व्यक्ति जब जन्म लेता है तो उसे जन्म लेते ही माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी चाचा-चाची स्वत: ही मिल जाते हैं । लेकिन जैसे ही वह घर से बाहर कदम रखता है, वह अकेला होता है । अपने घर से बाहर निकलने पर वह सबसे पहले जिसका सहकर्मी, सहयोगी बनता है वही उसका मित्र होता है ।
एक निष्ठापूर्ण मित्रता निश्चय ही ईश्वर की देन है, यह मनुष्य के पुण्य कर्मों का फल है । कितने ही ऐसे मनुष्य दुनिया में हैं, जिनको मित्रता का कुछ पता ही नहीं । वे दुनिया की भीड़ में चले जाते हैं और बस चले ही जाते हैं । कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें मित्रता की आवश्यकता ही नहीं, यह नहीं हो सकता क्योंकि पारंपरिक या अपारंपरिक रूप से हर मनुष्य किसी न किसी से मित्रता करता है ।
चाहे वह ईश्वर से करे, चाहे किसी मनुष्य से, चाहे अपने संबंधियों से या चाहे फिर किसी पालतु जानवर से । मित्रता मनुष्य का सहारा है उसके विचारों को कोई सुनने वाला, उसके साथ रहने वाला, साथ हँसने वाला, खेलने वाला, घूमने वाला, पढ़ने वाला, उसे हमेशा से ही चाहिए ।
एक सच्चा मित्र किसी भी खजाने से कम नहीं है । कहा भी जाता है, ‘एक और एक ग्यारह होते हैं ।’ उसी प्रकार एक सच्चा मित्र निश्चय ही ईश्वर की बहुत बड़ी देन है । कहते हैं, ‘निंदा हमारी जो करे मित्र हमारा होय ।’ यह प्राचीनकाल से चली आ रही एक उक्ति है जिसका तात्पर्य था कि हमें सुधारने वाला, सही दिशा पर ले जाने वाला ही हमारा सच्चा मित्र है ।
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परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई हमारी लगातार निंदा करता रहे उसको हम अपना मित्र कहें । निंदा भी सही ढ़ंग से की जानी चाहिए क्योंकि गलत समय पर की गई निंदा व्यक्ति को आत्मविश्वासहीन बना सकती है और फिर उस आत्मविश्वासहीनता से ऊपर उठना बहुत मुश्किल हो जाएगा ।
इसलिए मित्र बनाते समय हम अपने और उसके मानसिक स्तर को समझें, टटोलें और स्वीकार करें । यदि वह आपसे बढ़कर है तब भी आप अभिमान त्यागकर उसको स्वीकार करें । यदि वह आपसे कमजोर है तब भी आप उसके साथ सहानुभूति रखकर उसे स्वीकार करें । यही अच्छी मित्रता के मानदंड हैं ।
वास्तव में मित्रता आनंद के लिए होती है । व्यक्ति को अपने जीवन नें आनंद चाहिए, वह आनद पाने के लिए निरंतर यत्न करता है, उसे जब अपना साथी मिल जाता है तो वह उसे अपना मित्र बना लेता है । मित्र के साथ निस्संदेह हम अपने मन की सारी बातें कर सकते हैं, अपनी परेशानियों और दुखों का निवारण कर सकते हैं, परंतु जैसे हर अधिकार के साथ एक कर्त्तव्य जुड़ा होता है, उसी प्रकार मित्रता का आनंद उठाने के साथ भी एक कर्त्तव्य जुड़ा होता है ।
एक पुरानी कहावत के अनुसार, ”जरुरत के समय मित्रता निभाने वाला व्यक्ति ही वास्तविक मित्र है ।” एक मित्र की वास्तविकता सभी को पता होनी जरूरी है, क्योंकि हमने मतलब के दोस्त बना लिए होंगे तो हमें अपने ऊपर ही दया आने लग जाएगी ।
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हमारा आत्मविश्वास कम हो जाएगा और हमारा सारा प्रेम खत्म हो जाएगा । हम बाहर से भले ही बिल्कुल ठीक लगें, लेकिन हम अंदर से अपने विचारों और आदर्शों से भटक कर निराश हो जाएंगे । इस हालत में यदि किसी को सच्ची मित्रता न मिले, तो वह व्यक्ति निराश न हो और कला या शौक को ही अपना परम मित्र बना ले ।
