Here is a compilation of top six Proverbs for class 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12 as well as for teachers. Find paragraphs on popular proverbs especially written for Teachers and School Students in Hindi Language.
Contents:
- करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । Practice Makes a Man Perfect
- जो हुआ अच्छा हुआ । Whatever Happens, Happens for Good
- जहाँ चाह वहाँ राह | Where there is Will, there is a Way
- जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना | Where there is Wisdom, there is Prosperity
- सब दिन होत न एक समान | Not All Days are Alike
- पर उपदेश कुशल बहुतेरे | Its Easy to Advice Others
1. करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । Practice Makes a Man Perfect
कविवर वृंद के रचे दोहे की एक पंक्ति वास्तव में निरंतर परिश्रम का महत्व बताने वाली है । साथ ही निरंतर परिश्रम करने वाला व्यक्ति के लिए अनिवार्य सफलता प्रदान करने वाली है दोहे की यह एक पंक्ति । पूरा दोहा इस प्रकार है: ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । रसरी आवत-जात ते, सिल पर परत निसान ।”
इसकी व्याख्या इस प्रकार है कि निरंतर परिश्रम करते रहने से असाध्य माना जाने वाला कार्य भी सिद्ध हो जाया करता है । असफलता के माथे में कील ठोककर सफलता पाई जा सकती है । जैसे कूएँ की जगत पर लगी सिल (शिला) पानी खींचने वाली रस्सी के बार-बार आने-जाने से, कोमल रस्सी की रगड़ पड़ने से घिसकर उस पर निशान अंकित हो जाया करता है; उसी तरह निरंतर और बार-बार अभ्यास यानि परिश्रम और चेष्टा करते रहने से एक निठल्ला एवं जड़-बुद्धि समझा जाने वाला व्यक्ति भी कुछ करने योग्य बन सकता है ।
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सफलता और सिद्धि का स्पर्श कर सकता है । हमारे विचार में कवि ने अपने जीवन के अनुभवों के सार-तत्व के रूप में ही इस तरह की बात कही है । हमारा अपना भी विश्वास है कि कथित भाव और विचार सर्वथा अनुभव-सिद्ध ही है । ऐसी किंदवतीं अवश्य प्रचलित है । कि कविवर कालिदास कवित्व-शक्ति प्राप्त करने से पहले निपट जड़मति वाले ही थे ।
कहा जाता है कि वन में एक वृक्ष की जिस डाली पर बैठे थे, इस बात की चिंता किए बिना कि कट कर गिरने पर उन्हें चोट आ सकती या मृत्यु भी हो सकती है । उसी डाली को काट रहे थे । विद्योतमा नामक विदुषी राजकन्या का मान भग करने का षड्यंत्र कर रहे तथाकथित विद्वान वर्ग को वह व्यक्ति (कालिदास) सर्वाधिक जड़मति और मूर्ख लगा ।
सो वे उसे ही कुछ लाभ-लालच दें, कुछ ऊटपटांग सिखा-पड़ा महापंडित के वेश में सजा-धजा कर राजदरबार में विदुषी राजकन्या विद्योत्मा से शास्त्रार्थ करने के लिए ले गए । उस मूर्ख के ऊटपटांग मौन संकेतों की मनमानी व्याख्या षड्यंत्रकारियों ने एक निदुषी से विवाह करा दिया ।
लेकिन प्रथम रात्रि को वास्तविकता प्रकट हो जाने पर पत्नी के ताने से घायल होकर ज्यों घर से निकले कठिन परिश्रम और निरंतर साधना रूपी रस्सी के आने-जाने से घिस-घिसकर महाकवि कालिदास बनकर घर लोटे । स्पष्ट है कि निरंतर अभ्यास ने तपाकर उनकी जड़मति को पिघलाकर बहा दिया । जो बाकी बचा था, वह खरा सोना था ।
