Read this article in Hindi to learn about the top six non-renewable resources. The resources are: 1. Forest Resources 2. Water Resources 3. Mineral Resources 4. Food Resources 5. Energy Resources 6. Land Resources.
1. वन संसाधन (Forest Resources):
उपयोग और अति-शोषण (Use and overexploitation) :
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आदर्श रूप में भारत की 33 प्रतिशत भूमि पर वन होने चाहिए । आज हमारे पास केवल 12 प्रतिशत जंगलाती भूमि है । इस तरह हमारे लिए केवल मौजूदा वनों को सुरक्षित रखना ही नहीं, बल्कि अपना वन्य आवरण भी बढ़ाना आवश्यक है ।
जो लोग वनों में या आसपास रहते हैं, वे वन संसाधनों का महत्त्व प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं क्योंकि उनके जीवन और जीविका का दारोमदार सीधे-सीधे इन संसाधनों पर होता है । लेकिन शेष लोग भी वनों से बहुत लाभ प्राप्त करते हैं जिसके बारे में हम शायद ही सजग हों । जिस जल का उपयोग हम करते हैं वह नदियों की घाटियों के पास के जलविभाजक क्षेत्रों में स्थित वनों पर निर्भर होता है ।
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हमारे घर, फर्नीचर और कागज वनों से प्राप्त लकड़ी से बने होते हैं । हम अनेक ऐसी दवाओं का प्रयोग करते हैं जो वन्य उत्पादों से प्राप्त होती हैं । जो आक्सीजन हमें चाहिए उसे पाने के लिए और जो कार्बन डाइआक्साइड हम छोड़ते हैं उसे अवशोषित करने के लिए हम पौधों पर निर्भर हैं ।
किसी समय वन हमारे देश के बड़े-बड़े भागों में फैले हुए थे । हमारे देश के लोग वर्षों से वनों का उपयोग करते आए हैं । लेकिन कृषि के प्रसार के कारण वन कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह गए जिन पर अधिकतर आदिवासी जनता का नियंत्रण था । वे शिकार करते, कंदमूल जमा करते और पूरी तरह वन संसाधनों पर जीवित रहते थे । वनों का विनाश ब्रिटिश काल में एक प्रमुख कार्यकलाप बन गया जब वे अपने जहाज बनाने के लिए बड़े पैमाने पर लकड़ी लेने लगे ।
इसके कारण अंग्रेजों ने भारत में वनविज्ञान (forestry) का विकास किया । लेकिन वनों की आरक्षित और सुरक्षित श्रेणियाँ बनाकर उन्होंने स्थानीय जनता में असंतोष पैदा किया क्योंकि इस तरह ये संसाधन उनकी पहुँच से बाहर हो जाते थे । इस तरह वनों के संरक्षण में रुचि कम हुई । देशभर में धीरे-धीरे वनों का ह्रास हुआ और वे टुकड़ों में बँटने लगे ।
वनों के अति-उपयोग और विनाश का एक और काल स्वतंत्रता के बाद शुरू हुआ जब लोगों को लगा कि अब अंग्रेज जा चुके हैं और उन्हें वनों का अपनी इच्छानुसार उपयोग करने का अधिकार है । फिर तो भारत के बचे-खुचे वन तेजी से कम होने लगे । लकड़ी की कटाई 1970 के दशक तक वन विभाग का प्रमुख कार्य बना रहा । इमारती लकड़ी से राजस्व-प्राप्ति के स्रोत के रूप में वनों का उपयोग वनों का ह्रास और विनाश से वनों का महत्त्वपूर्ण कार्यों में आने वाली कमी से उपजी चिंता पर हावी हो गई ।
2. जल संसाधन (Water Resources):
