Here is a compilation of top five Proverbs for class 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 and 12 as well as for teachers. Find paragraphs on popular proverbs especially written for Teachers and School Students in Hindi Language.
Contents:
- अच्छा स्वास्थ्य महावरदान । Good Health is a Blessing
- अपना हाथ जगन्नाथ पर अनुच्छेद | Self-Reliance in Hindi Language
- मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना । Religion does not Teach Differences with Others
- मन के हारे हार है । It is the Mind which Wins or gets Defeated
- परहित सरिस धर्म नहिं भाई । No Act is more Pious than doing Good to Others
1. अच्छा स्वास्थ्य महावरदान । Good Health is a Blessing
अंग्रेजी में एक कहावत प्रसिद्ध है Health is wealth, अर्थात् स्वास्थ्य ही सच्चा धन है । ध्यान से, व्यवहार की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि कहावत में कही गयी बात एकदम सत्य है । अच्छे स्वास्थ्य को सच्चा धन या महावरदान मानने में कुछ भी झूठ या अतिशयोक्ति नहीं है ।
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वह इसलिए कि स्वस्थ व्यक्ति ही इस संसार और जीवन में इच्छित कार्य पूरे कर सकता है । जो चाहे बन सकता है । जहाँ चाहे, जा सकता है । जो भी इच्छा हो, खा-पीकर जीवन का हर आनंद प्राप्त कर सकता है । इसी कारण तो लोगों को ‘तन्दुरुस्ती हजार नेहमत है’ जैसी कहावतें कहते-सुनते देखा-सुना जा सकता है ।
‘नेहमत’ का मतलब आनन्द और वरदान आदि से लगाया और समझा जा सकता है । आज तक संसार में छोटे-बड़े जितने प्रकार के भी कार्य हुए हैं; वे स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन-मस्तिष्क वाले सबल व्यक्तियों द्वारा ही किये गये हैं । कहावत प्रसिद्ध है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन-मस्तिष्क और आत्मा का निवास हुआ करता है ।
स्वस्थ मन वाला व्यक्ति ही उन्नति करने, ऊँचा उठने की कल्पानाएँ कर या विचार बना सकता है । स्वस्थ मस्तिष्क या बुद्धि वाला व्यक्ति ही उन कल्पनाओं और विचारों को पूरा करने के लिए उपाय सोचकर साधन जुटा सकता है । इसके बाद शरीर के स्वस्थ रहने पर ही साधनों और उपायों से काम लेकर वे सारे कार्य किये जा सकते हैं, जिनकी विचारपूर्वक कल्पना की होती है ।
और जिन्हें पूरा करने के बाद आत्मा सच्चा आनन्द प्राप्त करके सुखी तथा सन्तुष्ट हो सकती है । जब व्यक्ति स्वयं सुखी तथा सन्तुष्ट होता है, तभी वह अपने आस-पड़ोस, समाज, देश-जाति, राष्ट्र और फिर सारी मानवता को सुखी तथा समृद्ध बनाने की बात न केवल सोच ही सकता है ; बल्कि उसक लिए कार्य भी कर सकता है ।
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इसी दृष्टि से अच्छे स्वास्थ्य को महा वरदान, नेहमत और सच्चा धन कहा या माना जा मकता है । स्वास्थ्य से रहित यानि अस्वस्थ व्यक्ति सपने भी शायद ठीक से नहीं टख सकता । अस्वस्थता और दुर्बलता के कारण ऐसे आदमी के मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के हीन विचारों के घर बने रहते हैं ।
उन्ह हमेशा अपनी दुर्बलता और समर्थता पर अफसोस ही होता रहना है, रोना ही आता रहा करता है । दुर्बल व्यक्ति दूसरों का अपनी इच्छाएँ पूरी करते देख या उन्नति की राह पर बढ़ते देख हमेशा अपने भाग्य को कोसा करता है । वह भाग्यवादी और आलसी बन जाया करता है ।
