भारतीय राजनीति में आज तीव्र गति से परिवर्तन हो रहा है । आज लोकतंत्र में राजनीति समाज का एक अंग बन गई है । भारतीय लोकतंत्र में भी राजनीति आज पूरी तरह से छाई हुई है । मतदाता ही राजनीति का विकास करता है । सम्पूर्ण सत्ता जनता में निहित रहती है ।
जहाँ या जब भी इस सार्वभौमिक सत्ता को प्रतिबंधित या अवरोधित किया जाता है, लोकतंत्र शक्तिविहीन तथा प्रवाहविहिन होने लगता है । आज लोकतंत्र की शक्तिविहिन होने के कई मुख्य कारण हैं, जैसे-प्रलोभन,
जगह-जगह आतंकपूर्ण हिंसा, स्वार्थ और नैतिक विचारों तथा व्यवहार में कमी, जिसके कारण लोकतंत्र की वास्तविक पहचान कम होती जा रही है ।
आधुनिक युग में राजनीति का अपराधीकरण एक ऐतिहासिक सत्य है । राज्य के निर्माण का चाहे कोई भी कारण माना जाए, परन्तु राज्य के गठन का मुख्य कार्य समाज में विधि व्यवस्था की स्थापना करना तथा समान रूप से न्याय प्रदान करना और असहाय जनता को संरक्षण प्रदान करना होता है ।
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इतिहास बताता है कि समय-समय पर राजनीति में अपराध होते रहते हैं, परन्तु राजनीति में अपराधीकरण में मुख्य बात यह है कि इसमें आम जनता हिस्सेदार नहीं रहती थी । प्राचीन काल में सामंतों या राजाओं के आपसी संघर्ष आम जनता के जनजीवन को उस सीमा तक प्रभावित नहीं करते थे जिस सीमा तक आज आधुनिक काल में कर रहे हैं ।
उस काल की राजनीति के अपराधीकरण और आतन की अपराधमूलक राजनीति में मौलिक अंतर है । स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले राजनीतिक उद्देश्यों से आपराधिक घटनाएँ होती रही है तथा आज भी हो रही है । साम्प्रदायिक दंगों के कारण राजनीति पर विशेष प्रभाव पड़ता है ।
विशेष रूप से राजनीति का अपराधीकरण किसी राजनीतिक नेता या समुदाय के इशारे पर अपराधी लोगों के द्वारा होता है । आज भी कुछ हद तक ऐसा ही हो रहा है । गुजरात में विधानसभा चुनावों के पूर्व तथा पिछले आम चुनाव से पहले कई राज्यों में भी राजनीतिक दंगे हुए ।
इन सबमें अपराधी गुप्त रूप से राजनीति को प्रभावित करते रहे हैं । चुनावों के दौरान भी मतदाताओं को अनेक प्रलोभन देकर खरीदा जाता है, या विशेष भय दिखाकर उन्हें मतदान करने को कहा जाता है ।
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इन सब आपराधिक मामलों में अपराधी समाज के सामने अपना वास्तविक मुखौटा नहीं लाते हैं । आज राजनीति पूरी तरह से बदल गई है ।
आज एक अपराधी सम्मान सहित राजनीतिक नेता बन गया है तथा राजनेता बनने के बाद भी वह आपराधिक कार्यों में लिप्त है । आज तक जनता जिसके विरुद्ध शासन से शिकायत करती रही है, वही आज शासक के रूप में हमारे सामने विद्यमान है । राजनीतिक नेताओं की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है ।
राजनेता आज किसी न किसी तरीके से चुनाव जीतने में लगे हुए हैं । चुनाव जीतने के चक्कर में उन्होंने धन का दुरुपयोग करके अपेराधियों को खरीदना शुरू कर दिया है । यह अपराधी अधिकतर तस्कर, आतंकवादी, माफिया गिरोह के लोग होते थे, जो जनता को आतंकित करके स्वयं मतदान कर देते हैं ।
इन अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था, अत: प्रशासन भी इनके खिलाफ कुछ नहीं कर सकता है । इस प्रकार से लोगों का विश्वास राजनेताओं से उठ गया तथा अपराधियों का प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता गया । 1980 के चुनावों में बड़े पैमाने पर अपराधियों ने चुनाव लड़ा, जिनमें से अधिकतर राजनेता चुनाव जीत भी गए ।