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विश्व के इतिहास में और भी इस प्रकार के कई उदाहरण खोजे एवं दिए जा सकते हैं । हमें अपने आस-पास के प्राय: सभी जीवन-क्षेत्रों में इस प्रकार के लोग मिल जाते हैं कि जो देखने-सुनने में निपट अनाड़ी और मूर्ख प्रतीत होते हैं । वे अक्सर इधर-उधर मारे-मारे भटकते भी रहते हैं ।
फिर भी हार न मान अपनी वह सुनियोजित भटकन अनवरत जारी रखा करते हैं । तब एक दिन ऐसा भी आ जाता है कि जब अपने अनवरत अध्यवसाय से निखरा उनका रंग-रूप देखकर प्राय: दंग रह जाना पड़ता है । इससे साफ प्रकट है कि विश्व में जो आगे बढ़ते हैं किसी क्षेत्र में प्रगति और विकास किया करते हैं वे किसी अन्य लोक के प्राणी न होकर इस हमारी धरती के हमारे ही आस-पास के लोग हुआ करते हैं ।
बस, अंतर यह होता है कि वे एक-दो बार की हार या असफलता से निराश एवं चुप होकर नहीं बैठ जाया करते; बल्कि निरंतर उन हारों-असफलताओं से टकराते हैं और एकदिन उनकी चूर-चूर कर विजय या सफलता के सिंहासन पर आरूढ़ दिखाई देकर सभी को चकित-विस्मिव कर दिया करते हैं ।
साथ ही यह भी स्पष्ट कर देते हैं अपने व्यवहार और सफलता से कि वास्तव में संकल्पवान व्यक्ति के शब्दकोश से असंभव नाम का कोई शब्द नहीं हुआ करता । इसलिए मनुष्य को कभी भी किसी भी स्थिति में हार मानकर निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए ।
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अपने अध्यवसाय-रूपी रस्सी को समय की शिला पर निरंतर रगड़ते रहना-चाहिए, तब तक निरंतर ऐसे करते रहना चाहिए कि जब तक कर्म की रस्सी से विघ्न-बाधा या असफलता की शिला पर घिसकर उनकी सफलता का चिहन स्पष्ट न झलकने लगे ।
मानव-प्रगतिका इतिहास साक्षी है कि आज तक जाने कितनी शिलाओं को अपने निरंतर अभ्यास से घिसते आकर, बर्फ की कितनी दीवारें पिघलाकर वह आज की उन्नत दशा में पहुँच पाया है । यदि वह हार मानकर या एक-दो बार की असफलता से ही घबराकर निराश बैठे रहता तो अभी तक आदिम काल की अंधेरी गुफाओं और बीहड़ वनों में ही भटक रहा होता । लेकिन यह न तब संभव था और प्राप्त स्थिति पर ही संतुष्ट होकर बैठे रहना न आज ही मानव के लिए संभव है ।
2. जो हुआ अच्छा हुआ । Whatever Happens, Happens for Good
अक्सर लोगों को कहते सुना है कि अपना मान-सम्मान, अपना यश-अपयश, अपना सुख-दु:ख और हानि लाभ आदि सभी कुछ मनुष्य के अपने हाथों में ही रहा करता है । एक दृष्टि से इस मान्यता को सत्य एवं उचित भी कहा जा सकता है ।
वह इस प्रकार कि मनुष्य अच्छे-बुरे जैसे भी कर्म किया करता है, उसी प्रकार से उसे हानि-लाभ तो उठाने ही पड़ते हैं, उन्हें जान-सुनकर विश्व का व्यवहार भी उसके प्रति उसके लिए कर्मों जैसा ही हो जाया करता है, अर्थात अच्छे कर्म वाला सुयश और मान-सम्मान का भागी बन जाया करता है ।
लेकिन शीर्षक मुक्ति में कविवर तुलसीदास ने इस प्रचलित धारणा के विपरित मत प्रकट करते हुए कहा है कि: हानि-लाभ-जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ । अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य हानि-लाभ, यश-अपयश जो कुछ भी अर्जित कर पाता है । उसमें उसका अपना वश या हाथ कतई नहीं रहा करता ।
विधाता की जब जैसी इच्छा हुआ करती है तब उसे उसी प्रकार की लाभ-हानि तो उठानी ही पड़ती है । मान-अपमान भी सहना पड़ता है । जीवन और मृत्यु तो एकदम असंद्यिध रूप में मनुष्य के अपने वश में न रहकर विधाता के हाथ में रहती ही है ।