स्वयं अपने लिए तो उसका जीवन बोझ होता ही है, वह घर-परिवार और सारे समाज के लिए भी मात्र बोझ बनकर रह जाया करता है । इस प्रकार अस्वस्थ और दुर्बल व्यक्ति अपनी ही हीनताओं के कारण अपना जीवन व्यर्थ और बेकार कर लिया करता है ।
उसके लिए संसार के सामान्य व्यवहारों, सुखों आदि का कतई कोई महत्त्व नहीं होता, सुख-स्वर्ग की कल्पना शेखचिल्ली का ऐसा महल हुआ करता है, जिसमें आज तक कभी काई रहने नहीं पाया । इस प्रकार अस्वस्थता का अर्थ है: व्यर्थता ।
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संसार में आज तक जो कुछ भी महान्, महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हुआ है, वह दुर्बल शरीर और मन-मस्तिष्क वाले लोगों के द्वारा नहीं किया गया है । एवरेस्ट की चोटी पर मनुष्यता की जीत का झण्डा फहराने वाले व्यक्ति अस्वस्थ और दुर्बल नहीं थे ।
हवाई जहाज उड़ाने वाले, पानी की धारा और प्रवाह के विरूद्ध नौकाएँ खेने वाले, बड़े बड़े भवन खड़े करने वाले, सीमाओं की रक्षा के लिए भयानक और विषम परिस्थितियों में भी रात-दिन डटे रहना अस्वस्थ लोगों का कार्य नहीं हो सकता ।
चन्द्रलोक या अन्तरिक्ष का यात्री भी कोई रोगी, कमजोर और भाग्यवादी अस्वस्थ आदमी नहीं बन सकता । तात्पर्य यह है कि सार में अच्छा-बुरा कुछ भी करने के लिए शारीरिक स्वास्थ्य आवश्यक है यद्यपि बुराई को अस्वस्थ मन-मस्तिष्क की देना ही माना जाता है ।
आदमी को स्वस्थ रहने के लिए जीवन और उसके व्यवहारों पर हर प्रकार से नियंत्रण रखना आवश्यक हुआ करता है । खान-पान में सन्तुलन, आहार-विहार में सन्तुलन, नियमपूर्वक व्यायाम आदि करना तो आवश्यक होता ही है, विचारों का सन्तुलन और नियन्त्रण भी आवश्यक हुआ करता है ।
अच्छे विचार मन-मस्तिष्क से स्वास्थ्य की पहचान हुआ करते हैं । विचारों को अच्छा और सन्तुलित रखने के लिए भी शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक हुआ करता है, यह बात सभी समझदार लोग मानते और कहा करते हैं ।
संसार में स्थूल रूप से विकास के जो अनेक दृश्य दिखाई देते हैं, अनेक वस्तुएँ प्राप्त हैं, वे सब स्वस्थ शरीर की उपलब्धियाँ कही जा सकती हैं । इसके विपरीत संस्कृति, साहित्य कला आदि के क्षेत्र में मानव-समाज को जो कुछ भी प्राप्त है, वह सब कुछ वास्तव में स्वस्थ मन-मस्तिष्क की देन है । इन स्थूल-सूक्ष्म सभी प्रकार की उपलब्धियों के कारण ही जीवन स्वर्ग-समान सुखों का घर बन रहा है ।
इनको देखकर ही अच्छे स्वास्थ्य को महावरदान, नेकमत या श्रेष्ठ धन कहने-मानने को जी चाहता है । वास्तव में इस प्रकार की जो कहावतें आज हर भाषा हर देश और साहित्य-समाज में प्रचलित हो पायी हैं, उनके मूल में इस प्रकार की प्रत्यक्ष कहानियाँ, बातें और उपलब्धियाँ ही है । अच्छा स्वास्थ्य इसलिए जरूरी नहीं होता कि मनुष्य को पहलवान या खिलाड़ी ही बनना होता है ।
नहीं, जीवन-समाज में हर उचित और अच्छा कार्य करने के लिए स्वास्थ्य बहुत आवश्यक है । व्यक्तियों से समाज और समाजों से देश और राष्ट्रीयता के स्वास्थ्य की जाँच व्यक्ति या व्यक्तियों के माध्यम से ही की जा सकती है । यदि व्यक्ति स्वस्थ है तो उनसे बने समाज को स्वस्थ कहा जा सकता है । यदि समाज स्वस्थ है तो देश कभी अस्वस्थ रह ही नहीं सकता ।
अस्वस्थ से मतलब परतंत्र और अविकसित या पिछड़ा हुआ कुछ भी हो सकता है । देश का स्वस्थ होना राष्ट्रीयता की स्वस्थता की पहचान हैँ । स्वास्थ्य से मतलब स्वाधीनता स्वतंत्रता प्रगति और विकास सभी कुछ है । ध्यान रहे, तन-मन, मस्तिष्क और आत्मा के महावरदानी स्वास्थ्य के बल पर ही समाज देश और राष्ट्र को स्वस्थ सुन्दर: अर्थात् स्वतंत्र, उन्नत और विकसित रखा जा सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं ।