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उनकी जीत ने समाज के युवाओं को अत्यधिक प्रभावित किया और बेरोजगार युवक तेजी से इस ओर मुड़े । 1989 के आम चुनाव में यह प्रवृत्ति और भी तेज हो गयी । फलस्वरूप राजनीति का अपराधीकरण तेजी से होने लगा, इसके परिणामस्वरूप हर ओर से अपराधी राजनीति में कूद पड़े ।
दो दशकों से भारतीय राजनीति में तेजी से बढ़ रहे अपराधीकरण ने विकराल रूप धारण कर लिया है, जिसके कारण भारतीय लोकतंत्र की जड़ें खोखली हो गई हैं । आज देश की राजनीति में आपराधिक मामले आम बात हो गए हैं । राजनीतिज्ञों तथा अपराधियों के बीच सहयोग एक ओर तो समाज को, देश को खोखला तथा कमजोर कर रहा है, वहीं दूसरी ओर यह देश के विकास में भी बाधक बना हुआ है ।
आज राजनीति देशसेवा नहीं, बल्कि विलासितापूर्ण जीवन जीने तथा भ्रष्ट तरीके से अपना प्रभाव बढ़ाने का माध्यम बन गई है । राजनीति में अपराधीकरण कई कारणों से बढ़ा है । जो निम्नलिखित है:
(1) राजनीति में भ्रष्टाचार के बढ़ने के कारण
(2) प्रशासनिक भ्रष्टाचार में राजनीति का सहयोग
(3) राजनीतिज्ञों द्वारा अपराधियों का संरक्षण किया जाना
(4) राष्ट्रभक्ति तथा राष्ट्रीय दायित्व के प्रति उपेक्षा
इन सब कारणों से आज राजनीति में अपराधीकरण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है । राजनीति का ऐतिहासिक पक्ष देखने पर पता चलता है कि पहली बार 1967 में आतंकवादियों और माफिया गिरोहों के संरक्षकों में विद्रोह खुलकर सामने आया । इसी प्रकार 1971 में राष्ट्रीय एकता, अखंडता, गरीबी हटाओ और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के भुलावे ने राजनीति की दहलीज पर एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया, जिसे पुराने अपराधी सरदारों ने आगे बढ़ाया, लेकिन 1971 की क्रांति के नारे ने युवा वर्ग को आंदोलित कर दिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भ्रष्टाचार के आरोप में इलाहाबाद उच्च न्यायालय से पराजित हुई, जिससे आपातकाल का संकट गहराया ।
इसके बाद राजनीति का खुला अपराधीकरण हुआ । इसके बाद 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या और सहानुभूति की लहर ने जनसमर्थन के नाम पर ऐसे आपराधिक तत्वों को संसद एवं विधानसभा तक पहुँचा दिया, जो नई पीढ़ी के लिए आदर्श बन गया ।
इसके बाद आतंक का वातावरण बनाकर फिर राजनीति के माध्यम से सत्ता में जाने का सिलसिला तेजी से आरम्भ हो गया । जिसका खुला स्वरूप 1989 के आम चुनाव में सामने आया । इसी प्रकार आज की राजनीति में भी चरित्रहीन तथा आतंकवादी प्रवृत्ति के लोग निरंतर आ रहे हैं तथा हमारे देश की सत्ता पर राज कर रहे हैं ।
आज हमारे सामने सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि राजनीति के इस अपराधीकरण को कैसे रोका जा सकता है । इसके लिए जब तक प्रत्येक नागरिक में अपने अधिकार के साथ-साथ दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्य की भावना नहीं जागृत होती, कोई भी कानून इस क्रम को रोकने में सफल नहीं हो सकता ।
अपराधियों को दंडित किया जाना चाहिए तथा उनके मुकदमों की शीघ्र ही सुनवाई की जानी चाहिए तथा उनका राजनीति में प्रवेश बंद कर देना चाहिए । इसके अतिरिक्त मतदान से कम से कम 20 दिन पूर्व चुनाव आयोग की ओर से स्थान-स्थान पर प्रशिक्षण देना चाहिए ।
प्रत्येक नागरिक को मत के प्रति जागरूक बनाना होगा । यदि प्रत्येक मतदाता मत के प्रति जागरूक हो जाता है, तो वह एक ईमानदार व सही व्यक्ति को प्रतिनिधि के रूप में चुन सकता है । हमें राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त करने की कोशिश करनी चाहिए ।