विस्तार बिंदु:
1. भारतीय अर्थव्यवस्था में नियोजन का महत्व ।
2. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक मंदी का दौर ।
3. आर्थिक उदारीकरण की नीति का अंगीकरण ।
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4. उदारवाद भूमण्डलीकरण का प्रथम चरण ।
5. अत्यधिक उदारता के खतरे ।
6. उदारवादी अर्थव्यवस्था के चलते स्वदेशी उद्योगों पर मंडराता खतरा ।
7. निष्कर्ष ।
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स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् संविधान निर्माताओं द्वारा देश के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विकास आदि की तीव्र आवश्यकता अनुभव की गई । अत: देश के त्वरित विकास हेतु आर्थिक नियोजन की पद्धति को अंगीकार किया गया । इस पद्धति के अंतर्गत पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण और उनका क्रियान्वयन किया गया ।
संविधान के अंतर्गत देश में समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना की बात कही गई है, अत: इस संवैधानिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु अर्थात् देश में समाजवादी समाज की स्थापना हेतु समाज में निर्धनता रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रत्येक सम्भव प्रयास किया गया ।
सरकार के इतने प्रयासों के पश्चात् भी स्वाधीनता प्राप्ति के लगभग 6 दशक व्यतीत हो जाने पर भी विकास की अपेक्षित दर प्राप्त नहीं की जा सकी है । इसका मुख्य कारण है-नीतियों एवं योजनाओं में जटिलता, राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार तथा जन-चेतना का अभाव ।
घरेलू उद्योग अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर पाने में सर्वथा असफल रहे, जिसके परिणामस्वरूप देश के समक्ष गम्भीर भुगतान संतुलन की समस्या उत्पन्न हो गई । भारतीय ‘अर्थव्यवस्था पर विदेशी ऋण की अप्रत्याशित वृद्धि, विदेशी मुद्रा भण्डार में गिरावट, सार्वजनिक क्षेत्र का बढ़ता व्यापार घाटा, औद्योगिक उत्पादन में भारी गिरावट दर्ज होना, सरकारी व्यय में वृद्धि, कृषि उत्पादन में गिरावट जैसी स्थिति नब्बे के दशक के आरम्भ में साधारणत: दिखाई देने लगी थी ।
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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खाड़ी युद्ध, सोवियत संघ का विघटन, अमेरिका का एकमात्र विश्व शक्ति के रूप में उभरना, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का प्रश्रय आदि घटनाओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अत्यधिक दबाव की स्थिति में ला दिया और यह दबाव इतना अधिक था कि, यदि भारत आर्थिक उदारीकरण की नीति को अंगीकार न करता तो सम्भवत: देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था ही छिन्न-भिन्न हो जाती है ।
इस स्थिति से भारतीय अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए ही 1991 में भारत सरकार ने आर्थिक उदारीकरण की नीति को अपनाया । आरम्भ में विभिन्न संगठनों द्वारा देश में आर्थिक उदारीकरण की नीति को अपनाए जाने का विरोध भी किया गया ।
उदारीकरण की नीति मुख्य रूप से उद्योगों पर नियंत्रण शिथिल करने, उद्यमियों में प्रतिस्पर्द्धात्मकता का विकास करने, सीमा शुल्क में कटौती तथा मात्रात्मक प्रतिबन्धों को समाप्त करने, विदेशी पूंजी निवेश को आकृष्ट करने एवं वर्जित क्षेत्रों में निजी क्षेत्र को प्रवेश दिलाने तथा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण पर बल देती है; ताकि उत्पादन को निर्यातोम्मुख बनाया जा सके, रोजगार के अवसरों का अधिकाधिक सृजन किया जा सके, विकास की दर तीव्र गति से बढ़े जिसके परिणामस्वरूप देश की जनता के जीवन स्तर को ऊंचा उठाया जा सके ।
उदारीकरण की नीति के अंतर्गत सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था को सरकारी तंत्र के कठोर नियंत्रणों से निकालकर बाजारोन्मुख बनाने का भरसक प्रयास किया गया । भुगतान असंतुलन की समस्या के निवारणार्थ 1991 में भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन किया गया । देश के समक्ष सोना गिरवी रखने जैसी स्थिति पुन: उत्पन्न न हो, इसके लिए अपव्यय में व्यापक कटौती की गई ।
भौतिक तरलता में वृद्धि तथा कृषि, उद्योग, परिवहन एवं संचार क्षेत्र के नियंत्रणों में पर्याप्त ढील देकर आर्थिक उदारीकरण के अल्पकालीन उपाय किए गए । औद्योगिक इकाई स्थापित करने हेतु देश में लागू अनिवार्य लाइसेसिंग प्रणाली को समाप्त करके मात्र 4 उद्योगों तक लाइसेंस दिया जाना सीमित कर दिया गया ।
बहुराष्ट्रीय निगमों (MNCs) के माध्यम से देश में विदेशी पूंजी निवेश और विदेशी तकनीकी का पदार्पण हुआ । वित्तीय एवं बैकिंग संस्थानों के निजीकरण, सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश और उनके निजीकरण को प्रोत्साहित किया गया । इसके अतिरिक्त कृषि, उद्योग एवं परिवहन के क्षेत्र में भी व्यापक परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए।
उदारवाद भूमण्डलीकरण का प्रथम चरण है । पहले राजनीतिक साम्राज्यवाद ने विश्व के निर्बल राष्ट्रों पर शासन किया तथा उनका यथाशक्ति राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि दृष्टि से शोषण
किया ।
बाद में उनकी स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् इन देशों में स्वर्णिम भविष्य की आशा से उदारवाद की अवधारणा का विकसित राष्ट्रों से आयात किया गया । नवोदित राष्ट्रों द्वारा जनहित को ध्यानागत रखकर उदारवाद की अवधारणा को अपनाया गया ।
किन्तु, कालांतर में पूंजीवादी राष्ट्रों का बोलवाला बढ़ने से उदारवाद की आंधी में जनहित पृष्ठभूमि में चला गया । वर्तमान में विश्व अर्थव्यवस्था पर अमेरिका हावी है । विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व व्यापार संगठन, आदि जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन भी अमेरिका परस्त नीतियों का ही अनुसरण करते प्रतीत होते हैं ।
कहा जाता है कि, अति हर चीज की बुरी होती है । इसी कहावत के संदर्भ में यह सत्य है कि अत्यधिक उदारता अथवा उदारवाद किसी भी संस्था, व्यक्ति अथवा राष्ट्र के पतन का कारण भी वन सकता है । इसका सर्वोत्तम उदाहरण सोवियत संघ (भूतपूर्व) है, जो कि अस्सी के दशक के अंत तक विश्व की दूसरी महाशक्ति तथा प्रमुख साम्यवादी राष्ट्र था ।
वहां मिखाइल गोर्वाचोव द्वारा उदारवादी और खुलेपन की ‘ग्लालनोस’ तथा ‘परिस्त्रोइका’ नामक नीतियों का क्रियान्वयन किया गया । इनका परिणाम 1990 में इसके विघटन के रूप में सामने आया जब इसके 15 राज्य संघ से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बन गए ।
भारत जैसे विकासशील और मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश में उदारीकरण की नीति, जो कि आरम्भ में ‘सोने की चिड़िया’ के समान दिखाई देती थी, से बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं । जन-साधारण को इसके अच्छे परिणामों की अपेक्षा कुपरिणाम अधिक भोगने पड़ रहे हैं । भारत में अब उदारवाद का भविष्य धुंधला-सा नजर आने लगा है ।
केंद्र में विराजमान होने वाली गठबंधन सरकारों (एनडीए एवं यूपीए गठबंधन सरकारें) द्वारा जिस प्रकार की लचर नीतियों का निर्माण एवं क्रियान्वयन सहयोगी दलों के दबाव में किया जा रहा है, उसका लाभ उठाकर क्षेत्रीय इकाइयां प्रत्यक्ष रूप से सिर उठा सकती हैं और यह स्थिति सम्पूर्ण भारत की एकता और अखण्डता के लिए सबसे बड़ा खतरा सिद्ध होगी ।
बहुराष्ट्रीय निगम अपने लाभ के लिए सभी प्रकार के दाव-पेंच अपनाते हैं । जनहित गौण है । हमारी बाजार अर्थव्यवस्था बिकुल लापरवाह है । जहां खाद्य पदार्थों, उपभोक्ता के आवश्यक सामानों, दवाइयों इत्यादि तक में मिलावट एक साधारण-सी बात है ।
वर्तमान में उदारीकरण की नीति के परिणामत: देश की अर्थव्यवस्था में निजीकरण और विनिवेश हावी है । इसके परिणामत: देश में अधिकांश उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन, भण्डारण एवं वितरण का कार्य निजी क्षेत्र द्वारा ही किया जाता है ।
इसके परिणामत: जनता का शोषण और दोहन अधिक हो रहा है । देश में सरकार द्वारा लगातार सब्सिडी में कमी की जा रही है, जबकि जापान एवं अमेरिका जैसे विकसित देश कृषि पर 70 प्रतिशत तक सब्सिडी प्रदान करते हैं ।
इसका परिणाम किसानों की दिन-प्रतिदिन दयनीय होती स्थिति के रूप में सामने आ रहा है । ऋण के बोझ तले दबे किसानों ने आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उठाना आरम्भ कर दिया है । उदारीकरण की बलिवेदी पर अब तक सैकड़ों किसान अपनी बलि दे चुके हैं और अभी न जाने और कितने अपनी बलि देंगे ?
