तीन वर्णों से मिलकर बना ‘दहेज’ शब्द अपने आप में इतना भयानक डरावना बन जाएगा कभी ऐसा इस प्रथा को प्रारंभ करने वालों ने सोचा तक न होगा । दहेज प्रथा हमारे देश में प्राचीनकाल से चली आ रही है । परंपराएँ, प्रथाएँ अथवा रीतिरिवाज मानव सभ्यता, संस्कृति का अंग है ।
कोई भी परंपरा अथवा प्रथा आरंभ में किसी न किसी उद्देश्य को लेकर जन्म लेती है, उसमें कोई न कोई पवित्र भाव अथवा भावना निहित रहती है पर जब उसके साथ स्वार्थ, लोभ अथवा कोई अन्य सामाजिक दोष जुड़ जाता है तो वही अपना मूल रूप खोकर बुराई बन जाती है ।
इसी प्रकार की एक सामाजिक परंपरा है: दहेज प्रथा । प्रारंभ में विवाह के समय पिता द्वारा अपनी कन्या को कुछ घरेलू उपयोग की वस्तुएँ दी जाती थी ताकि नव दंपति को अपने प्रारंभिक गृहस्थ जीवन में कोई कष्ट न हो । कन्या का अपने पिता के घर से खाली हाथ जाना अपशकुन माना जाता था ।
उस समय दहेज अपनी सामर्थ्यनुसार स्वेच्छा से दिया जाता था । जैसे-जैसे समय बदलता गया जीवन और समाज में सामंती प्रथाएँ आती गई । यह प्रथा भी रूढ़ होकर एक प्रकार की अनिवार्यता बन गई और आज वह प्रथा भारत की एक भयंकर सामाजिक बुराई बन गई ।
ADVERTISEMENTS:
आज वह पिता द्वारा अपनी कन्या को प्रेम वश देने की वस्तु नहीं वरन अधिकारपूर्वक लेने की वस्तु बन गई है । आज पूरे भारत के सामाजिक जीवन को दहेज के दानव से अस्त-व्यस्त कर रखा है । आए दिन समाचार पत्रों में दहेज के कारण होने वाली हत्याओं और आत्महत्याओं के दिल दहलाने वाले समाचार पढ़ने को मिलते हैं ।
दहेज की माग पूरी न होने के कारण अनेक नवविवाहिताओं को ससुराल वालों की मानसिक तथा शारीरिक कष्ट सहने पड़ते हैं । दहेज के अभाव में योग्य कन्याएँ अयोग्य वरों को सौंप दी जाती हैं तो दूसरी ओर अयोग्य कन्याओं के पिता धन की ताकत से योग्य वरी को खरीद लेते हैं ।
वर तो एक प्रकार खरीद-फरोख्त की वस्तु बनकर रह गया है जिसके पास धन है प्रतिष्ठा है पद है वह अपनी कन्या के लिए योग्य से योग्य वर पा सकता है । दहेज प्रथा के कारण आज परिवार में लड़की के जन्म पर दुख मनाया जाता है और पुत्र के जन्म पर बेहद खुशी ।
भारतीय समाज में जिस दिन से किसी परिवार में लड़की का जन्म हो जाता है तो उसके माता-पिता को उसी दिन से उसके विवाह की चिंता होने लगती है तथा वे अपना पेट काटकर अपनी बेटी को दहेज देने के लिए धन जोड़ने लगते हैं । यहाँ तक अनुचित तरीके से भी धन प्राप्त करने का प्रयास करने लगते हैं ।
ADVERTISEMENTS:
आश्चर्य तो तब होता है जब कोई पिता अपने पुत्र के विवाह पर दहेज की माग करता है परंतु जब वही अपनी पुत्री का विवाह करता है तो दहेज विरोधी बन जाता है । दहेज एक ऐसी बुराई है जिसने न जाने कितने परिवारों को नष्ट किया है न जाने कितनी नववधुओं को आत्महत्या करने पर विवश किया है और कितनी युवतियों को दांपत्य जीवन के सुख से वंचित किया है ।
सरकार ने दहेज विरोधी कानून भी बना रखा है, पर उसमें अनेक कमियाँ हैं जिनका लाभ उठाकर दहेज के लोभी अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं और कानून के शिंकजे से साफ बच जाते हैं । दहेज प्रथा की बुराई को केवल कानून द्वारा रोक पाना संभव नहीं है ।
इस बुराई को दूर करने के लिए युवा-पीढ़ी को सामने आना होगा तथा दहेज न लेने-देने का प्रण करना चाहिए । साथ ही लड़कियां को आत्मनिर्भर बनाना होगा तथा कन्या को शिक्षित व अपने पैरों पर खड़ी होगी तभी वह दहेज की मांग का विरोध करने में सक्षम होगी ।
हर्ष का विषय है कि देश के युवा वर्ग में इस समस्या के प्रति अरुचि का भाव जगत हुआ है । आज के शिक्षित युवक युवतियाँ अपने जीवन साथी के चयन में भागीदार हो रहे हैं तथा दहेज का विरोध करने के लिए प्रेम-विवाह भी होने लगे हैं । दहेज की प्रथा के लिए दीपक है जिसे जन जागरण द्वारा हल किया जा सकता है । समाचार पत्र, दूरदर्शन, चलचित्र आदि इस प्रकार के जनजागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं ।