विस्तार बिंदु:
1. नारी के गुण ।
2. प्राचीन भारतीय समाज एवं धार्मिक ग्रंथों में नारी को प्राप्त सम्मानजनक स्थिति ।
3. पुरुषों एवं महिलाओं की शारीरिक संरचना में प्राकृतिक अंतर ।
4. नारी की शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विशिष्टताएं ।
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5. निष्कर्ष ।
नारी ईश्वर की एक अद्वितीय कृति है । नारी के अभाव में सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती । वह एक ऐसा छायादार वृक्ष है, जिसकी छाया तले प्रत्येक प्राणी अपनी समस्त व्यथा को भूल जाता है । नारी ब्रह्म विद्या है, श्रद्धा है, आदि शक्ति है, पवित्रता है, शालीनता है, सद्गुणों की खान है और वह सब कुछ है जो इस प्रकट विश्व में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।
नारी कामधेनु है, अन्नपूर्णा है, साक्षात् सिद्धि है । कोमलता, सहृदयता, निष्पक्षता, पवित्रता, मधुरता, त्याग, आदि दिव्य गुणों की प्रतिमूर्ति नारी मानव-मात्र के समस्त अभावों, संकटों, आदि का निवारण करने में सक्षम है और वह ऐसा करती भी है ।
नारी वह सनातन शक्ति है जो अनादिकाल से उन सामाजिक दायित्वों का वहन करती आ रही है, जिन्हें यदि केवल पुरुष के कंधों पर ही डाल दिया जाता तो वह अब तक कभी का लड़खड़ा गया होता ।
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समस्त प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों में नारी की गरिमा, गौरव, सम्मान एवं समाज में उसे प्राप्त आदरपूर्ण स्थिति का उल्लेख प्राप्त होता है । मनुस्मृति में नारी की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है कि, ”जहां नारी का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता वहां प्रगति एवं विकास की समस्त कियाएं समाप्त हो जाती हैं ।”
जिस घर में सद्गुणसम्पन्न नारी सम्मानपूर्वक निवास करती है, उस घर में लक्ष्मी जी चिर निवास करती हैं । नारी समाज का वह आधार-स्तंभ है, जिसके अभाव में सृष्टि की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती । नारी ही वह शक्ति है जिसने पुरुष की भौतिक जीवन से संबंधित लालसाओं को अपनी पवित्रता से रोककर उसे सीमाबद्ध किया और उसे प्रेम की दिशा प्रदान की ।
वैदिक काल से ही दुर्गा, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में तीन आदि शक्तियां समाज की आराध्य देवियां मानी जाती रही हैं । वेदों में नारी का गौरवमय स्थान इस तथ्य से भी ज्ञात होता है कि नारी को ही घर कहा गया है ।
नारी को अपने गुणों एवं योग्यता के आधार पर ही समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त है । कोई पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व अथवा कोई धार्मिक अनुष्ठान नारी की उपस्थिति के अभाव में सम्पन्न नहीं हो सकते । नारी के लिए सर्वाधिक प्रचलित शब्द हैं-स्त्री । महर्षि पतंज्जलि के अनुसार, ‘स्तास्यति अस्था गर्भ इति स्त्री’ अर्थात् ”उसके भीतर गर्भ की स्थिति के कारण उसे स्त्री की उपाधि से विभूषित किया जाता है ।”
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वेदों के अनुसार, जिस प्रकार ब्रह्म ज्ञान का अधिष्ठाता है, यज्ञ का संचालनकर्ता है और ज्ञान-विज्ञान में श्रेष्ठ होता है । अत: यज्ञ में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया जाता है । ठीक उसी प्रकार नारी को ज्ञान-विज्ञान में दक्ष होने के कारण ब्रह्म की उपाधि प्रदान की गई है ।
आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों का कथन है कि, प्राकृतिक रूप से नारी एवं पुरुषों की शारीरिक संरचना में कुछ अंतर पाया जाता है, जिनके आधार पर किसी अस्थिपंजर को देखकर ही उसके नर अथवा नारी होने का सरलतापूर्वक पता लगाया जा सकता है ।
इन वैज्ञानिकों के अनुसार, महिलाओं की हड्डियाँ पुरुषों की हड्डियों की अपेक्षा छोटी, चौड़ी तथा सरल होती हैं । महिलाओं के मस्तक की ऊंचाई अपेक्षाकृत कम, नीचे का जबड़ा हल्का, दांत छोटे, ठोड़ी ऊंची, सीने के बीच की हड्डी छोटी तथा टेढ़ी, छाती पतली, रीढ़ की हड्डियों के गुटखे पतले व गहरे होते हैं ।
