विस्तार बिंदु:
1. मनुष्य के लिए अच्छे स्वास्थ्य की आवश्यकता ।
2. मनुष्य के लिए शारीरिक पीड़ाओं से मुक्ति हेतु सुव्यवस्थित मानसिकता की आवश्यकता ।
3. स्वास्थ्य एवं सफलता का सहचर्य ।
4. समझौतावादी प्रवृत्ति की मनुष्य को आवश्यकता ।
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5. स्वास्थ्य एवं मनुष्य का सम्यक विकास ।
6. निष्कर्ष ।
मनुष्य के भीतर यदि दृढ़ विश्वास हो और समझौतावादी प्रवृत्ति ईर्ष्या और द्वेष-रहित हो, तो रोग, विनाश या असफलता उसके इर्द-गिर्द भी दिखाई नहीं देती । रोग तो हमारे अपने कर्मों के फल होते हैं ।
क्रोध, चिंता, ईर्ष्या, लोभ आदि दुर्गुणों सहित होने पर कोई भी मनुष्य स्वस्थ रहने की कल्पना भी नहीं कर सकता । स्वास्थ्य लाभ के लिए सुव्यवस्थित मानसिकता और उच्च विचार, प्रसन्नचित्त और सदाशयता का होना बहुत ही आवश्यक होता है ।
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ईर्ष्या, संशय, चिंता, घृणा और स्वार्थ भावना न हो, तो सभी विकार आप दूर हो जाते हैं और मनुष्य निर्विकार हो जाता है । एक स्वस्थ और निर्विकार मनुष्य ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राज्यीय या राष्ट्रीय विकास सफलता में भागीदार बन सकता है ।
मनुष्य को यथाशीघ्र इस बात की जानकारी मिल जानी चाहिए कि उसकी असफलताओं, बीमारियों और रोगों का कारण उसकी अपनी भूल है । रोग, बीमारी या असफलता उनके पास आते हैं, जो उन्हें बुलावा देता
है । शारीरिक पीड़ाओं और वेदनाओं से मुक्त रखने के लिए मनुष्य को अपनी मानसिक स्थिति व्यवस्थित रखनी पड़ती है और अपने विचारों में उच्चता के साथ-साथ संगतता लानी पड़ती है ।
यदि मनुष्य हमेशा प्रसन्नचित्त रहे, अपने हित के साथ-साथ दूसरों के हित का विचार रखे, जीवन में सदाशयता रखे और अपने को दुष्कर्मों तथा दुर्भावनाओं से दूर रखे, तो उसे किसी स्वास्थ्य-सेवा या औषधीय चिकित्सा की जरूरत ही नहीं महसूस होगी ।
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जो मनुष्य सभी आकुलताओं और चिंताओं से मुक्त होकर अपना कर्म शांतिपूर्ण और व्यवस्थित ढंग से करता है, वह उस व्यक्ति की अपेक्षा अवश्य ही ज्यादा ठोस कर्म करेगा, जो हमेशा आकुलता के साथ और हड़बड़ी में कार्य करते हैं । व्यवस्थित ढंग से कार्य करने से मनुष्य का स्वास्थ्य हमेशा सम्यक् बना रहता है ।
सम्यक् स्वास्थ्य और सफलता सहगामी हैं । मनुष्य के भीतर एक ऐसा बल होता है, जो हर काम को संभव बनाता है और वह बल है विश्वास का बल । यदि मनुष्य किसी कार्य को करना चाहता है और उस पर अग्रसर होता है, तो उसकी सफलता के लिए उसमें दृढ़ विश्वास का होना अत्यावश्यक है ।
विश्वास वह अदृश्य शक्ति है, जो किसी भी मनुष्य के विकास के क्रम में संजीवनी बूटी का काम करता है-प्राण संचार का काम करता है । विश्वास के कारण ही मनुष्य किसी कार्य की सफलता की आशा करता
है ।
समझौते का तात्पर्य सामंजस्य और समन्वय से है । उस हर व्यक्ति को समझौतावादी होना चाहिए, जो विकास करना चाहता है; क्योंकि, विश्व ज्ञान का अथाह सागर है और इस अथाह सागर में तभी तो विचारों के छोटे बुलबुले और कभी व्यापक परिवर्तन के ज्वार उठते रहते हैं ।
ऐसे में जो व्यक्ति बुलबुलों और ज्वारों के साथ समझौता करते हुए चलता है, वह विकास के चरम पर पहुंच जाता है और जो समझौता नहीं करना चाहता वह इन बुलबुलों और ज्वारों में विलुप्त हो जाता है या फिर अलग-थलग पड़ जाता है ।
जब तक मनुष्य का स्वास्थ ठीक नहीं होगा, तब तक वह अपना सम्यक् विकास नहीं कर सकेगा । कोई भी व्यक्ति औषधि के सेवन से या किसी और की देखभाल से स्वस्थ नहीं होता, बल्कि यह अपने प्रयासों से ही स्वस्थ हो सकता है ।
महात्मा गांधी का यह कहना कि, ‘व्यक्तिगत प्रयास से रोगी व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है, वह दूसरों से स्वास्थ्य उधार नहीं ले सकता ।’ बिल्कुल ठीक ही है । उन्होंने यह भी कहा था कि, ‘जब तक हमारे मन और मस्तिष्क में पूर्ण सामंजस्य नहीं होगा, तब तक हम कोई भी कार्य ठीक ढंग से नहीं कर पाएंगे और, जब तक मनुष्य स्वस्थ नहीं होगा, तब तक वह सम्यक् विकास नहीं कर पाएगा ।’
जब मनुष्य अपने में विश्वास रखेगा, प्राकृतिक विधान में विश्वास रखेगा और उस विश्वास के बल पर अपने जीवन में नयी और स्वस्थ आशाओं को संजोएगा तभी विकास के पथ पर अग्रसर होगा । एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है, इस तथ्य को स्वीकार करते हुए हमें अपने मन-मस्तिष्क पर नियंत्रण रखना चाहिए और यह तभी संभव है जब हम अपने भीतर विश्वास को पालें, स्वस्थ्य मानसिकता अपनाएं, समझौतावादी प्रवृत्ति रखें और विचारों में उच्चता तथा सदाशयता लाएं ।