वर्तमान में मैं एक पुस्तक हूं । मुझे पाकर मानो मानव ने एक अमर निधि प्राप्त कर ली है । मैं उसे सदा ज्ञान-विचारों का दान देती रहती हूं । मुझे आज ज्ञान-विज्ञान और समझदारी का, आनन्द और मनोरंजन का खजाना माना जाता है परन्तु आदर-मान की यह स्थिति मुझे एकाएक या सरलता से नहीं मिल गई है । मेरा यह रूप सृष्टि-मानव की तपस्या और साधना का फल है ।
सृष्टि के आदिकाल में तो बड़ी-बड़ी शिलाओं के ऊपर चित्रों तथा तस्वीरों के रूप में ही मेरा निर्माण होता था । वह मेरा रूप आज भी शिलाओं पर या कन्दराओं में देखा जा सकता है । लेखन कला की प्रगति के साथ मेरा रूप बदला फिर मुझे ताड़ व भोज पत्रों पर लिखा जाने लगा । आज भी अजायबघर में मेरा यह रूप देखने को मिल सकता है ।
कुछ और समय पश्चात् कागज का आविष्कार हुआ तो मेरा निर्माण कागज पर होने लगा । यह कार्य सर्वप्रथम चीन में प्रारम्भ हुआ था । कागज के निर्माण तथा मुद्रण कला की प्रगति ने तो मेरी काया ही पलट दी । फिर तो मैं नए-नए रूपों में अपने पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत होने लगी । मेरा आवरण भी आकर्षक बन गया । मेरी सुरक्षा के लिए मुझ पर सुदृढ़ जिल्द भी चढ़ाई जाने लगी ।
मेरा सृष्टा लेखक, कवि, इतिहासकार, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबन्धकार तथा एकांकी लेखक कोई भी हो सकता है । मेरा यह लेखक पहले अपने विचारों तथा भावों को लेखनी द्वारा कागज पर लिपिबद्ध करता है । मेरा यह प्रारम्भिक रूप ‘पाण्डुलिपि’ कहलाता है । फिर मेरे पाण्डुलिपि रूप को कम्पोजिटरों के हाथों में दे दिया जाता है जो मुझे टाइपों के सूत्र में बांध देते हैं ।
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इसके बाद एक-एक फार्म को मशीन पर छपने भेज दिया जाता है । छपने के पश्चात् मैं दफ्तरी के हाथों में भेज दी जाती हूँ । वह एक-एक फार्म को मोड़कर सभी फार्मों को इकट्ठा करता है । जिल्द बंधती है फिर उस पर सुन्दर-सा आवरण चढ़ाया जाता है । तत्पश्चात् इस पर मेरा और लेखक का नाम सुन्दर अक्षरों में लिखा जाता है ।
इस प्रकार मुझे वर्तमान स्वरूप और आकार मिल पाया और मैं पुस्तक कहलाने लगी । फिर मैं दुकानदारों के माध्यम से पाठकों के हाथों में पहुंच पाई जो मेरे सच्चे साथी हैं । मैं ज्ञान-विज्ञान, आनन्द-मनोरंजन का भण्डार कहलाती हूं । मेरे अभाव में पढ़ाई-लिखाई कतई संभव नहीं । जिस देश व समाज में मेरा सम्मान नहीं होता, वह असभ्य तथा अशिक्षित समझा जाता है ।