जब हम गंभीरता से प्रचलित धारणा और कवि की मान्यता पर विचार करते हैं, लोक के अनुभवों के आधार पर सत्य को तोलकर या परखकर देखते हैं, तो कवि की मान्यता प्राय सत्य एवं अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होती है । एक व्यक्ति रात-दिन यह सोचकर परिश्रम करता रहता है कि वह उसका सुफल पाकर जीवन में सुख भोग और सफलता पा सकेगा पर होता इसके विपरीत है ।
विधाता उसके किए-कराए पर पानी फेरकर सारी कल्पनाएं भूमिसात कर देता है । एक उदाहरण से इस बात की वास्तविकता सहज ही समझी जा सकती है । एक किसान पक्के इरादे से रात-दिन मेहनत करके फसल उगाता है । लहलहाती फसलों के रूप में अपने कर्म और परिश्रम का सुफल निहारकर मन ही मन फूलों नही समाता ।
किंतु अचानक रात में अतिवृष्टि होकर या बाढ़ आकर उस सबको तहस-नहस, करके रख देती है । अब इसे आप क्या कहना चाहेंगे ? हानि-लाभ सभी कुछ वास्तव में विधाता के ही हाथ में है, इसके सिवा और कह भी क्या सकते हैं । इसी प्रकार मनुष्य अच्छे-बुरे तरह-तरह के कर्म करता कई प्रकार के पापड़ बेलकर धन-संपति अर्जित एवं संचित करता रहता है ।
यह सोच-विचार कर मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न भी रहा करता है कि उसे भविष्य के लिए किसी प्रकार की चिंता नही पड़ती । तभी अचानक कोई महामारी कोई दुर्घटना होकर उसके प्राणों को हर लेती है और उसके भावी सुखों की कल्पना का आधार सारी धन संपति उसे सुख तो क्या देना उसके प्राणों की रक्षा तक नहीं कर पाती ।
इसमें भी तो विधाता की इच्छा ही मानी जाती है । यह कहकर ही संतोष करना पड़ता है । पीछे बच रहे लोगों को कि विधाता को ऐसा ही स्वीकार था । उसकी इच्छा को कौन टाल सकता है सो स्पष्ट है कि विधाता की इच्छा के सामने मनुष्य एकदम लाचार एवं विवश है । जो कुछ भी हुआ, जो कुछ हो या घट रहा है भविष्य में भी जो कुछ होना या घटना है ।
वह उसकी इच्छा का ही परिणाम था है और होगा । कई बार मनुष्य अच्छा कर्म इसलिए करता है कि उसका परिणाम मान-यश बढ़ाने वाला होगा । सो वह उस कर्म को करता जाता है; पर उसके विरोधी पैदा होकर उसके सारे परिश्रम को व्यर्थ कर देते हैं ।
उसे मान की जगह अपमान और यश की जगह अपयश भोगने को विवश होना पड़ता है । जैसे: एक व्यक्ति अपनी कार या इसी प्रकार के वाहन पर कहीं जा रहा है । राह के सूने में एक महिला सहसा सामने हाथ दे उसे रुकने का संकेत करती है । सद्भावनावश वह रुक जाता है ।
उसकी बातों से उसे विवश एवं असहाय मान उसकी सहायता करने के लिए तत्पर हो जाता है । उसे अपने वाहन पर सवार कर लेता है । कुछ आगे बढ़ या भीड़-भाड़ वाले स्थान पर पहुँचकर वह महिला कह उठती है कि जो कुछ भी पास है, वह निकाल कर मुझे दे दो । घड़ी और चेन उतारकर मेरे हवाले कर दो नहीं तो अभी चिल्लाकर भीड़ इकट्ठी कर दूँगी ।
अब बताइए, इसे क्या कहेंगे ? में न तो उस से उगलते बनेगा न निगलते । कहाँ तो चले थे भला करने; पर गले पड़ी बुराई । इस प्रकार यह मान्यता स्वीकार कर लेनी चाहिए कि आदमी के अपने हाथ में कुछ नहीं है । जो कुछ है यह विधि के हाथ में ही है । वही विश्वकर्त्ता भर्त्ता और हरता सभी कुछ है । उसी की इच्छा-अनिच्छा और लीला का परिणाम है ।