इस प्रकार जिस स्वास्थ्य को ‘हजार नेहमत’, ‘महान या श्रेष्ठ धन’ और ‘महावरदान’ कहा या माना जाता है, स्पष्ट है कि उसका संबंध केवल निरोग और गठीले शरीर से ही नहीं हुआ करता । उसका संबंध उस निरोग और गठीले शरीर के अन्दर निवास करने वाले मन, बुद्धि और आत्मा से भी हुआ करता है ।
इन सबकी सम्मिलित स्वस्थता ही ‘महावरदान’ हो सकती है । ऐसा वरदान जो एक आदमी से लेकर उससे बने पूरे समाज समाज से बने देश और राष्ट्र तक सभी के जीवन की झोली को सुख-सम्पदा से भर दिया करता है । हम सभी उस वरदान को पाने में सहायक हो सकते हैं ।
उपाय एकदम सरल और स्वाभाविक है । वह यह कि हम स्वयं स्वस्थ रहें, दूसरों को स्वस्थ रहने दें । उन सभी छोटे-बड़े कारणों को दूर करने का अकेले-अकेले और मिलकर भी प्रयत्न करें, जो अस्वस्थता को किसी भी रूप में फैलाने वाले हैं ।
ऐसा करके ही हम लोग अपने मनुष्य होने के कर्त्तव्यों का निर्वाह तो कर ही सकते हैं, किसी समाज, देश और राष्ट्र के वासी होने के कारण उन सबके प्रति हमारी जो जिम्मेदारियाँ हो जाती हैं, उनका उचित निर्वाह करके उन सब के ऋणों से मुक्त हो सकते हैं । ऐसा हो पाने का प्रयत्न करना ही महावरदानी अच्छे स्वास्थ का प्रमुख लक्षण है ।
2. अपना हाथ जगन्नाथ पर अनुच्छेद | Self-Reliance in Hindi Language
यह एक कहावत है: अपना हाथ जगन्नाथ । जगन्नाथ का अर्थ है जगत का नाथ अर्थात जगत का स्वामी । अपना हाथ जगन्नाथ का अर्थ यही है कि मनुष्य को किसी अन्य व्यक्ति के आसरे न रहकर अपने हाथों को ही अपना स्वामी मानकर उन पर भरोसा करना चाहिए ।
यह सत्य है कि संसार में परिस्थितियों के कारण अपने सगे-सम्बन्धी भी साथ छोड़ने को विवश हो जाते हैं परन्तु मनुष्य के हाथ सदैव उसके साथ रहते हैं । जो अपने हाथों की योग्यता पर भरोसा करता है, उसे जीवन में कभी किसी के आगे हाथ फैलाना नहीं पड़ता ।
वास्तव में हाथ ही मनुष्य के स्वामी हैं । हाथों की करामात से ही मनुष्य ने इस संसार में सफलता के नए आयाम छुए हैं । अपने हाथों के बल पर ही मनुष्य आज सुख-सुविधाओं से भरपूर जीवन व्यतीत कर रहा है । अपने हाथों के सहारे ही मनुष्य अपने परिवार का भरण-पोषण कर पा रहा है ।
एक मजदूर किसी के आसरे न रहकर अपने हाथों से परिश्रम करता है, तभी उसके परिवार को भोजन मिलता है । हाथों की करामात ने ऊँचे पहाड़ों को काट-काटकर दुर्गम रास्तों को भी सुगम बनाया है । हाथों के सक्रिय होने के कारण ही आज मनुष्य निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है और उसका कठिनाईयों भरा जीवन अत्यन्त सरल हो गया है ।
जिस समाज में लोग ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ पर विश्वास करते हैं उस समाज की प्रगति को कोई नहीं रोक सकता । ऐसे समाज के लोग आलस्य को त्यागकर, किसी चमत्कार की प्रतीक्षा न करते हुए सदैव अपने कार्य में जुटे रहते हैं । उन्हें केवल अपने हाथों पर भरोसा होता है, अत: उनके हाथ निरन्तर कार्य करते रहते हैं ।
ऐसे लोग विषम परिस्थितियों में भी नहीं घबराते । प्राकृतिक आपदाओं का भी वे स्वयं डटकर मुकाबला करते हैं । अंतत: ऐसे लोग ही सफल रहते हैं । इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब मनुष्य दूसरों के आसरे रहकर जीवन में विफल रहा है । बड़-बड़े धनवान,नवाब, राजा आलस्य के कारण जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में परास्त हुए हैं ।
महान शक्तियों को भी हाथ पर हाथ धरकर बैठने के कारण जमीन की धूल चाटनी पड़ी है । हाथ पर हाथ धरकर बैठना और अपना हाथ जगन्नाथ दो विपरीत प्रवृत्तियाँ हैं । हाथ पर हाथ धरकर बैठने वाला व्यक्ति सदा दूसरों के सहयोग की अपेक्षा करता है और अपने जीवन के मूल्यवान समय को गंवाता रहता है ।
ऐसे व्यक्तियों को जीवन में कभी विशेष सफलता प्राप्त नहीं होती, बल्कि उन्हें जो उपलब्ध होता है, उसे भी वे गवां देते हैं । दूसरी ओर अपनी योग्यता के अनुसार निरन्तर कर्म-पथ पर सक्रिय रहने वाले व्यक्ति जीवन के मूल्यवान समय का सदुपयोग करते हैं, फलत: मूल्यवान समय उन्हें मूल्यवान सफलता प्रदान करता है ।
वास्तव में जीवन का अर्थ समय का सदुपयोग करना ही है । जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, संसार के समस्त प्राणी जीवनपर्यन्त कर्मशील रहते हैं । मनुष्य को तो ईश्वर ने विकसित मस्तिष्क प्रदान किया है । मनुष्य को यह भली भांति विचार करना चाहिए कि सफल जीवन के लिए उसे अपने जीवन को गंवाना नहीं, बल्कि उसे महत्त्वपूर्ण बनाने की आवश्यकता है ।
यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सफलता, सुख-समृद्धि चाहता है । परन्तु सफलता उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है, जो ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ का अनुसरण करता है । ऐसा व्यक्ति भाग्यसे अधिक कर्म पर विश्वास करता है और कभी हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठता ।
उसके लिए उसका हाथ ही उसका भाग्य होता है, जिसे वह सदैव जागृत रखता है । सक्रिय हाथ बड़ी से बड़ी कठिनाइयों पर भी विजय पाने में सफल रहते हैं । ऐसे कर्मशील व्यक्ति कभी किसी उगसरे की प्रतीक्षा नहीं करते । वे पीछे मुड़कर नहीं देखते, बल्कि निरन्तर अपने लक्ष्य की उतर अग्रसर रहते हैं ।
3. मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना । Religion does not Teach Differences with Others
सभी धर्म या मज़हब महान् मानवीय मूल्यों को महत्त्व देते हैं । किसी भी मजहब या धर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के मस्तिष्क या तर्क-शक्ति के साथ नहीं, बल्कि हृदय और भावना के साथ स्वीकार किया जाता है । इसी कारण भावना-प्रवण व्यक्ति किसी तर्क-वितर्क पर ध्यान न दे प्राय: भावनाओं में ही बहता जाता है ।
भावनाओं में बहाव व्यक्ति के स्तर पर तो बुरा नहीं पर जब कोई वर्ग या समूह विशेष मजूहब या धर्म से सम्बन्धित भावुकता-भावना को ही सब-कुछ मान लिया करता है, तब निश्चय ही कई प्रकार की मारक समस्याएँ उत्पन्न हो जाया कती हैं । उनके परिणाम भी बड़े मारक हुआ करते हैं ।
इसी कारण समझदार लोग प्रत्येक स्थिति में भावना के साथ वृद्धि और मानवीय कर्त्तव्य का समन्वय बनाये रखने की बात कहते एवं प्रेरणा दिया करते हैं । ऐसा करके ही प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने मजूहब या धर्म पर कायम रहते हुए सारी मानवता के लिए शुभ एवं सुखकर प्रमाणित हो सकता है ।
मजहब या धर्म व्यक्ति को सम्मान्य, सुसुध्य और सुसंस्कृत बनाकर सभी प्रकार के अच्छे तत्वों को धारण करने, उनकी रक्षा करने की शक्ति दिया करता है । इस दृष्टि से मज़हबी या धार्मिक व्यक्ति वही है, जो उदात्त मानवीय धारणाओं को धारण करने में समर्थ हुआ करता है ।
इन तथ्यों के आलोक में यह भी कहा जा सकता है कि मजूहब या धर्म का सम्बन्ध न तो किसी जाति-वर्ग विशेष के साथ हुआ करता है और न ही वह जाहिलों, अशिक्षितों-अनपढों की वस्तु है । उसके लिए व्यक्ति का मानवता के समस्त सद्गुणों के प्रति विश्वासही होना, खुले एवं सुलझे हुए मन-मस्तिष्क वाला और सुशिक्षित होना भी बहुत आवश्यक है ।