यह एक ऐसी मित्रता होगी, जो बिना किसी शोर-शराबे और अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति की हमेशा मदद करेगी । मित्रता अपने भौतिक रूप में वही है, जो हमारे साथ रहती है और हर कार्य में सहयोगी बनती है । वह मित्र जो सच्चा है, हमें जीवन के प्रति विश्वास दिलाता है, वह त्याग करता है, वह सत्यनिष्ठा और उदारता से हमारे हृदय में अपनी जगह बना लेता है ।
ऐसा मित्र हमारे परिवार का एक सदस्य भी बन जाता है । वह हमारे लिए उतना ही महत्वपूर्ण हो जाता है, जितना कि परिवार का कोई सदस्य । जब हमको हमारे परिवार के बाहर एक ऐसा मित्र मिल गया, तो फिर हमें ईश्वर से और क्या चाहिए ? वह मित्रता के रूप में हमें ईश्वर का ही वरदान है ।
मित्रता प्यार और सम्मान का नाजुक रेशमी धागा है, जो दो प्राणियों को एक-दूसरे से बाँध देता है, जबकि उनका खून का रिश्ता भी नहीं होता । यह व्यक्ति की अमूल्य धरोहर भी है, जो जीवन में मधुरता का संचार कर देती है । व्यक्ति को अपने जीवन में बहुत से सुख मित्रता द्वारा ही प्राप्त होते हैं ।
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मानव की सामाजिकता ही उसे मित्र बनाने पर मजबूर करती है । जीवन की यात्रा में हम असंख्य लोगों से मिलते हैं, परंतु हर एक को हम अपना मित्र नहीं बना लेते । जबकि मैत्रीय नाव की कल्पना हम हमेशा करते रहते हैं । हमारे मित्र हमारी रुचियों, स्वभाव आदि की वजह मे ही नहीं बनते, बल्कि कभी-कभी हमारी मित्रता सिर्फ वास्तविकता के कारण हो जाती है ।
हम सभी का जीवन छोटा-सा है । इसमें हँसी-खुशी के क्षण थोड़े ही हैं, जबकि दुखों और चिंताओं की घड़ियाँ लंबी होती है । मित्रता दुख-भरे जीवन में सूर्य के प्रकाश के समान आनंद ना वातावरण बना देती है ।
कभी-कभी समृद्धि भी मित्र बनाती है, परंतु संकटकाल उनकी न्वीक्षा लेता है ।
अत: मित्रता वही है, जो जीवन के हर परिवर्तन में निरंतर सुखदायक हो । शैक्सपीयर के ”मर्चेट ऑफ वेनिस” में दिखाई गई मित्रता अविस्मरणीय है । मित्र अपने मित्र के लिए जान देने के लिए भी तैयार हो
जाता । ऐसा ही एक उदाहरण है जिसमें एंटेनियो अपने मित्र बेसेनिया की सहायता करने के लिए अपना मांस तक देने के लिए तैयार हो जाता है ।
महाभारत में भगवान कृष्ण अपने प्रिय मित्र सुदामा से छेड़-छाड़ तो करते थे, परंतु जब वह निर्धन हो गया तो उसकी सहायता उन्होंने की । कृष्ण जैसे धनवान और सुदामा जैसे गरीब की यह कथा आज तक मशहूर है । उस मित्रता में कृष्ण की उदारता देखने का मौका मिलता है ।
एक दूसरे उदाहरण में हम कर्ण की दुर्योधन से मित्रता का उदाहरण देखते हैं जब कर्ण को पता चल जाता है कि पांडव उसके भाई हैं, तब भी वह उनके साथ नहीं मिलता । वह दुर्याधन के साथ रहने मे ही अपना धर्म और कर्त्तव्य मानता है । इस मित्रता से हमें उसकी कर्त्तव्यपराणयता और धर्म-ज्ञान के बारे मे जानकारी मिलती है ।
इसलिए अपने मित्र से मित्रता बनाए रखने के लिए, हमें बहुत सर्तक रहने की आवश्यकता है । इसके लिए व्यक्ति को बहुत अधिक आत्म-नियंत्रण करना चाहिए और अपने मित्र से व्यवहार करते समय विनम्रतापूर्ण युक्तियों का सहारा लेना चाहिए ।