यह दृश्य जगत । इस का कण-कण उसी से संचालित हुआ करता है । उसी की इच्छा से हवा चलती है । बादल बरसते हैं । चाँद-सूर्य-तारे क्रम से आते जाते हैं । वहीं यश-अपयश, मान-सम्मान आदि हर बात कर कर्त्ता और दाता है । इसी ओर संकेत करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था-अपना भला-बुरा मेरे अर्पित कर दो ।
तुम केवल कर्त्तव्य कर्म मेरा ही आदेश मानकर करते जाओ । सो कवि का भी यहाँ यहीं आश्य है कि हानि-लाभ, यश-अपयश आदि सभी को भगवान के हाथ में मानकर अपने कर्त्तव्यों का पालन करते जाओ बस ।
3. जहाँ चाह वहाँ राह | Where there is Will, there is a Way
इस संसार में मनुष्य नित नये-नये कार्य आरम्भ करता है । उसके हृदय में नये-नये स्वप्त जन्म लेते हैं, नयी-नयी इच्छाएं उत्पन्न होती हैं । परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती । वास्तव में किसी भी कार्य में सफलता सोए दृढ़ इच्छा-शक्ति का होना आवश्यक है । केवल इच्छा उत्पन्न होना पर्याप्त नहीं है ।
किसी भी इच्छा की पूर्ति इच्छा-शक्ति अधिक निर्भर करती है । प्रबल इच्छा ही कार्य करने की प्रेरणा देती है । प्रबल इच्छा ही अथक परिश्रम के लिए उत्साहित करती है और मनुष्य नयी-नयी राह की खोज करता रहता है । इसलिए कहा कहा गया है: जहाँ चाह वहाँ राह । किसी भी कार्य को करने के लिए सर्वप्रथम उस कार्य के प्रति हृदय में छह उत्पन्न होना आवश्यक है ।
बिना इच्छा के किसी कार्य को हाथ में लेना व्यर्थ है । इस पृथ्वी पर मनुष्य अनेक कार्यों के प्रति आकर्षित होता है । सर्वप्रथम उसकी इच्छा होती है कि वह सुख-समृद्धि से सम्पन्न जीवन व्यतीत करे । परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को समृद्धि प्राप्त नहीं होती और ज्यादातर व्यतीत करते हैं । ऐसे लोग सुख-समृद्धि हैं, परन्तु अधिक परिश्रम नहीं करते ।
सत्य यह है कि इस संसार में अपनी इच्छा अनुसार सुख प्राप्त करना सरल नहीं है । प्रत्यक व्यक्ति अपने मनचाहे कार्य-क्षेत्र में चाहता है । कोई डॉक्टर बनना चाहता है, सी की कलाकार बनने की चाह होती है, तो चाहता है । परन्तु अपने मनचाहे कार्य-क्षेत्र दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं परिश्रम पर निर्भर के साथ निरन्तर परिश्रम से ही नये-नये द्वार खुलते हैं ।
इस संसार में सफलता की चाह सभी को होती है । कुछ लोग भी करते हैं । परन्तु दृढ़ इच्छा शक्ति न श्रम से शीघ्र ही घबरा जाते हैं और अपना हैं । ऐसे लोग जीवन को सरल मानकर जीवन में आने वाली कठिनाइयों का । जीवन की कठिनाइयों के सामने उनकी है । ऐसे लोगों को जीवन में कदम-कदम मुँह देखना पड़ता है ।
वास्तव में उनकी चाह प्रबल नहीं होती । वे स्वयं मान लेते हैं कि एक कार्य में सफलता नहीं मिली, तो कोई दूसरा कार्य कर लेंगे । वास्तव में प्रबल इच्छा ही सफलता के द्वार खोलने का कार्य । प्रबल इच्छा व्यक्ति को कभी सन्तुष्ट होकर नहीं बैठने से व्यक्ति के लिए उसकी चाह उसके जीवन का लक्ष्य जिसे प्राप्त करने के लिए वह अथक परिश्रम से भी ।
विषम परिस्थितियों अथवा असफलताएँ भी ऐसे विचलित नहीं कर पाती । अपने लक्ष्य को प्राप्त करने ऐसा व्यक्ति एक द्वार बन्द होने पर तत्काल दूसरे द्वार करने लगता है । वह जीवन के अनुभव से सीखता है फुल उत्साह से पुन: प्रयत्न करता है ।
ऐसे ही व्यक्तियों कहा गया है कि जहाँ चाह वहाँ राह । प्रबल इच्छा व्यक्ति संघर्ष करने की प्रेरणा देती है और अंतत: ऐसे ही जीवन में मनचाहे क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं । डॉक्टर हो या इंजीनियर, कलाकार हों या शिक्षक, किसी भी में निरन्तर अभ्यास अथवा प्रशिक्षण के उपरान्त ही योग्यता प्राप्त कर पाता है ।