ऐसा न होने पर भावुक आस्थाओं पर टिका हुआ मजहब या धर्म अपने-आप में तो बखेड़ा बनकर रह ही जाता है, अनेक प्रकार के बखेड़ों का जनक भी बन जाता है जिसे कोई भी मजूहब या धर्म उचित नहीं स्वीकारता । यों मज़हबपरस्ती या धार्मिकता बुरी चीज नहीं है । यह मनुष्य में समानता, सहकारिता सद्भावना और सबसे बढ्कर ईश्वरीय एवं मानवीय आस्था प्रदान करती है ।
पर कई बार कुछ कट्टरपंथी, जो पढ़े-लिखे होते हुए भी सहज मानवीय भावना के स्तर पर वस्तुत जाहिल ही हुआ करते हैं, मजहब या धर्म के उन्माद में कुछ ऐसा कह या कर दिया करते हैं कि जो सारे वातावरण को अभिशप्त अस्वास्थ्यकर और विषैला बना दिया करता है ।
हमारा देश इस प्रकार की कट्टरपन्थी मज़हबी दीवानगी का ही परिणाम था । उस समय हुआ व्यापक नर-संहार भी उसी का परिणाम था । आज भी कई बार मजूहबी चिगारियाँ भड़क कर मानवता को जलाती रहती हैं ।
सोचने की बात है कि आखिर ऐसा क्यों होता है और कब तक अपने को राम-रहीम के प्यारे कहने वाले, अपने को सुसंस्कृत-शिक्षित मानव कहने वाले हम लोग यह सब बर्दाश्त करते रहेंगे ? मज़हब या धर्म वास्तव में बड़ी ही कोमल-कान्त और पवित्र भावनात्मक वस्तु है ।
उसका स्वरूप साकार न होकर भावनात्मक और निराकर ही रहता है, उस परम शक्ति के समान, जो अपने-आप में अनन्त- असीम होते हुए भी अरूप और निराकार ही हुआ करती है । इसी कारण मजूहब या धर्म सदा-सर्वदा अस्पृश्य और अदृश्य ही रहता है । यह भी एक निखरा हुआ सर्वमान्य तथ्य है कि अपने-आप में कोई भी मज़हब या धर्म मानव-मानव में किसी प्रकार का वैर-विरोध करना नहीं सिखाता ।
हर स्तर पर मानवता का विकास व सम्मान प्रत्येक मज़हब-धर्म का मूल तत्व है । हर धार्मिक नेता ने मात्र इसी बात का समर्थन किया है । दया करुणा सभी के प्रति प्रेम और सम्मान के साथ अपनेपन का भाव शान्ति और अपने-अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्ति समर्पित आस्था-वस्तुत: हर धर्म या मजूहब का मूल मन्त्र यही बातें हैं ।
इन्हीं की रक्षा के लिए वास्तविक धार्मिक नेता अपने प्राणों तक का बलिदान करने को तत्पर रहकर त्याग-तपस्या के आदर्श की स्थापना किया करते हैं । पर यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि धर्मों के मूल रहस्यों को भुलाकर हम कई बार पशु बन जाया करते हैं ।
तब मनुष्यों के तो केवल शरीर ही मरते या नष्ट होते हैं; वास्तविक आघात धर्मों, मज़हबों की मूल अवधारणाओं पर हुआ करता है । मरती वे पवित्र और उदात्त भावनाएँ हैं । जिन्हें धर्म या मज़हब कहा जाता है । इसी क्रिया को मानव की हीनता और बौद्धिक दीवालियापन ही कहा जायेगा ।
भारत एक सर्व-धर्म-समन्वयवादी देश है । समन्वय-साधना आरम्भ से ही भारतीय सभ्यता-संस्कृति की मूल भावना और प्रवृत्ति रही है । इसी कारण भारत की सभ्यता-संस्कृति को बहुमुखी एव विविध धर्मों-तत्वों की समन्वित सभ्यता-संस्कृति कहा-माना जाता है ।
आरम्भ या अत्यन्त प्राचीन काल से यहाँ अनेक प्रकार के लोग आक्रमणकारी या लुटेरे बनकर आते रहे; पर अन्त में यहाँ की उदात्त मानवीय चेतनाओं से प्रभावित होकर यहीं के होकर रह गये । अनन्त सागर के अनन्त प्रवाह के समान भारत ने भी उन्हें अपने में समा कर एकत्व प्रदान कर दिया ।
आज भी भारत में अनेक धर्मों और सभ्यता-संस्कृतियों को मानने वाले लोग निवास करते हैं । अपनी-अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार रहने-चलने की उन्हें संवैधानिक स्वतन्त्रता एवं गारंटी प्राप्त है । फिर भी यहाँ कभी-कभार विभिन्न मजहब या धर्म परस्पर टकरा जाया करते हैं । ऐसा होना वस्तुत: आश्चर्यजनक और विचाराणीय बात है ।
