भारतीय संस्कृति, भारत भूखंड की भौगोलिक सीमाओं से परे भी प्रसारित हुई और अनेक शताब्दियों तक उन विभिन्न देशों तथा द्वीपों में सम्राटों से लेकर सामान्य जनों तक ने भारतीय संस्कृति को अपनाए रखा । ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भारत का लंका से संबंध छठी शताब्दी ई.पू. में हुआ ।
ऐतिहासिक वृत्तांत में कहा जाता है कि विजय नाम का एक भारतीय श्रीलंका गया और वहाँ की राजकुमारी से विवाह कर लिया । उन्हीं की संतान सिंहली जाति थी । इस कथा की ऐतिहासिकता संदिग्ध है । चूंकि भौगोलिक दृष्टि से श्रीलंका भारत के बहुत समीप था, अत: वहाँ भारतीयों की संख्या बढ़ती गयी जिसके परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति का प्रसार होता गया ।
जन-जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति का प्रभाव बढ़ता गया । धर्म, साहित्य तथा कला आदि सभी क्षेत्रों में अनेक चिह्न भारत से गए जिन पर रूपों का निर्माण हुआ । बोधगया के बोधिवृक्ष की शाखा से बना पेड़ आज भी श्रीलंका के अनुराधापुर में देखा जा सकता है ।
सिमिरिया के भित्ति पर अजंता शैली का स्पष्ट प्रभाव दिखता है । लंका को पाली भाषा और ब्राह्मी लिपि बौद्ध धर्म ने ही प्रदान की । मध्य एशिया के भारत के निकट होने के कारण, इसके विभिन्न राज्यों में भारतीय व्यापारियों एवं धर्मप्रचारकों ने प्रारंभिक शताब्दी से ही भ्रमण शुरू कर दिया था । भारत और चीन को जोड़ने वाले विशाल व्यापार मार्ग मध्य एशिया से होकर ही जाते थे ।
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अत: इस प्रकार भी मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ । मध्य एशिया के कई प्रमुख स्थल जैसे यारवुंद तथा खोतान आदि स्थानों पर बौद्ध मत के प्रमुख केंद्र बने और धीरे-धीरे मध्य एशिया में अनेक बौद्ध स्तूप एवं विहार बुद्ध, गणेश, कुबेर तथा अन्य ब्राह्मण देवताओं की मूर्तियाँ, सिक्के भारतीय भाषा और लिपि में लिखे गए छोटे-छोटे अभिलेख पाए गए हैं ।
इन सभी मूर्तियों तथा सिक्कों आदि की कला पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । तिब्बत में भारतीय संस्कृति का प्रसार सातवीं शताब्दी के राजा स्त्रोग-त्सेन से प्रारंभ माना जा सकता है । कहा जाता है कि इस राजा की दो पत्नियां थीं जो बौद्ध धर्म की कट्टर अनुयायी थीं और उनके प्रभाव में आकर राजा ने न केवल खुद बौद्ध धर्म अपनाया वरन पूरे तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करवाया ।
कहा जाता है कि तिब्बत में बौद्ध धर्म के प्रसार से पहले उसकी अपनी कोई वर्णमाला नहीं थी तथा तिब्बती विद्वान संभोत ने भारत भ्रमण कर लौटने के बाद भारतीय वर्णमाला को तिब्बती भाषा के अनुसार ढाल लिया और इस प्रकार भारतीय संस्कृति का तिब्बत में प्रसार-मार्ग सुगम कर दिया ।
दक्षिणी-पूर्वी एशियाई देशों में भी भारतीय संस्कृति का खूब प्रचार-प्रसार हुआ । इन देशों के साथ भारत का संपर्क ई.पू. पांचवीं-छठी शताब्दी से ही है । ये देश मसाले और बहुमूल्य धातुओं के लिए प्रसिद्ध थे । सभ्यता की दृष्टि से पिछड़े होने के कारण इन देशों का सारा व्यापार भारतीयों के हाथ में ही था ।
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ईसा की प्रथम शताब्दी में बड़ी सख्या में भारतीय जाकर वहाँ बस गए, जिनके अभिलेख संस्कृत भाषा में प्राप्त हुए हैं । इन देशों में जाकर बसे भारतवासियों ने वहाँ के मूल निवासियों को हिंदू धर्मावलंबी बना दिया । इन देशों में आज भी सर्वत्र भारतीय संस्कृति के प्रभाव को स्पष्ट देखा जा सकता है ।
हिमालय के पार मध्य एशिया और सफ़र के पार दक्षिण पूर्वी एशिया में वृहत्तर भारत का निर्माण वस्तुत: भारतीय संस्कृति के इतिहास का स्वर्ण अध्याय है, जोकि आत्मबोध प्राप्त करने के प्रयास में संलग्न मानव की अत्यंत भव्य जीवन कथा है ।
समाज के साथ-साथ भारतीय संस्कृति भी निरंतर परिवर्तनशील रही है । अपनी परिवर्तनशील प्रवृत्ति की बदौलत ही भारतीय संस्कृति काल-कवलित होने से बच पायी है । परिवर्तन के इस क्रम में भारतीय संस्कृति ने अपनी कई प्राचीन संस्थाओं एवं अवधारणाओं की सार्थकता को समय एवं युगबोध के साथ-साथ खो दिया ।
साथ ही इनमें कई दोषों का भी सूत्रपात हुआ । वर्तमान युग में भारतीय संस्कृति का चित्र उतना गौरवशाली नहीं रह गया जितना अतीत में था । भौतिक विकास की चौंकाने वाली प्रगति ने आज देशों की सीमाएँ छोटी कर दी हैं ।
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आज स्थिति यह है कि पारस्परिक आदान-प्रदान की निर्बाध सुविधाओं के कारण कोई भी राष्ट्र अपनी निजी संस्कृति को बचा सकने में समर्थ नहीं रहा । फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि प्राचीन भारतीय ऋषियों ने जिन शाश्वत मूल्यों का उद्घोष किया था जिस पर भारतीय संस्कृति की भव्य नस्ल खड़ी हुई थी वे मूल्य आज भी उतने ही उपयोगी हैं ।
आज विश्व में विद्वेष और घृणा का माहौल है । ताकतवर देश कमजोर देशों का न केवल शोषण कर रहे हैं बल्कि उनकी प्रगति के सारे रास्ते भी बंद कर जा रहे हैं । आज पूरे विश्व में अशांति का माहौल है, जहाँ गलाकाट प्रतियोगिता द्वारा सभी देश एक-दूसरे को पछाड़ने में लगे हुए हैं ।
किसी न किसी रूप में भारत भी इसका शिकार हो रहा है । आज आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपनी गौरवमयी संस्कृति का फिर से आह्वान करे । इसके लिए समस्त भारतवासियों को एकजुट होकर काम करना पड़ेगा ।
भारत प्राचीन काल से ही अपनी संस्कृति की बदौलत विश्व में अग्रणी रहा है और आज के तेजी से बदलते हुए विश्व में उसे एक बार फिर से आगे आना होगा तथा आज के विश्वव्यापी परिवेश में सुख एवं शांति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी ।