हममें से अधिकतर व्यक्तियों के लिए बुढ़ापा एक अनचाहा और अवांछनीय शब्द है । न केवल शब्द बल्कि इसका अर्थ भी अवांछनीय है । जैसे ही हमारे कानों में यह शब्द पडता है हमारी आखों के आगे जर्जर दुर्बल और झुर्रीदार शरीर का खाका उभर आता है ।
सामान्यत ऐसा माना जाता है कि बुढ़ापे में आदमी की कार्यक्षमता कम हो जाती है और वह किसी काम का नहीं रहता । वृद्ध व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक श्रम वाले कार्य न सौंपे जाने के पीछे शायद यही वजह हें । जब बूढ़े व्यक्तियों को यह तो बूढ़ा है, यह काम कैसे करेगा जैसी उक्तियाँ सुननी पड़ती है उनके लिए उनका बुढ़ापा एक अभिशाप बन जाता है ।
बूढ़े व्यक्तियों और बुढ़ापे को लेकर कुछ मुहावरे भी बना दिए गए हैं उदाहरणस्वरूप जब कोई व्यक्ति ढंग के कपड़े पहनकर स्मार्ट बन कर रहना चाहता है तो उसे बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम कहकर चिढ़ाया जाता है । जब कोई बूढ़ा व्यक्ति कुछ लाखने या पढ़ने की कोशिश करता है तो उसे ‘बूढ़ा तोता राम-राम क्या पड़ेगा’ जैसी कहावतें सुनाकर हतोत्साहित किया जाता है, और तो और मुहावरेबाज लोग व्यक्तियों के खाने-पौने का मजाक भी ‘न पेट में आँत, न मुँह में दाँत’ जैसी कहावतों के माध्यम से उड़ाते हैं ।
इस प्रकार बूढ़े-बुजुर्गों को हर तरह से अनुपयोगी और नाकारा मान लिया जाता है । वृद्धावस्था को एक अपमानजनक अवस्था समझ लिया गया है । परंतु, वास्तव में ऐसा नहीं है । बुढ़ापा नुस का वह पड़ाव है जिससे सौमान्यत हर व्यक्ति को गुजरना पडता है । लेकिन बुढ़ापे की अवस्था को अपमानजनक मानना किसी मृगई तरह उचित नहीं है ।
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यह तो उस का वह दौर होता है जिस तक आते-आते व्यक्ति अपनी पूरी जिंदगी का सार या निचोड़ अपने पास संजों कर रख चुका होता है । यह तो खुशी और संतुष्टी का दुर्लभ दौर है लंबी प्रतीक्षा के बाल संतोष का मीठा फल चखने वन दौर है ।
उम्र भर की स्मृतियों, अनुभवों, हार-जीत, सुख-दुख आदि की अमूल्य और अकूत पूंजी का नाम ही बुढ़ापा है । अत: इसे किसी भी प्रकार निरर्थक नहीं कहा जा सकता । सभी को बचपन मैं एक बात बार-बार समझाई जाती है कि ‘जीवन एक पहेली है ।
यद्यापि हम इसे एक घिसा-पिटा मुहावरा अथवा कहावत कहकर इसका उपहास कहावत इसका उपहास कर सकते हैं । लेकिन यह बात सच है कि जीवन एक पहेली है और इस पहेली का अर्थ हमें बुढ़ापे की दहलीज पर पहुँचकर ही समझ में आता है । जीवन की मूलता और खूबसूरती का सही और सच्चा अनुभव हमें उम्र के इसी दौर में होता है ।
कहावत भी है कि बच्चा-बूढ़ा एक समान । कहीं इसका यह अर्थ तो नहीं कि हम चिर-अबोध हैं । यदि कुछ बौद्धिक परिपक्वता हम प्राप्त भी होती है तो वह बुढ़ापे में ही प्राप्त हो पाती है । प्राय घरों में माता-पिता तथा स्कूलों में शिक्षक बच्चों को विभिन्न प्रकार की बातें समझाते हैं । वे कई बार अपनी बात कहने और समझाने के लिए विभिन्न प्रकार के सूत्र-वाक्यों का प्रयोग भी करते हैं ।
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परंतु हमारी गलती यही रहती है कि हम उनकी नसीहतों और सुत्र-वाक्यों का अर्थ समझने का प्रयास ही नहीं करते । कई बार हम उनके मुख से जैसा बोओगे वैसा काटोगे तथा जहाँ चाह वहाँ राह जैसी विभिन्न उक्तियाँ नसीहतों के रूप मैं सुनते है लेकिन उनकी बात का मर्म हम तब ही समझ पाते हैं जब हमें ठोकर लगती है ।
वास्तविकता तो यह है कि इस प्रकार के मुहावरे और कहावतें हमारे पूर्वजों या बड़े-बूढ़ों द्वारा रचा गया शब्दजाल नहीं होते बल्कि ये तो उनके अथाह अनुभव भंडार से मिले कुछ अनमोल मोती हैं जो उन्होंने जीवन को स्वीकार तथा समझकर अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए सहेज कर रखे होते हैं ।
वास्तव में इस प्रकार के सूत्र वाक्य कह कर हमारे अध्यापक और माता-पिता हमें हतोत्साहित नहीं करते बल्कि जीवन और दुनिया को समझने के कुछ नीति-निर्देश प्रदान करते हैं । उनका ध्येय हमें हर तरह के संघर्षों के लिए सक्षम बनाना होता है । इसीलिए हमें अपने बड़े-बुजुर्ग की पुरानी और घिसी-पिटी-सी लगने वाली बातों को अनदेखा नहीं करना चाहिए ।
इसके बजाय हमें उनका सम्मान करना चाहिए । किसी प्रकार का संकट आने पर हमारे बड़े-बुजुर्ग अपने अनुभवों के बल पर हमारी मदद करने मैं समर्थ होते हैं । बुढ़ापे की कई विशेषताएँ होती है जिनमें सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि बूढ़े आदमी मैं बचपना तो अवश्य होता है लेकिन वह अबोध नहीं होता ।
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उसमे एक प्रकार की परिपक्वता आ जाती है । कोई घटना या हादसा उसके लिए नया नहीं रहता वह उनका सामना करने पर चौंकता या हतप्रभ नहीं हाता न ही घबराता है । इसका कारण यही होता है कि वह स्रय ऐसी परिस्थितियों से पहले गुजर चुका होता है । वह जीवन के सभी रंग देख और समझ चुका होता है ।
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि बुढ़ापा न तो अवांछनीय है और न ही अभिशाप बल्कि यह समाज और मानवता के लिप्तयू एक वरदान ही है । अत: हमें अपने बड़े-बूढ़ों की उपेक्षा न करके उनका सम्मान करना चाहिए । वे हमारे लिए स्नेह, अनुभव और ज्ञान की पूंजी हैं ।