मज़हबी या धार्मिक टकराव क्यों होकर देश की शान्ति को भर्ग करते रहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में मुख्य रूप से दो ही कारण खोजे जा सकते हैं । पहला कारण है कट्टरवादी जाहिलता । यह जाहिलता कुछ लोगों के मन-मस्तिष्क में इस देश में रहते हुए भी उन्हें अन्य मजूहबी देशों से जोड़े हुए हैं । वे लोग मानवता या भारत की समन्वयवादी मानव-चेतना का अर्थ नहीं समझते ।
अत: मजहबी जुनून और परदेसों के लोभ-लालचपूर्ण उकसावें में आकर विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न करते रहते हैं । दूसरा कारण राजनीतिक अदूरदर्शी महत्वाकांक्षा भी अनेकविध विषमताओं अराजकताओं और धार्मिक दंगे-फिसाद, की जड़ मानी जा सकती है ।
धार्मिक जुनून और राजनीतिक महत्वाकांशा का आज इस देश में कुछ इस सीमा तक बोलबाला हो चुका है कि अक्सर लोग अपने दादा-परदादा और माता-पिता के अस्तित्व, धर्म और मजूहब तक को भी नकारने लगे हैं । यह बात उनके और राष्ट्र दोनों के लिए शुभ-सुखद नहीं कही जा सकती । जितनी जल्दी इस प्रकार की घातक चेतनाओं से छुटकारा पाया जा सके, उचित है ।
इस प्रकार की समस्त विषमताओं का सर्वोत्तम और सरलतम उपाय है कि हम शायर इकबाल के कथन का वास्तविक अर्थ समझें । वह यही है कि मज़हब और धर्म वैर-विरोध या फिरकापरस्ती किस प्रकार की कट्टर साम्प्रदायिकता का नाम नहीं ।
वह तो दया, धर्म प्रेम और मानवता के महान् गुणों का नाम है । उन्हें अपनाकर ही प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने विश्वासों पर चलते हुए गर्व और गौरव के साथ घोषित कर सकता है कि : ”मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिन्दू हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा ।”
4. मन के हारे हार है । It is the Mind which Wins or gets Defeated
मन क्योंकि सभी इच्छाओं का केन्द्र है, सभी दृश्य-अदृश्य इन्द्रियों का नियामक और स्वामी है; अत: व्यवहार के स्तर पर उसकी हार के वास्तविक हार और जीत को सच्ची जीत माना जाता है । इसीलिए मन पर नियंत्रण और मन की दृढ़ता की बात भी बार-बार कही जाती है ।
विद्वानों के अनुसार हर प्रकार की मानसिक दुर्बलता का उपचार यह है कि मनुष्य विपरीत दिशा में सोचना शुरू कर दे । जैसे: ”मेरा व्यक्तित्व पूर्ण है । उसमें त्रुटि या कमजोरी कोई है, तो मैं उसे दूर करके रहूँगा । यदि मुझमें कोई दुर्बलता है, जो उसका ध्यान छोड्कर निर्मल शरीर और निर्मल मन का ध्यान करूँगा । मुझे ईश्वर ने अपना ही रूप बनाया है । उसने मुझे पूर्ण मनुष्य बनने की आज्ञा दी है ।
पूर्ण पुरुष परमात्मा की मैं रचना हूँ, फिर मैं अपूर्ण कैसे हो सकता हूँ ? मेरे मन में जो अपूर्णता का विचार आता है, वह वास्तविक कैसे हो सकता है ? मेरे जीवन की पूर्णता ही सत्य है । मैं अपने अन्दर कोई कमी नहीं आने दूंगा । बनाने वाले ने मुझे दीन, हीन, दुर्बल बनने के लिए पैदा नहीं किया ।
उसके संगीत में स्वर-भंग कैसे हो सकता है ?” इस प्रकार निरन्तर एवं बारम्बार अपने मन में विचार दोहराते रहने से मनुष्य कर्म से अपने को सबल बनाता जाता है । लज्जाशीलता या संक्षेप कई बार रोग की सीमा तक पहुँच जाती है । इसे एक प्रकार का मानसिक रोग कहा गया है ।
परन्तु है यह रोग केवल कल्पना की उपज ही । इस पर आसानी से विजय पायी जा सकती है । इसका उपाय यही है कि इस विचार को धकेलकर मन में बाहर कर दिया जाये और इसके विपरीत विचार को मन में स्थान दिया जाये ‘मुझे झेंपने की तनिक भी आवश्यकता नहीं । हर समय मेरी ही चेष्टाओं को देखने की फुर्सत लोगों के पास नहीं है ।
