विद्यार्थियों का लक्ष्य विद्या की प्राप्ति होता है । विद्या जीवन के सर्वांगीण विकास का एक सशक्त माध्यम मानी जाती है । अत: प्रत्येक विद्यार्थी को पूरे मनोयोग से विद्याध्ययन करना चाहिए, परंतु आज हमारे विद्यार्थियों का आचरण इसके बीच विपरीत ही नजर आ रहा है ।
आज वे अध्ययन की प्रवृत्ति को त्यागकर सक्रिय राजनीति की दलदल में धँसने के लिए तैयार बैठे प्रतीत होते हैं । यह इसी का परिणाम है कि हमारे देश की लगभग सभी शिक्षण संस्थाएँ गंदी राजनीति का अखाड़ा बनती जा रही है । इस संदर्भ में यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या छात्रों को राजनीति में भाग लेना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में दो प्रकार के मत सामने आते हैं कुछ लोग इसके समर्थन में हैं, तो कुछ विरोध में ।
जो लोग विद्यार्थियों की राजनीति में सक्रिय भागीदारी का समर्थन करते हैं उनके अनुसार आज के विद्यार्थी ही कल के नेता हैं । यदि उन्हें अभी से सक्रिय राजनीति की प्रकृति उसकी क्रिया-विधि और बारीकियों का व्यावहारिक ज्ञान नहीं होगा तो आगे वे देश की राजनीति के संचालन का भार कैसे वहन कर पाएँगे ?
उनका तर्क है कि देश की सक्रिय राजनीति का प्रभाव अन्य देशवासियों पर तो पड़ता ही है विद्यार्थियों पर भी कम नहीं पड़ता, फिर वे किस प्रकार सक्रिय राजनीति से अलग रह सकते हैं ? उन्हें सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल दोनों की ही नीतियों कार्यक्रमों तथा उपलब्धियों का तथ्यपरक मूल्यांकन करते रहना चाहिए ।
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वे देश के प्रबुद्ध और उत्तरदायी नागरिक होते हैं, अत: वे राष्ट्रघाती स्वार्थपूर्ण भ्रष्ट तथा तानाशाही राजनीतिक चिंतन तथा उनके प्रचार-प्रसार से देश और समाज को बचाने हेतु देशभक्त व कर्मठ कार्यकर्त्ताओं के रूप में सक्रिय हो जाएं ऐसी उनसे अपेक्षा की जाती है ।
विद्यार्थियों के राजनीति में प्रवेश के समर्थकों का तर्क है कि संसार के अनेक देशों में राजनैतिक दशा को उबारने की भूमिका विद्यार्थियों द्वारा ही निभाई गई है । वे यह भी तर्क देते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु चल रहे राष्ट्रीय आदोलन के समय स्वयं महात्मा गांधी ने भी छात्रों का आह्वान किया था ।
सन् 1977 में स्वयं लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने भी छात्रों को आदोलन में शामिल होने के लिए ललकारा था । यदि महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण सही थे, तब विद्यार्थियों को राजनीति से दूर रखने की सलाह तर्कपूर्ण और न्यायोचित नहीं है ।
इसके विपरीत, इस मत के विरोधियों का तर्क है कि विद्यार्थियों का मूल उद्देश्य शिक्षा प्राप्त करना होता है जिसमें उन्हें पूरी लगन के साथ लगे रहना चाहिए, वरना उनके ज्ञानार्जन के कार्य में व्यवधान पड़ जाता है ।
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वे कहते हैं कि एक सजग एवं प्रबुद्ध नागरिक होने के नाते, उन्हें निश्चित ही राजनैतिक नीतियों और गतिविधियों के प्रति जागरूक अवश्य रहना चाहिए, परंतु सक्रिय राजनीति में प्रवेश करना किसी भी प्रकार उचित नहीं है ।
यदि छात्र सक्रिय और दलगत रजानीति में फँस जाते हैं तो शिक्षा के श्रेष्ठ आदर्श को भूलकर वे अपने मार्ग से भटक जाते हैं । सक्रिय राजनीति में प्रवेश से पहले उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करनी चाहिए । जहाँ तक सक्रिय राजनीति की शिक्षा प्राप्त करने का प्रश्न है तो तिलक, गोखले और गांधी जैसे अनेक नेताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं जिन्हें ऐसी किसी शिक्षा की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी ।
गांधी और जयप्रकाश नारायण द्वारा किए गए छात्रों के आह्वान के संदर्भ में कहते हैं कि जहाँ गांधी ने स्वतंत्रता संघर्ष के निर्णायक दौर में देश की संपूर्ण शक्ति को लगा देने की दृष्टि से ही ऐसा किया था वहीं जयप्रकाश नारायण ने भी छात्रों को विषम परिस्थितियों में क्रियाशील बनाने की नीयत से ही उन्हें ललकारा था ।
वास्तव में उपरोक्त दोनों नेताओं सहित अन्य बड़े-बड़े नेताओं ने देश के विद्यार्थी समुदाय को यही परामर्श दिया है कि वे पूर्ण निष्ठा व लगन के साथ अपनी पढ़ाई करें तथा नई-नई ऊँचाइयों को छुएँ । इस प्रश्न को एक अन्य दृष्टिकोण से देखने पर एक नया तथ्य प्रकाश में आता है ।
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विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि शिक्षण-संस्थाओं में सिर्फ पांच से सात प्रतिशत तक विद्यार्थी ही किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति समर्पित होते हैं । लगभग इतने ही विद्यार्थी ऐसे भी होते हैं जो उनके अंध-समर्थक होते हैं ।
यही लोग हैं, जिनके कारण शिक्षण संस्थानों का वातावरण प्रदूषित हुआ है । दूसरी ओर अस्सी प्रतिशत से भी ज्यादा छात्र सक्रिय राजनीति के प्रति तटस्थ और उदासीन बने रहते हैं । शिक्षण संस्थानों में राजनीति के बीज बोने का काम राजनीतिक दल करते हैं । ये राजनीतिज्ञ छात्रों की विशेषताओं से भली-भांति परिचित होते हैं ।
वे जानते हैं कि युवा विद्यार्थी प्राय: आदर्शवादी होते हैं और उन्हें आदर्श से ही प्रेरित किया जा सकता है । उन्हें यह पता होता है कि संगठित छात्र-शक्ति असीम होती है । उन्हें यह भी पता है कि विद्यार्थी वर्ग एक बार किसी को अपना नेता मान लेने के बाद उस पर पूर्ण निष्ठा रखने लगता है ।
वे इस तथ्य से भी परिचित होते हैं कि सामान्यत: छात्र समुदाय राजनीति की टेढ़ी चालों तथा उनके पीछे छिपे स्वार्थों को ताड़ पाने की परिपक्व बुद्धि से युक्त नहीं होते । इन्हीं बातों को देखते हुए राजनीतिज्ञ अपनी स्वार्थ-पूर्ति के उद्देश्य से उनको सक्रिय राजनीति में घसीटने के कुत्सित प्रयास करते हैं ।
यह स्पष्ट है कि राजनीति में विद्यार्थी स्वयं नहीं जाते बल्कि स्वार्थी-राजनीतिज्ञ ही उन्हें उसमें खींचने का यत्न करते रहते हैं । इसकी पूरी संभावना है कि राजनीतिज्ञ छात्र-शक्ति को अपने हित साधन का माध्यम बनाते ही रहेंगे ।