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जल-चक्र वाष्पीकरण और अवपात (precipitation) के द्वारा जलीय व्यवस्थाओं को बनाए रखता है जिनसे नदियाँ और झीलें बनती हैं तथा अनेक प्रकार के जलीय पारितंत्रों को सहारा मिलता है । नमभूमियाँ स्थलीय और जलीय पारितंत्रों के बीच के रूप हैं और उनमें पौधों और जीवों की ऐसी प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो नमी पर अत्यधिक निर्भर होती हैं ।
जनता पीने का पानी, कपड़े धोने, भोजन पकाने, मवेशियों को पिलाने और खेतों की सिंचाई करने के लिए जलीय पारितंत्रों का उपयोग करती है । फिर भी संसार ताजे जल की सीमित मात्रा पर ही चल रहा है । पृथ्वी की सतह का 70 प्रतिशत भाग जल है । पर उसका 3 प्रतिशत मात्र ही ताजा जल है । इसमें भी दो प्रतिशत ध्रुवों पर बर्फ के रूप में है तथा एक प्रतिशत नदियों, झीलों और भूमिगत जलाशयों का उपयोग-योग्य जल है जिसका आंशिक भाग का ही वास्तव में उपयोग किया जा सकता है ।
विश्वस्तर पर 70 प्रतिशत जल का खेती में, 25 प्रतिशत जल का उद्योगों में और केवल पाँच प्रतिशत जल का उपयोग घरों में होता है । लेकिन ये अनुपात विभिन्न देशों में अलग-अलग हैं और औद्योगिक देशों में उद्योगों में जल की खपत अधिक है । भारत में 90 प्रतिशत जल का उपयोग खेती में, सात प्रतिशत का उद्योगों में और तीन प्रतिशत जल का उपयोग घरों में होता है ।
जल संसाधनों के समग्र प्रबंध पर विचार करना इस सदी में दुनिया के सामने मौजूद सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है । दुनिया की आबादी छह अरब से ऊपर जा चुकी है । विकासशील देशों में युवाओं के अनुपात को देखें तो अगले कुछ दशकों में इसमें अच्छी-खासी बढ़ोत्तरी होती रहेगी । इससे दुनिया में ताजे जल की सीमित मात्रा पर भारी दबाव पड़ेगा ।
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अनुमान है कि हर साल दुनिया में कुल 3800 घन किमी जल निकाला जाता है जो मात्र 50 साल पहले की अपेक्षा दोगुना है । अध्ययनों से संकेत मिलता है कि एक व्यक्ति को पीने और नहाने-धोने आदि के लिए कम से कम 20 से 40 लीटर पानी चाहिए । फिर भी, दुनिया में एक अरब से अधिक लोगों को साफ पानी उपलब्ध नहीं है और इससे भी अधिक लोगों के लिए जल की आपूर्ति अनिश्चित है ।
जल के लिए राज्यों के बीच टकराव बढ़ रहे हैं । मिसाल के लिए कर्नाटक और तमिलनाडु के मध्य कावेरी नदी के जल के लिए, तथा कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के बीच कृष्णा नदी के जल के लिए विवाद हो रहा है । अनुमान है कि भारत पर 2025 तक जल को लेकर भारी दबाव पड़ेगा ।
विश्वस्तर पर अभी भी 31 देशों को जल की कमी का सामना करना पड़ रहा है जबकि 2025 तक जल की गंभीर समस्या से 48 देश ग्रस्त होंगे । संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक नौ अरब लोगों को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ेगा । इसके कारण जल के बँटवारे के लिए देशों के बीच अनेक टकराव होंगे ।
भारत के कोई 20 प्रमुख नगर लगातार या बीच-बीच में जल की कमी का सामना कर रहे हैं । 100 देश 13 बड़ी नदियों और झीलों के पानी में हिस्सेदार हैं । भौगोलिक रूप से ऊपर स्थित जलापूर्त देश नीचे स्थित जलाभाव वाले देशों के लिए, जल की आपूर्ति में बाधा पैदा कर सकते हैं जिससे दुनिया में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो सकती है ।