इस प्रकार के विचार मन की सारी दुर्बलताएँ निकाल कर आदमी को निश्चय ही नया बल और स्फूर्ति देते हैं । प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि वह ईश्वर की मौलिक रचना है और उसमें कुछ दिव्यता है । उस दिव्यता को व्यक्त करने का उसे दृढ करने की एक सफल क्रिया कह सकते हैं ।
हमें प्रत्येक संभव उपाय से बौद्धिक रूप में अपना सुधार करना आरम्भ कर देना चाहिए । सर्वोत्तम लेखकों के अच्छी का अध्ययन करने से, विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त करने से हम अपनी कई प्रकार की त्रुटियों दूर कर सकते हैं । मन से हीनता की भावना निकल गयी तो समझो सारी दुर्बलताएँ समाप्त हो गयीं ।
अत: हमें हर सम्भव उपाय से मनोरंजक तथा आकर्षक व्यक्तित्व को प्राप्त करने की दिशा में अपने-आपको अग्रसर करना चाहिए । तभी मन भी दृढ़ हो सकेगा । अपनी वेशभूषा के प्रति, केश-श्रुंगार के प्रति, बातचीत के प्रति बर्ताव के प्रति उपेक्षा नहीं करनी चाहिए; क्योंकि व्यक्तित्व के निर्माण तथा कार्यों में सहायक होती हैं । इनमें मन भी बढ़ता है ।
कई बार हमारे सामने ऐसा कठिन काम आ जाता है कि हम मन हारने लगते हैं । हमें यह सोचना चाहिए कि यह वस्तुत: हमारी परीक्षा का अवसर है । इंसानियत का इतिहास और प्रेरणा यही है कि वह हिम्मत न हारे । कहा भी है: ‘हिम्मते मर्दा मददे खुदा’ जो व्यक्ति हिम्मत नहीं हारता ईश्वर भी उसकी ही सहायता करता है ।
यह सोचकर उस कार्य को करने में तन-मन से डट जाना चाहिए । देर-सबेर सफलता अवश्य मिलेगी । हम जो कुछ भी करते हैं, पहले मन में उसका ध्यान करते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि कार्य का प्रारूप हमारे मन में तैयार होता है । यदि हमारा मन दृढ़ता से उस पर विचार करता है, तो हमारा चितंन लाभकारी होता है । व्यवहार में भी दृढ़ता आती है और सफलता भी मिलती है ।
निराशा की भावना मनुष्य के मन और तन दोनों को दुर्बल बनाती है । इसे पास नहीं आने देना चाहिए । इतिहास तथा वर्तमान काल की घटनाओं से शिक्षा लेकर हमें अपने मनोबल का निर्माण करना चाहिए । हमें उनका अनुकरण करना चाहिए, जो बड़े-से-बड़े संकट में भी न घबराये, बल्कि डटकर कठिनाई का सामना करते हुए विजयी हुए । उनका अनुकरण मानसिक दृढ़ता और विजय की सीढ़ी बन सकता है ।
अंग्रेजी की एक कहावत का अर्थ है कि इच्छाशक्ति ही सब कार्यों को सफल बनाती है । मन ही बन्धन का कारण बनता है, मन ही मोक्ष का । मन को ऊँचा रखने वाला अवश्य विजयी होता है; अत: हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘मन के हारे हार है’ मन के जीते जीत । ‘ हमें हार की ओर नहीं; हमेशा जीत की ओर ही बढ़ना है और मन को दृढ़-निश्चयी बनाकर बढ़ते जाना है । सफल-सार्थक जीवन व्यतीत करने का अन्य कोई उपाय नहीं है ।
5. परहित सरिस धर्म नहिं भाई । No Act is More Pious than doing Good to Others
महर्षि वेद व्यास के विषय में लिखा है:
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम् ।
परोपकाराय, पुण्याय पापाय परपीडनम् ।।
अर्थात् महर्षि वेद व्यास ने अठारह पुराणों की रचना करने के बाद तत्त्व रूप से केवल दो बातें ही कही हैं-पुण्य प्राप्ति के लिए परोपकार और दूसरों के कष्टों से लाभ अर्जित करना ये ही दो कर्म हैं जिसमें पहला कर्म सुकर्म है और दूसरा दुष्कर्म ।