योग्यता प्राप्त करने के लिए को अनेक कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है । वास्तव में परिश्रमी व्यक्ति को सभी सहयोग देते हैं । उसकी चाह एवं चाहत लोगों को प्रभावित करती है । ऐसे व्यक्ति की फलता की कामना सगे-सम्बन्धी ही नहीं, बल्कि अन्य लोग भी नरते हैं ।
सफलता की चाह में व्यक्ति स्वयं ही अपरिचित लोगों को भी अपना बना लेता है । उसकी चाह उसे प्रत्येक व्यक्ति का सहयोग लेने के लिए प्रेरित करती है । इस प्रकार निरन्तर परिश्रम करने और अन्य लोगों के सहयोग से व्यक्ति अपनी वाह पूर्ण करने में सफल होता है ।
4. जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना | Where there is Wisdom, there is Prosperity
तुलसीदास रचित यह पंक्ति समाज के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ में कहा है: जहां सुमति तहँ सम्पत्ति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपत्ति निधाना । ‘जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना’ का अर्थ है: जहाँ सद्बुद्धि होती है, वहाँ विभिन्न प्रकार की सुख-सम्पत्ति का वास होता है ।
जिस समाज एवं राष्ट्र के लोग सद्बुद्धि से सोच-विचार कर कार्य करते हैं, वहाँ उन्नति सरल हो जाती है । इसके विपरीत जो लोग सही-गलत का भलीभांति विचार नहीं करते, उनके जीवन में बारम्बार विपत्तियाँ आती हैं ।
सदबुद्धि से मनुष्य को सत्कमों की प्रेरणा मिलती है । बुद्धि बल पर सही-गलत का निर्णय करने वाले लोग सदैव अनुचित कार्यों से स्वयं को बचाए रखते हैं । ऐसे लोग समाज एवं राष्ट्र के हित के कार्य उत्साहित होकर करते हैं और धन के लोभ में कभी अपनी राह से नहीं भटकते ।
ईमानदारी एवं परिश्रम के बल पर ऐसे लोग देर से ही सही अंतत: सफलता प्राप्त करते हैं । उन्हें समाज में सम्मान की प्राप्त नहीं होता, बल्कि .उनके परिवार को भी आदर की दृष्टि से देखा जाता है । दूसरी ओर कुमति के कारण असामाजिक कृत्यों में लिप्त व्यक्तियों को अंतत: समाज से बहिष्कृत होने की सजा भुगतनी पड़ती हैं ।
साथ ही उनके परिवार, सगे-सम्बंधियों को भी समाज में प्रताड़ित होना पड़ता है । वास्तव में सद्बुद्धि मनुष्य को शक्ति प्रदान करती है । सद्बुद्धि से मनुष्य के आत्म-बल में वृद्धि होती है । ऐसे व्यक्ति सही-गलत का निर्णय करने में सक्षम होते हैं । धन का लोभ उन्हें भी आकर्षित कर सकता है, परन्तु उनका आत्म-बल उन्हें अनुचित, असामाजिक कृत्यों में लिप्त होने से रोकने में सफल रहता है ।
ऐसे लोग कष्टों से विचलित नहीं होते और जीवन-पथ पर निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं । सद्बुद्धि से प्राप्त आत्म-बल के कारण ऐसे लोगों में स्वाभिमान का भाव स्वत: उत्पन्न हो जाता है और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए वे कभी गलत समझौता नहीं करते ।
ऐसे लोग अभावों से घबराते नहीं, बल्कि विषम परिस्थितियों का निर्भय होकर मुकाबला करते हैं । सद्बुद्धि के कारण मनुष्य यह विचार करने में सक्षम होता है कि जीवन में सफलता सहज नहीं होती, बल्कि निरन्तर संघर्ष के उपरान्त प्राप्त होती है ।
सद्बुद्धि से मनुष्य को संघर्ष की प्रेरणा मिलती है । बुद्धिमान मनुष्य अपने जीवन-पथ पर निरन्तर संघर्ष करता रहता है और कष्टों से विचलित नहीं होता । उसकी सद्बुद्धि उसे यह विचार करने की क्षमता प्रदान करती है कि सार्थक जीवन के लिए संघर्ष आवश्यक है ।
हमारे समाज में महान कार्य करने वाले नेता, समाज सेवक, सन्त, चिकित्सक, लेखक, पत्रकार इत्यादि सार्थक जीवन की कामना में जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहते हैं और समाज के उत्थान के लिए अनेक कष्टों को भी हँसते- हँसते सहन कर जाते हैं ।
सच्ची सफलता, सुख-समृद्धि अंतत: ऐसे ही परिश्रमी व्यक्तियों को प्राप्त होती है । ऐसे लोगों के समक्ष ही समाज आदर से नत्मस्तक होता है । संघर्षो से घबराने वाले और सफलता की कामना करने वाले कुछ लोगों की मति भ्रष्ट हो जाती है और वे सफलता के लिए चोरी, विश्वासघात आदि अपराध करने से भी नहीं घबराते ।
धन-सम्पत्ति के मोह में ऐसे लोग अपने स्वाभिमान को भी दाव पर लगाने से नहीं चूकते । अल्पावधि के लिए धन, वैभव ऐसे लोगों को सम्भवत: कुछ सुख प्रदान करता है । परन्तु अपराध सिद्ध होने पर ऐसे लोगों की सुख-समृद्धि ही तितर-बितर नहीं जाती, बल्कि उन्हें सजा भी भुगतनी पड़ती है और जीवनपर्यन्त घज उन पर थू-थू करता है ।
संद्बुद्धि से ही मनुष्य उचित अनुचित का विचार करके पना मार्ग निर्धारित कर सकता है । बुद्धि के बल पर मनुष्य समाज के उत्थान के लिए उपयोगी कार्य करके सुख-समृद्धि के साथ-साथ समाज में मान-प्रतिष्ठा भी प्राप्त कर सकता है । किसी भी समाज एवं राष्ट्र का विकास बुद्धिमान लोगों से ही संभव हो सकता है ।
5. सब दिन होत न एक समान | Not All Days are Alike
प्रकृति परिवर्तनशील है । सूर्योदय के साथ दिन का प्रकाश पृथ्वी पर फैल जाता है । सूर्यास्त के उपरान्त रात्रि का अंधेरा पृथ्वी को घेर लेता है । कभी गर्मी मनुष्य और जीव-जन्तुओं के शरीर को झुलसाने लगती है, तो कभी वे सर्दी में ठिठुरने लगते हैं । मनुष्य का जीवन भी अनेक उतार-बढ़ाव के साथ आगे बढ़ता है ।
किसी भी मनुष्य के सब दिन एक समान नहीं होते । प्रत्येक मनुष्य जीवनपर्यन्त सुख-शांति से व्यतीत करने की कामना करता है । केवल कामना करने से किसी को सुख-समृद्धि प्राप्त नहीं होती । समय के आगे मनुष्य विवश हो जाता है । समय निर्धन को धनवान और धनवान को निर्धन बना देता है ।
गुमनामी के अंधेरे में कष्ट भोग रहा व्यक्ति अक्समात् सफलता के शिखर पर पहुँच जाता है । सफलता के सुख भोग रहा व्यक्ति बेकारी का कष्टप्रद जीवन व्यतीत करने से भी विवश हो जाता है । इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो समय के महत्त्व को सिद्ध करते हैं और बताते है कि स्वयं को शक्ति-सम्पन्न मानने वाले व्यक्ति भी समय परिवर्तन के साथ शक्तिहीन होकर पिछड़ जाते हैं । वास्तव में परिवर्तन प्रकृति का नियम है ।
ऋतुओं के अनुसार मनुष्य का जीवन भी परिवर्तनशील है । मनुष्य की बुद्धिमानी इसी में है कि वह समय के साथ चले । सुख-समृद्धि की कामना करने वाले मनुष्य को कष्टप्रद जीवन से विचलित नहीं होना
चाहिए । मनुष्य को सदैव याद रखना चाहिए कि समय परिवर्तनशील है ।
