मनुष्य के लिए विधार्थी जीवन बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । बाल्य-काल से ही मनुष्य का विद्यार्थी-जीवन आरम्भ हो जा है । मनुष्य का बाल्य-काल कोमल पौधे के समान होता है, समुचित देखभाल और मार्ग दर्शन की आवश्यकता होती पहले माता-पिता अपनी सन्तानों को बाल्य-काल में ही गुरुकुल अथवा आश्रम भेज दिया करते थे ।
वहाँ विद्यार्थियों को कठोर अनुशासन में रखा जाता था । वर्षो के निरन्तर अभ्यास उपरान्त विद्यार्थी गुरुकुल अथवा आश्रम से विद्वान और पराक्रामी बनकर निकलते थे । आज गुरुकुल की परम्परा नहीं है । गुरुकु अथवा आश्रमों का स्थान विद्यालयों ने ले लिया है । परन्तु आज भी पूर्व की भाँति विद्यार्थी-जीवन ही मनुष्य का भविष्य निर्धारि करता है ।
विद्यार्थी-जीवन में मनुष्य ज्ञान अर्जित करता है, साथ ही उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है । विद्यार्थी-जीवन में ही मनुष्य में देश का सच्चा नागरिक बनने की योग्यता उत्पन्न होती है । जीवन में कठोर परिश्रम से निरन्तर अभ्यास करने वाले विद्यार्थी ही परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं ।
दूसरी ओर, कठोर परिश्रम से घबराने वाले विद्यार्थी मन लगाकर अभ्यास नहीं करते और पिछड़ जाते हैं ।वास्तव में विद्यार्थी-जीवन मनुष्य के लिए फूंक-फूंक कर कदम रखने वाला काल होता है । इस काल में उचित मार्ग दर्शन की विशेष आवश्यकता होती है । जो विद्यार्थी स्वयं पर नियंत्रण रखकर, उचित-अनुचित का विचार करके निर्णय लेता है, वह पथभ्रष्ट होने से बचा रहता है ।
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इस प्रकार निरन्तर परिश्रम से विद्यार्थी शिक्षित होकर अपना भविष्य पुराण करने में सफल रहता है । लेकिन जो विद्यार्थी उचित दिशा-निर्देश पर ध्यान नहीं देता, परिश्रम से जी चुराता है और विद्यार्थी जीवन का मौज-मस्ती में दुरुपयोग करता है, वह स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करता है ।
कुछ ही वर्षो में मौज-मस्ती का समय व्यतीत हो जाता है और जब जीवन के यथार्थ से सामना होता है तो ऐसा विद्यार्थी स्वयं को अयोग्य पाता है । वास्तव में जीवन में सफल होने के लिए मनुष्य में योग्यता का होना आवश्यक है ।
अयोग्य व्यक्ति को इस संसार में कोई नहीं पूछता आजकल तो योग्यता के उपरान्त भी प्रतियोगिता के दौर में मनुष्य को निरन्तर संघर्ष करना पड़ रहा है । लेकिन योग्यता के अभाव में मनुष्य संघर्ष भी नहीं कर सकता । वह संघर्ष करे भी तो किस दिशा में ? विद्यार्थी-जीवन में मनुष्य निरन्तर अभ्यास से जिस विषय अथवा क्षेत्र विशेष में योग्यता प्राप्त करता है वह उसी दिशा में प्रयत्न करके सफल हो सकता है ।
वास्तव में विद्यार्थी-जीवन में मनुष्य के लिए योग्यता प्राप्त करना अधिक सहज होता है । विद्यार्थी-जीवन में मनुष्य स्वतंत्र होता है उसके कंधों पर परिवार का बोझ नहीं होता । ऐसे में वह निश्चिंत होकर अध्ययन कर सकता है और योग्यता प्राप्त कर सकता है ।
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एक डॉक्टर अथवा इंजीनियर बनने के लिए निश्चिंत होकर निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है । जो विधार्थी निरन्तर अभ्यास करने में सक्षम नहीं होता, वह डाक्टर, इंजीनियर तो क्या, एक क्लर्क बनने की योग्यता भी प्राप्त नहीं कर पाता ।
भविष्य में ऐसा व्यक्ति सुचारु रूप से अपने परिवार का भरण-पोषण करने में भी असमर्थ रहता है । वास्तव में विद्यार्थी-जीवन में ही मनुष्य को अपने भविष्य के प्रति सचेत होने की आवश्यकता होती है । उम्र के इस नाजुक दौर में जो व्यक्ति कष्टप्रद जीवन को अपना कर्तव्य मानता है, भविष्य में उज्जल जीवन का पुरस्कार उसे ही प्राप्त होता है ।
विद्यार्थी-जीवन में ही मनुष्य को यह विचार करने की आवश्यक्ता होती है कि कठोर परिश्रम के बिना जीवन में सफलता सम्भव नहीं है । विद्यार्थी-जीवन में किया गया परिश्रम ही मनुष्य को भविष्य में सुखद प्रतिफल के रूप में प्राप्त होता है ।
वास्तव में विद्यार्थी जीवन कठोर अनुशासन का दूसरा नाम है । जिस प्रकार आग में तपकर सोना अधिक मूल्यवान कुन्दन बनता है, उसी प्रकार विद्यार्थी-जीवन का कठोर अनुशासन मनुष्य को भविष्य में प्रतिष्ठा एवं सम्मान दिलाता है । विद्यार्थियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि मौज-मस्ती के लिए पूरा जीवन पड़ा है और जीवन का आनन्द आत्मनिर्भर बनकर ही उठाया जा सकता है ।