परोपकार के समान कोई बड़ा धर्म नहीं है । परोपकार शब्द दो शब्दों के मेल से बना हुआ है: पर + उपकार अर्थात् दूसरों का उपकार । परोपकार के द्वारा मनुष्य दूसरों की भलाई करता है । उसका यह सुकर्म निःस्वार्थ और आत्म त्याग के द्वारा होता है ।
परोपकारी मनुष्य अपना और पराया का भेद भूल जाता है । वह प्रत्येक कार्य को अपना ही समझकर करता है । इसलिए उसका यह कार्य सच्चाई और निष्ठा से कर्त्तव्यनिष्ठता और सत्यता के साथ आरम्भ होकर पूर्ण होता है ।
उसके इस कार्य से सर्वत्र सुख और शान्ति की स्थापना होती है क्योंकि यह समय की सबसे बड़ी आवश्यकता होती है । इसलिए अत्यन्त अपेक्षा बनी हुई है जहाँ परोपकार हुए हैं वहाँ उसकी नितान्त आवश्यकता और अत्यन्त अपेक्षा बनी हुई थी । परोपकारी व्यक्ति इस अर्थ के पर्याय और प्रतीक होते हैं अर्थात् वे समय की सबसे बड़ी आवश्यकता और अपेक्षा के प्रतिनिधि होते हैं ।
यही कारण है परोपकारी व्यक्ति अपनी जीवन लीला की तनिक भी परवाह नहीं करते हुए आत्म बलिदान किया करते हैं । वे मृत्यु का स्वागत करते हुए अपनी यश पताका को निरन्तर फहराया करते हैं । परोपकार के धर्म के समान और कोई दूसरा धर्म नहीं है अर्थात् परोपकार सबसे बड़ा धर्म है । यह धर्म पुण्य और पवित्रता का सूचक है और मानवता से ऊँचा और श्रेष्ठ देवत्व का परिचायक है ।
इसलिए इसकी महानता की कोई सीमा नहीं है । परोपकार करने वाले व्यक्ति के अन्दर इसीलिए श्रेष्ठ, उच्च और दिव्य गुणों का समावेश होता है । उसमें सच्चरित्रता और नैतिकता का उदय होता है और इससे वह दिव्य ज्योति प्राप्त करके आकर्षण और चमत्कार का केन्द्र बन जाता है । इसलिए उसका सम्मान और सभादर हर जगह से प्राप्त होता है ।
परोपकारी मनुष्य अपनी शक्ति और सामर्थ्य के समुचित उपयोग के द्वारा परोपकार करते हुए वह प्रेरणादायक कार्यों को ही चुनता है । इस प्रकार का कार्य परहित की भावना से होता है तभी तो इससे सामूहिक कल्याण की रूप-रेखा झलकती और दमकती है । परोपकारी मनुष्य सहानुभूति को उडेलता हुआ प्रगतिगामी होता है ।
परोपकारी व्यक्ति तो अपने सत्कर्मों से दीन-दुखियों, घायलों, अपंगों, अनाथों की सेवाओं के लिए विभिन्न अवसरों और स्थानों-विद्यालय, औषधालय, धर्मशालाएँ आदि की संस्थापना करके समस्त मानव कल्याणार्थ लगे रहते हैं । इसी तरह कुएँ तालाब, दान, दक्षिणा आदि का मार्ग परोपकारी अपनाया करते हैं ।
हमारे देश में और विदेशों में भी अनेक परोपकारी मानव हुए हैं जिनसे यह धरा पूर्णत: धन्य और कृतार्थ है । ईसामसीह, संत निकोलस, रंति देवे, महर्षि दधिचि, शिवि, कर्ण आदि प्रमुख परोपकारी महामानव हुए हैं । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने इन परोपकारी व्यक्तियों के महान सत्कर्मों को प्रकाशित करते हुए समस्त मानव जाति को परोपकार के मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान की है:
क्षुधार्थ रंतिदेव दिया कर स्थ धाल भी,
तथा दधिचि ने दिया परार्थ अस्ति जाल भी ।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर चर्म भी दिया ।
अनित्य देह के लिए अनादि जीवन क्यों डरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए ।।
न केवल मनुष्य ही अपितु मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीव-जन्तु भी परोपकार किया करते हैं । समस्त प्रकृति परोपकार के सत्कर्म से आबद्ध और सन्नद्ध है । वर्षा, धूप, हवा, पृथ्वी, आकाश, और अग्नि सभी हमारे लिए परोपकार किया करते हैं । इससे प्रेरित होकर हमें गोस्वामी तुलसीदास की इस काव्य-पंक्ति के अर्थ के अनुसार परोपकार करना चाहिए:
परहित सरिह धर्म नहिं भाई ।
परपीड़ा नहिं सम अधमाई ।।