सब दिन एक समान नहीं होते । कष्ट के दिन भी व्यतीत होते हैं । रात्रि के उपरान्त सूर्योदय अवश्य होता है । कष्टों का अन्त भी अवश्य होता है और कष्टों के उपरान्त निस्संदेह सुखों का आगमन होता है । अत: मनुष्य को कष्टों के निवारण के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए और उत्साहित होकर सुखों की प्रतीक्षा करनी चाहिए । इसी प्रकार रुपिया-मध्यम जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्य को भी समय की शक्ति को नहीं भूलना चाहिए । समय के आगे महान शक्तियों को भी जमीन की धूल चाटनी पड़ी है ।
सुख-सुविधाओं के उन्माद में प्राय: मनुष्य समय की शक्ति को भूलकर अभिमानी हो जाता है । अभिमानी व्यक्ति केवल स्वयं को शक्ति-सम्पन्न मानने की भूल बारम्बार करता है । वह भूल जाता है कि सुखों के साथ दुःखों का भी जीवन में आगमन होता है ।
सुखों के उन्माद में अभिमानी व्यक्ति सामाजिक मर्यादाओं का भी करने से नहीं घबराता । परन्तु अन्तत: अभिमानी यक्ति पराजित होता है । रावण जैसे शक्ति-सम्पन्न राजा को भी अंतत: अपनी पराजय स्वीकार करनी पड़ी थी । हमें जीवन के सुख-दुःख के उतार-बढ़ाव से विचलित नहीं होना चाहिए ।
मनुष्य का कर्तव्य अपना कर्म करते रहना है । समय के उतार-चढ़ाव जीवन-पर्यन्त जारी रहते हैं । बुद्धिमान व्यक्ति समय की शक्ति को पहचानकर प्रत्येक परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए सदा तैयार रहते हैं । वे दुःखों से विचलित नहीं होते, बल्कि दुःखों के निराकरण के लिए प्रयत्न करते हैं । सुख-सुविधाएँ भी बुद्धिमान व्यक्तियों को उन्मादी नहीं बनाती ।
बुद्धिमान लोग प्रत्येक परिस्थिति में अपना मानसिक संतुलन बनाए रखते हैं । उनका आत्मविश्वास कभी डाँवाँडोल नहीं होता । बुद्धिमान लोग समय के परिवर्तन पर विश्वास करते हैं और इस कारण अपना आत्मविश्वास बनाए रखते हैं । समय के परिवर्तन से हमें घबराना नहीं चाहिए, बल्कि ऋतुओं के समान परिवर्तित समय का स्वागत करना चाहिए ।
वास्तव में समय-परिवर्तन से ही हमारे ज्ञान-चक्षु खुलते हैं । समय का परिवर्तन ही हमें जीवन की वास्वविकता से परिचित कराता है । यह समय-परिवर्तन ही है, जो मनुष्य को ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति कराता है । वास्तव में समय परिवर्तन मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है ।
6. पर उपदेश कुशल बहुतेरे | Its Easy to Advice Others
दूसरों को उपदेश देकर सुधार की दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देना बहुत आसान है । आजकल ऐसे लोग बहुतायत में मिलते हैं । समाज के प्रत्येक क्षेत्र में लोग दूसरों को उपदेश देते देखे जा सकते हैं ।
अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, जीवन में सफलता के लिए परिश्रम आवश्यक है, भ्रष्टाचार में लिप्त होना देशद्रोह है, दहेज एक सामाजिक अभिशाप है आदि अनेक उपदेश लोग दूसरों को आसानी से देते हैं, परन्तु स्वयं ने जीवन में वे इन उपदेशों को लागू करते हैं, यह आवश्यक नहीं है ।
ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है कि ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात दूसरों को चतुराई से उपदेश देने वाले बहुत हैं, जिनकी कथनी और करनी में अन्तर होता है । आज हमारे समाज में कितने लोग अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, कितने लोग परिश्रमी हैं ? आज भ्रष्टाचार प्रत्येक विभाग में फैला हुआ है ।
दहेज को सामाजिक कलंक मानने के बावजूद दहेज-प्रथा हमारे समाज से समाप्त नहीं हुई है और दहेज की आड़ में आज भी महिलाओं पर अत्याचार किए जा रहे हैं । हमारे समाज में अनेक बुराइयाँ हैं जो आज भी जीवित है । इसके साथ उपदेशकी की संख्या भी दिनोदिन बढ़ती जा रही है ।
