विस्तार बिंदु:
1. प्रस्तावना ।
2. विकास की अवधारणा और मानव ।
3. मानवीय पक्ष की बात क्यों ?
4. सामाजिक-सांस्कृतिक विकास और मानव ।
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5. वैज्ञानिक विकास और मानव ।
6. राजनीतिक विकास और मानव ।
7. संचार क्रांति और विकास ।
8. अंतरराष्ट्रीय सहयोग और विकास ।
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9. विकास के नाम पर पर्यावरण की उपेक्षा ।
10. उपसंहार ।
पाषाणकालीन सभ्यता के आरंभिक लक्षणों को अपनाने के बाद से मानव ने जिस तीव्र गति से अपना विकास किया है, वह निश्चित रूप से सराहनीय है; किंतु इस क्रम में उसने कुछ ऐसे कार्य भी किए जो मानव के लिए ही खतरनाक साबित होने लगे हैं ।
मानव विवेकशील होने के साथ-साथ महत्वाकांक्षी भी है, इसलिए वह अपनी सुविधाओं के लिए नित नए मार्गों की तलाश करता हुआ आगे बढ़ना चाहता है । ऐसी स्थिति में कभी-कभी मानव स्वार्थी हो जाता है और वह मानवीयता के विशिष्ट गुणों को भूलने लगता है । इस कारण हमारे समाज में वर्तमान में विभिन्न स्तरों पर असमानता दृष्टिगोचर होने लगी है ।
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विकास की अवधारणा ही मानव के कारण उत्पन्न हुई है । विश्व की कोई अन्य प्रजाति ऐसी नहीं है, जो स्वयं में परिवर्तन के लिए उस प्रकार से चिंतन कर सके, जिस प्रकार से मानव करता है । परंतु, जब से मानव में अध्यात्मिकता की कमी आने लगी और भौतिकतावादी प्रवृत्ति हावी होने लगी है, तब से विकास का स्वरूप परिवर्तित हो गया है ।
पहले विकास की अवधारणा ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ पर आधारित थी, परंतु आजकल विकास ने जो दिशा प्राप्त कर ली है, उसमें बहुत से गैर-मानवीय तत्व समाहित हैं । शांति एवं सह-अस्तित्व पर आधारित विकासात्मक कार्य के लिए मानव प्रजाति अन्य प्रजातियों से पृथक् हैं, किंतु जब इसके कार्य बहुजन के हित के विरुद्ध और नकारात्मक होने लगेंगे, तब तो उसके कार्य अमानवीय-पशुओं की भांति ही होंगे ।
आजकल विश्व राजनीति में विकसित, विकासशील और अविकसित के आधार पर, क्षेत्रीयता के आधार पर, धर्म के आधार पर और वर्गीय आधार पर जिस प्रकार का व्यापक विभेद दृष्टिगत हो रहा है, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि मानव अपने विकास के लिए गैर-मानवीय कार्य भी करने लगा है ।
ऐसी स्थिति में यह निश्चित रूप से विचारणीय हो जाता है कि विकास का मानवीय पक्ष क्या हो ? आखिर विकास के नाम पर अमानवीय प्रयत्नों को संरक्षण कब तक प्रदान किया जा सकता है ? मानव ने तीव्र गति से अपना सामाजिक-सांस्कृतिक विकास किया है ।
कबीलाई एवं भ्रमणशील जीवन से शुरूआत कर आज वह परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र तथा विश्व नामक संस्था के बीच स्थिर जीवन जीने लगा है । इस बीच समाज में अनेक प्रकार के परिवर्तन आए हैं । पहले तो मानव ने अन्य प्रजातियों के साथ संघर्ष किया, परंतु जैसे-जैसे उसका विकास हुआ है, वैसे-वैसे मानव-मानव के बीच ही संघर्ष होने लगा है ।
मानव पहले अपने बाह्यस्वरूप के आधार पर एक-दूसरे से पृथक् प्रतीत होता था, परंतु धीरे-धीरे वह अनेक जातियों एवं प्रजातियों में बंट गया । मानव के बीच जब जातियों एवं प्रजातियों के आधार पर संघर्ष शुरू हुआ, तब एक मानव दूसरे मानव का शत्रु नजर आने लगा ।
विकास के लिए मानव में प्रतियोगिता की भावना का होना अति आवश्यक है, परंतु यह भावना सकारात्मक होनी चाहिए, न कि नकारात्मक । अपनी भलाई के लिए कभी भी दूसरों का अहित नहीं सोचना चाहिए । आज संपूर्ण विश्व के मानव अनेक धर्मों में बंटे हुए हैं और अपने धर्म के विकास के लिए दूसरों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने से भी नहीं चूकना चाहते ।
ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को अपने धर्म का अनुयायी बनाने के लिए आर्थिक प्रलोभन के साथ-साथ भय का भी सहारा लिया जाता है । कोई व्यक्ति यदि अपने हिंदुत्व, इस्लामियत अथवा ईसाइयत पर गर्व करता है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है ।
परंतु, यदि कोई अपने धर्म पर गर्व करे और दूसरे धर्म को अपमानित करने की बुराई करे, तो यह अमानवोचित चेष्टा है । मानवोचित चेष्टा तो यह है कि अपने धर्म के साथ-साथ दूसरे धर्म के भी समुचित विकास की बात सोची जाए ।
प्राचीन भारत में सामाजिक व्यवस्था को इस प्रकार से निर्धारित किया गया कि श्रम का समान विभाजन हो सके-पुरुषों को श्रम साध्य एवं घर के बाहर के कार्यों को निबटाने का दायित्व सौंपा गया और स्त्रियों को घर के भीतर के कार्यों को निबटाने का दायित्व सौंपा गया ।
परंतु, शारीरिक रूप से अपने आप को दक्ष समझने वाले पुरुषों ने धीरे-धीरे महिलाओं का शोषण करना शुरू कर दिया और महिलाओं के कार्यों की उपेक्षा भी की जाने लगी । ऐसी स्थिति में महिलाओं ने अपने आप को असुरक्षित महसूस करते हुए घर से बाहर निकलना शुरू कर दिया और पुरुषों के समक्ष स्वयं को स्थापित करने के लिए प्रतिस्पर्द्धा करने लगीं ।
पुरुषों ने महिलाओं के घर से बाहर निकलने की पहले तो उपेक्षा की, परंतु बाद में उन्हें घर के बाहर स्थान दिया भी गया, तो उनके और अधिक शोषण की नीति अपना ली । अब महिलाओं को घर के साथ-साथ बाहर का काम भी करना पड़ता है और उसके बावजूद पुरुषों द्वारा शोषित होना पड़ता है ।
महिलाओं के घर छोड़ देने से एक और समस्या उत्पन्न हो गई है, अब मासूम बच्चों को ममत्व से वंचित होना पड़ रहा है और उनका पालन-पोषण क्रेच जैसी संस्थाओं में होने लगा है । पुरुषों की संकुचित मानसिकता के कारण कामकाजी महिलाओं को भी अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है । कार्यालयों में पुरुषों द्वारा प्राय: उनके साथ अमर्यादित व्यवहार किया जाता है ।
फिर, घर में उनके कार्यों में हाथ नहीं बंटाया जाता । इससे उन्हें दोगुनी मेहनत करनी पड़ती है । यहां आकर ऐसा प्रतीत होता है कि विकास का दंभ भरने वाला मानव आज भी अमानवीय व्यवहार करता है । आखिर महिलाएं समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और उनकी भी आशाएं-आकांक्षाएं हैं ।
यदि वे नौकरी करना चाहती हैं और पुरुषों के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलना चाहती हैं, तो उन्हें रोकना मानवीयता का प्रतीक नहीं है । पिछले हजारों वर्षों में विज्ञान ने तीव्र गति से विकास किया है, जिसके कारण मानव कंदराओं से ऊपर उठकर भवनों में आ गया है और अनेक प्रकार के भौतिक संसाधनों से युक्त हो गया है ।
अब विश्व के किसी भी भाग में विचरण करना आसान हो गया है, घर बैठे संपूर्ण विश्व को देखने की सुविधा मिल गयी है, हजारों किलोमीटर दूर बैठे ही बातचीत करना आसान हो गया है, कंप्यूटर के माध्यम ने पलभर में अधिकाधिक कार्य करना आसान हो गया है ।
परंतु, दूसरी ओर विज्ञान ने परमाणु बम, हाइड्रोजन बम, रासायनिक हथियारों आदि, जैसे-विनाशकारी उपकरण भी प्रदान किए हैं । विज्ञान ने औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित किया, तो उससे हमें अधिक मात्रा में उत्पादों की प्राप्ति तो होने लगी है, परंतु इनमें प्रयुक्त दोने वाले रसायनों को वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, मृदा-प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि उत्पन्न कर पर्यावरण को मानव के प्रतिकूल बना दिया है ।
विज्ञान ने मानव के विकास का मार्ग तो प्रशस्त किया है, पर इस विकास के साथ अमानवीय पक्ष भी जुड़ा हुआ है । मानव ने अपने विकास क्रम में जिस क्षेत्र में सर्वाधिक तीव्र गति से विकास किया है, वह है राजनीति । अब ऐसा वातावरण उपस्थित हो गया है कि विश्व का प्रत्येक व्यक्ति राजनीति को समझने लगा है, परंतु इसका विकास भी पूर्ण रूप से मानवीय नहीं है ।
सत्ता प्राप्ति के लिए घिनौनी राजनीति की जानी लगी है और इसके लिए जनता को वैसी दिशा प्रदान की जा रही है, जो उसे पतन की और ले जा रही है । आखिर काले-गोरे के आधार पर, पूर्व-पश्चिमी के आधार पर, अमीर-गरीब के आधार पर, ऊंच-नीच के आधार पर और सबसे बढ़कर सम्प्रदाय के आधार पर भेदभाव की नीति अपनाकर राजनीति करना कहां तक मानवीय है ।
विश्व के अधिकांश देशों द्वारा लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अपनाना या उसकी प्राप्ति के लिए संघर्षरत होना निश्चित रूप से राजनीतिक विकास का सूचक है, परंतु भेदभाव पर आधारित राजनीति विकास का अमानवीय पक्ष प्रस्तुत करता है ।
आतंकवाद और उग्रवाद भी काफी हद तक अनुचित राजनीति की ही देन हैं । जब किसी व्यक्ति या वर्ग-विशेष की किसी व्यवस्था में उपेक्षा होगी और शांतिपूर्ण प्रयासों से वह अपनी मांगों को मनवाने में सफल नहीं होगा, तब आतंकवाद और उग्रवाद का तो सहारा लिया ही जाएगा ।
परंतु अपनी मांगों को मनवाने के लिए आतंकवादी और उग्रवादी निर्दोंषों की हत्या का जो रास्ता अपनाते हैं, वह भी अमानवीय ही है । सूचना-प्रौद्योगिकी में त्वरित विकास से संचार के क्षेत्र में क्रांति का सूत्रपात हुआ है । इससे संपूर्ण विश्व एक गांव के रूप में बदलता प्रतीत हो रहा है ।
यदि संचार क्रांति से सूचनाओं के आदान-प्रदान में सरलता और सुगमता आती है, तो वह तो ठीक है, किंतु यदि इसका लाभ उठाकर घर-घर में अश्लीलता और हिंसा को दिखाया जाएगा, तो यह अमानवीय चेष्टा
होगी । संभव है अश्लीलता की परिभाषाएं अलग-अलग समाज में अलग-अलग रूप से प्रस्तुत की जाती हों, किंतु इसको दिखाते समय कम-से-कम क्षेत्र-विशेष का तो ध्यान रखा ही जाना चाहिए ।
विश्व के कुछ देशों ने तीव्र गति से प्रगति कर ली है और कुछ देश अभी तक अत्यंत पिछड़े हैं । ऐसे में विकसित देश, विकासशील देशों के विकास में बाधक बन रहे हैं । उनका ऐसा मानना है कि विकासशील देशों में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन देने से पर्यावरण के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है और उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए ।
परंतु, यह भी तो सच है कि औद्योगिक विकास के बिना ये देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते । ऐसे में, यदि अंतरराष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित-विकसित किया जाए, तो समस्या से कुछ हद तक उबरा जा सकता है ।
विकसित देशों को विकासशील देशों को आर्थिक सहायता तो देनी ही होगी, साथ ही सुरक्षित प्रौद्योगिकी भी उपलब्ध करानी होगी । विकासशील देशों को भी वैसी प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित करना होगा, जो पर्यावरण के अनुकूल हो । वस्तुत: विकास का मानवीय पक्ष ढूंढने की कोशिश समय की मांग है, क्योंकि मानव को यह बताना आवश्यक है कि वह जो कार्य कर रहा है, वह उसके लिए और अन्यों के लिए कितना हितकर है ।
मानव को सकारात्मक कार्य के प्रति अग्रसर होना चाहिए । शांति एवं अहिंसा के साथ महिलाओं और पर्यावरण का सम्मान करते हुए विकास के पथ पर कदम बढ़ाने से ही ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ की स्थापना हो सकती है ।