जन्माष्टमी का पर्व भगवान श्रीकृष्ण की स्मृति में उनके जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है । यह त्योहार हिंदू पंचांग के भाद्रपद (भादों) माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है । लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मध्य रात्रि के समय हुआ था । इस पर्व के दिन श्रद्धालुजन व्रत रखते हैं और रात्रि को मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना करते हैं ।
मध्य रात्रि के समय श्रीकृष्ण जन्म के उपलक्ष में भक्तजन शंख, घंटे-घड़ियाल आदि बजाकर अपना हर्ष प्रकट करते हैं । जन्माष्टमी के दिन गांवों व नगरों में अनेक स्थानों पर मंदिरों में कृष्ण के जीवन से संबंधित झाकियों का प्रदर्शन किया जाता है । श्रीकृष्ण जन्माष्टमी ज्यादा व्यापक स्तर पर मनाने के कई कारण रहे हैं । कृष्ण का अवतार राम की अपेक्षा ज्यादा नवीन है ।
कृष्ण सामान्य स्तर के परिवारों के साथ रहे तथा उनके नित्य नैमित्तिक कामों में स्वयं भागीदार बने, जैसे गोचारण, गोदोहन, गोरस का विक्रय और उपयोग, यमुना पुलिन की सफाई, साज-सज्जा एवं मनोविनोद स्थली के रूप में उसका विकास, यमुना में जल कन्दुक क्रीड़ा (जमत चवसव), गोप बालाओं को विवेकी तथा आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके द्वारा किए गए कार्य सखाओं, मित्रों एवं समवयस्कों के साथ आत्मीयतापूर्ण बरताव ।
ग्रामीण युवकों को स्वस्थ बनाने के लिए दूध-दही की बिक्री पर रोक लगाना । उल्लंघन करने वाले का दूध-दही लूट लेना । दीन-दुखी असहाय तथा संकटग्रस्त लोगों की हमेशा मदद करना और अपने ‘सांकरे के साथी’ नाम को सफल बनाना ।
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श्रीराम साहित्य की अपेक्षा संस्कृत तथा हिन्दी में श्रीकृष्ण साहित्य की रचना ज्यादा हुई जिसके कारण कृष्णभक्ति का प्रचार भी काफी हुआ । कृष्णभक्ति के प्रचार के रूप में वल्लभाचार्य जैसे महान् आचार्य और उनके अनुयायी चैतन्य महाप्रभु जैसे अनेक कृष्णभक्त, कवि एवं अष्टछाप के कवियों की रचनाओं के कारण भी कृष्णभक्ति का व्यापक प्रचार हुआ ।
कविवर व्यास, शुकदेव, श्रीचरणदास, मीरा, सहजो, दयाबाई, रसखान, रहीम, सूरदास तथा रीति काल के कवियों में चिन्तामणि, मतिराम, देव, बिहारी, घनानन्द आदि ने कृष्णभक्ति और उनकी लीलाओं को जन-जन तक पहुंचाने में बहुत बड़ा योगदान किया था ।
मुसलमान सन्तों में नजीर, अनीस आदि कई ऐसे कवि हुए, जिन्होंने कृष्ण की बाल लीलाओं पर रीझकर मनभावन छन्द लिखे हैं । ‘ताज’ नाम की मुसलमान कवयित्री ने तो यहां तक लिखा:
सांवरा सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिए, तेरे नेह दाघ में निदाघ है दहूंगी मैं । नन्द के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै, हौं तो मुगलानी हिन्दुआनी है रहूंगी मैं ।
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भगवान कृष्ण का संदेश कर्म का संदेश था । उन्होंने युद्धक्षेत्र में निराश, हताश अर्जुन को जो संदेश दिया, वह सदा-सदा केवल भारत को ही नहीं, अपितु सारे संसार को अपने कर्तव्य पर अडिग रहने की प्रेरणा देता रहेगा ।
आधुनिक युग के शीर्षस्थ राजनेता तथा विचारक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गीता पर अपना कर्मयोग भाष्य लिखा । इस प्रकार वे जन-जन के मानस को आन्दोलित करने में कामयाब रहे हैं । भारत की स्वाधीनता उनकी प्रेरणा का परिणाम है ।
गांधीजी भी श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों अवतारों से बहुत प्रभावित थे । राम का आदर्श राजत्व जहां उनकी राजनैतिक साधना का लक्ष्य और रामराज्य की स्थापना उनका संकल्प था । वहीं वे अपने सभी कार्यों का निष्पादन अनासत्त भाव से करते थे । गीता पर उनके द्वारा ‘अनासक्ति योग’ नाम से लिखी गई व्याख्या ‘तिलक जी’ के कर्मयोग शास्त्र का उत्तर भाग मानी जा सकती है ।