वास्तव में समाज में विद्यमान बुराइयों का कारण यही है कि हमारे समाज में उपदेशक बहुत हैं परन्तु उन उपदेशों पर चलने वाले बहुत कम हैं । यहाँ एक सन्त की कथा का उल्लेख करना आवश्यक है । उस सन्त के पास एक माँ अपने पुत्र के साथ इस आशा से आती है कि वह सन्त उसके बालक की अधिक गुड़ खाने की आदत को छुड़ा देगा ।
सन्त बालक की माँ को एक सप्ताह बाद पुन: आने के लिए कहते हैं । अपने बालक के साथ माँ पुन: सन्त से मिलती है, तो सन्त उसके बालक को गुड न खाने के लिए मनाने में सफल होते हैं । जब माँ सन्त से पूछती है कि यह कार्य आपने पिछले सप्ताह ही क्यों नहीं किया, तो सन्त उत्तर देते हैं कि तब उन्हें स्वयं गुड खाने की आदत थी ।
उन्होंने एक सप्ताह में स्वयं गुड खाने की आदत से छुटकारा पाया, तभी वह स्वयं को बालक को सुधारने में सक्षम बना पाए । आज ऐसे लोगों की कमी है । लोग दूसरों को सुधारने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन अपनी बुराइयों पर ध्यान नहीं देते ।
लोग समाज-सेवा के लिए, देश-सेवा के लिए लम्बा भाषण देते हैं परन्तु उनके प्रत्येक कार्य में उनका निहित स्वार्थ होता है । आज समाज अथवा, देश की सेवा केवल प्रचार के उद्देश्य से की जाती है । सच्चे समाज-सुधारक और देशभक्तों का एकमात्र ध्येय सेवा-कर्म होतो है, उन्हें प्रचार की आवश्यकता नहीं होती ।
हमारे देश के स्वतंत्रता आंदोलन में हजारों देशभक्त जीवनपर्यन्त देश के लिए लड़ते रहे और हँसते-हँसते शहीद हो गए । ऐसे हजारों देशभक्तों के जीवन का उद्देश्य इतिहास में नाम दर्ज कराना नहीं, बल्कि देश के लिए मर-मिटना था ।
परन्तु आज एक व्यक्ति यदि छोटा सा प्याऊ भी बनवाता है तो उस पर अपने नाम का पत्थर अवश्य लगवाता है । आज समाज-सेवा, धर्म, राजनीति आदि प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित लोग दूसरों को उपदेश देने में माहिर हैं । अपने प्रवचनों के द्वारा ये लोग प्रचार पाने में तो सफल रहते हैं, परन्तु वास्तव में समाज एवं देश के लिए ये क्या करते हैं यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है ।
आज सामाजिक अपराधों में निरन्तर वृद्धि हो रही है । छोटे से सरकारी कर्मचारी से लेकर बड़े अधिकारी और मंत्री तक घोटालों में लिप्त हैं । सेवा और सुधार की बातें करने वाले यदि वास्तव में अपने कर्तव्य का पालन करें तो हमारे समाज एवं देश की तस्वीर बिलकुल अलग होगी, जिसमें सामाजिक स्तर पर न तो अपराध होंगे न ही सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार और घोटाले ।
प्रत्येक मनुष्य को दूसरों को उपदेश देने से पहले एक वार स्वयं अपनी गिरेबान में झांककर देख लेना चाहिए । मनुष्य को सर्वप्रथम अपनी बुराइयों को दूर करना चाहिए । प्रत्येक मनुष्य को दूसरों को उपदेश देने से पहले एक बार स्वयं अपनी गिरेबान में झांककर देख लेना चाहिए ।
मनुष्य को सर्वप्रथम अपनी बुराइयों को दूर करने में सफल होगा, तो निसंदेह सपूर्ण समाज एवं देश का स्वरूप स्वत: बदल जाएगा । दूसरों को उपदेश देने का अधिकार भी केवल उसे ही प्राप्त है, जो स्वयं बुराइयों से मुक्त है । ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ के मार्ग पर चलने से समाज का कोई लाभ नहीं हो सकता ।