इन लक्षणों को देखकर नारी के अस्थिपंजर की पहचान सरलतापूर्वक की जा सकती है । इसके अतिरिक्त आधुनिक अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि रोगों से लड़ने की क्षमता अर्थात् रोग प्रतिरोधक क्षमता पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक होती है । वैज्ञानिकों के अनुसार, महिलाओं की इस उच्च रोग प्रतिरोधक क्षमता का कारण ‘इम्यूनोग्लोकुलीन एम’ नामक एक विशेष प्रकार का प्रोटीन है ।
इस प्रोटीन का निर्माण पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के शरीर में अधिक होता है । शरीर की रक्षा के लिए यह एक शक्तिशाली घटक है । यही कारण है कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ दिनचर्या व्यतीत करती हैं ।
महिलाओं के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में एक अतिमहत्वपूर्ण, तथ्य यह है कि उनमें एक ‘इस्ट्रोजन’ नामक एक ऐसा हार्मोन पाया जाता है, जिसे प्रकृति का महिलाओं को उपहार कहा जा सकता है । यह हार्मोन किसी प्रकार के हृदय रोग से दूर रहने में महिलाओं की सहायता करता है ।
यही कारण है कि महिलाओं में पुरुषों की अपेक्षा किसी भी प्रकार के रोग अथवा कष्ट को सहन करने की क्षमता अधिक होती है ।
अनुसंधानों से यह सिद्ध हो चुका है कि किसी भी समस्या से पुरुष अधिक तनावग्रस्त होते हैं, जिससे उनके हृदय की धड़कन अधिक तीव्र हो जाती है, जबकि उसी समस्या के प्रति महिलाओं के हृदय की धड़कन में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता और न ही उत्तेजना बढ़ाने वाले हार्मोन ‘एड्रिनेलिन’ का स्राव अधिक मात्रा में होता है । पुरुषों में अधिक हृदयाघात का यही कारण है ।
ईश्वर ने नारी को अनेक रूपों में जगत कल्याण की भावना से इस नश्वर संसार में अवतरित किया । माता के रूप में नारी ममता, करुणा, वात्सल्य, सहृदयता जैसे सद्गुणों से युक्त है । सभी कालों में मां को ईश्वर के समान या उससे भी ऊंचा बताया गया है और उसके कदमों के नीचे स्वर्ग की कल्पना की गई है ।
माता की महिमा का गुणगान करते हुए यह कहा जाता है कि इस पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए स्वयं भगवान को भी मां की आवश्यकता होती है अत: मां का स्थान ईश्वर से भी उच्च है ।
माता के रूप में यशोदा, त्याग के लिए पन्नाधाय, भक्ति मार्ग में मीराबाई, पत्नी के रूप में सीता एवं सावित्री जैसी अनेक नारियां समाज में प्रकट हुई और अपने तेज, आदर्श, प्रेम, त्याग और वचनों से समाज को विकास एवं प्रगति का मार्ग दिखाकर अपनी अमिट छाप छोड़ गईं ।
शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता के साथ-साथ नारी की भावनात्मक विशिष्टताओं का चाहे जितना भी गुणगान क्यों न किया जाए, कम ही होगा । जिस आंतरिक संवेदनशीलता की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार के साधनात्मक उपचार किए जाते हैं, नारी को वह जन्मजात ही प्राप्य हैं ।
अपने यौवन को निचोड़कर शिशु को अमृत समान दुग्धपान कराने वाली और शिशु की एक मुस्कान पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाली माता की भावनाओं का वर्णन भला किन शब्दों में किया जा सकता है ।
उल्लिखित विवरण से यह साफ होता है कि ईश्वर ने नारी को पुरुष सहित संसार की सभी वस्तुओं से सजीव, सक्षम, कर्तव्यनिष्ठ, कोमलता, दयालुता, सहृदयता, शालीनता आदि से परिपूर्ण बनाया है । इसी प्रकार नारी के पास वे समस्त शक्तियां हैं, जो विश्व में किसी भी अन्य प्राणी के पास नहीं है ।
धर्म ग्रंथों में जहां कहीं भी देवों और असुरों के मध्य युद्ध का उल्लेख मिलता है वहीं यह उल्लेख भी होता है जब भी कभी देवता पराजित होने लगते थे तब देवी शक्ति किसी-न-किसी रूप में उनकी सहयोगी बनकर उन्हें विजयी बनाती थीं । अत: इस समस्त विवेचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि नारी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है ।