भाव उत्पन्न करती हैं । जिस प्रकार कुछ शक्तिशाली देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ को अपनी स्वार्थपूर्ति के साधन के रूप में प्रयुक्त किया है, उसी प्रकार विश्व सरकार भी शक्तिशाली राष्ट्रों के हाथों की कठपुतली बन सकती है ।
विश्व सरकार के माध्यम से धार्मिक, जातीय और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का पूर्ण रूप से उन्यूलन किया जा सके, ऐसी संभावना कम ही है । नीति-निर्धारण और नियमन, कार्य व दायित्व विभाजनों, प्रतिनिधित्व के सिद्धांतों, लाभ वितरण, शक्ति प्रयोग तथा नीति-क्रियान्वयन संबंधी पारंपरिक विवादों तथा भेदभावों की संभावना को पूरी तरह टालना असंभव ही होगा ।
विभिन्न क्षेत्रीय, स्थानीय, राष्ट्रीय, धार्मिक, जातीय तथा राजनीतिक निष्ठाएँ सदियों से मानव-मस्तिष्क में जड़ें जमाए हुए हैं, इन्हें विश्व चेतना के धर्म में पिरोकर विश्व सरकार रूपी माला का निर्माण करना एक बहुत ही कठिन काम है ।
लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आदर्शों और स्वप्नों के धरातल पर ही यथार्थ की नींव रखी जाती है । अत: जब तक विश्व सरकार बनाने का स्वप्न रहेगा, तब तक उसे यथार्थ रूप में बदलने के प्रयत्न भी किए जाते रहेंगे ।
विश्व सरकार की स्थापना से पहले विश्व समाज के विचार को मूर्त रूप दिए जाने की आवश्यकता है । विश्व समाज की स्थापना संवैधानिक, कानूनी या सहकारी साधनों द्वारा करना संभव नहीं है । विश्व के लोगों में विश्व समाज के निर्माण की प्रबल चेतना और भावना के प्रसार द्वारा ही विश्व सरकार की सफलता को सुनिश्चित किया जा सकेगा ।
सभी प्रकार के संकीर्ण स्वार्थों के पूर्ण उन्मूलन के पश्चात ही विश्व संसद के कार्यो का संचालन सुचारु और प्रभावी ढंग से हो सकेगा । परंतु अभी संपूर्ण विश्व को इन संकीर्ण स्वार्थों से मुक्त करने और विश्व सरकार के गठन की पूर्व शर्तें पूरी करने में कई सदियाँ भी लग सकती हैं और ऐसा होने तक विश्व सरकार की स्थापना का स्वप्न एक स्वप्न ही रहेगा ।