उदारीकरण के दौर में सम्पन्न वर्ग जहां और अधिक सम्पन्न हुआ है वहीं निर्धन वर्ग और अधिक निर्धन हुआ है अर्थात् धनी और निर्धन वर्ग के मध्य की खाई और अधिक बढ़ी है । उदारवादी अर्थव्यवस्था के अंगीकरण के परिणामत: देशी उद्योग-धन्धे, विशेषत: लघु कुटीर उद्योग समाप्ति की कगार पर खड़े हो गए ।
सार्वजनिक क्षेत्र में सरकार द्वारा अपनाई गई विनिवेश की नीति के कारण इनमें बड़ी संख्या में विदेशी पूंजी का निवेश हुआ । लाइसेंस की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई, जिससे निजी क्षेत्र की कम्पनियां बिना किसी रोक-टोक के अपने लाभार्थ नई उद्योग इकाइयां स्थापित करने हेतु स्वतंत्र हुईं ।
निजी क्षेत्र द्वारा श्रमिकों के हितों की अनदेखी करके उनकी बड़ी संख्या में छंटनी की गई है, जिससे बेरोजगारी में और अधिक वृद्धि हुई है । भारत में श्रमिकों के विदेशी तकनीक के साथ चलने हेतु सरकार द्वारा न तो उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि हेतु योजनाबद्ध ढंग से कार्य किए गए हैं और न ही सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की रुग्णता को दूर करने तथा उनके आधुनिकीकरण हेतु ठोस उपाय ही किए गए हैं ।
इन परिस्थितियों के चलते भारतीय पूंजी निवेशकों, उद्योगपतियों एवं श्रमिकों में निराशा भी व्याप्त हुई है तथा विदेशी शक्तियों के हाथों भारतीय अर्थव्यवस्था के शोषण की स्थितियां उत्पन्न हो गईं हैं । उदारीकरण के कारण विश्व दो समूहों-विकसित और विकासशील में विभाजित हो चुका है ।
भारत सहित लगभग सभी विकासशील देशों से विकसित देशों की ओर लगातार ‘प्रतिभा पलायन’ (Brain Drain) हो रहा है । इसके कारण आर्थिक उदारवाद की दौड़ में विकासशील देश पिछड़ते जा रहे हैं । चारों ओर गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा चल रही है । चारों ओर घुड़दौड़ मची है और इस घुड़दौड़ में अस्सी प्रतिशत लोग व्यर्थ में कुचले जा रहे हैं ।
समग्र रूप में यह कहा जा सकता है कि, आर्थिक उदारवाद विकासशील देशों के लिए एक छलावे से कम नहीं है । यह धनी देशों द्वारा निर्धन देशों की अर्थव्यवस्था में सेंध लगाने की एक चाल है । वर्तमान में उदारीकरण ने नव-उपनिवेशवाद का रूप ग्रहण कर लिया है, जो कि निर्धन देशों की अर्थव्यवस्था के दोहन हेतु धनी देशों का मार्ग प्रशस्त करता है ।