उदाहरण के लिए, इथियोपिया जो भौगोलिक रूप से ऊपर नील नदी के उद्गम पर स्थित है और मिस्र जो भौगोलिक रूप से नीचे नील के मुहाने वाले भाग में स्थित है और नील पर बहुत अधिक निर्भर है । विश्वशांति के हित में ऐसे अंतर्राष्ट्रीय समझौते अनिवार्य हो जाएँगे जो ऐसे क्षेत्रों में जल का न्यायोचित वितरण संभव बनाएँ । भारत और बांग्लादेश गंगा नदी के जल के उपयोग को लेकर पहले ही एक समझौता कर चुके हैं ।
कृषि और विद्युत उत्पादन के लिए जल (Water for agriculture and power generation):
सघन सिंचाई वाली खेती, विद्युत उत्पादन तथा नगरों और औद्योगिक केंद्रों में उपयोग के लिए भारत में जल की बढ़ती माँग को बड़े बाँध बनाकर पूरा किया गया है । सिंचित क्षेत्र अगर 1900 में चार करोड़ हेक्टेयर था तो वहीं बढ़कर 1950 में 100 और 1988 तक 27.1 करोड़ हेक्टेयर हो चुका था । इस क्षेत्रफल का 30 से 40 प्रतिशत भाग बाँधों पर निर्भर है ।
बाँध घरेलू उपयोग के लिए जल की सालभर आपूर्ति सुनिश्चित करते हैं । वे कृषि, उद्योग और विद्युत उत्पादन के लिए अतिरिक्त जल भी देते हैं । पर उनके साथ पर्यावरण की गंभीर समस्याएं भी जुड़ी हुई हैं । वे नदियों के प्रवाह में बदलाव लाते हैं, प्रकृति की बाढ़-नियंत्रण की व्यवस्थाओं में, जैसे नमभूमि और जलोढ़ मैदानों में बदलाव लाते हैं, स्थानीय जनता का जीवन नष्ट करते हैं और वन्य पौधों और प्राणियों की प्रजातियों के आवासों को नष्ट करते हैं ।
गन्ने जैसी नकदी फसलों को अधिक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है । उनके लिए सघन सिंचाई जल के वितरण में असमानता लाती है । नहरों से बड़े भूस्वामी अधिक जल पाते हैं जबकि छोटे किसानों को कम जल मिल पाता है और इसकी मार उन्हें झेलनी पड़ती है ।
निर्वहनीय जल-प्रबंध (Sustainable water management):
जनता को जल की कमी के खतरों के प्रति सचेत करने के लिए ‘जल बचाओ’ अभियान आवश्यक है । दुनिया के जल संसाधनों के बेहतर प्रबंध के लिए अनेक उपाय करने होंगे ।
इनमें निम्नलिखित उपाय शामिल हैं:
i. कुछ विशालकाय परियोजनाओं के बदले अनेक छोटे-छोटे जलाशयों का निर्माण
ii. छोटे-छोटे जलग्रहण बाँधों का निर्माण और नमभूमियों की सुरक्षा
iii. मृदा का प्रबंध, छोटे जलग्रहण साधनों का विकास और वनरोपण भूमिगत जलाशयों में जल का स्तर बढ़ाते हैं जिसके कारण बड़े बाँधों की आवश्यकता कम होती है
iv. खेतिहर उपयोग के लिए नगरपालिका क्षेत्रों के गंदे जल का शुद्धीकरण और पुनर्चालन
v. बाँधों और नहरों से रिसाव की रोकथाम
vi. नगरपालिका की पाइपों से बरबादी की रोकथाम
vii. नगरीय परिवेशों के लिए वर्षाजल का कारगर संचय
viii. कृषि में जल संरक्षण के उपाय, जैसे ड्रिप सिंचाई का व्यवहार
ix. पानी के यथार्थ मूल्य की वसूली जिसके कारण लोग उसका जिम्मेदारी से और कारगर ढंग से उपयोग करें और पानी की बरबादी कम हो
x. वनों से खाली हो चुके क्षेत्रों में जहाँ भूमि की गुणवत्ता कम हुई है, पहाड़ियों की ढालों पर बंद बनाकर और नालों को रोककर मृदा प्रबंधन करने पर नमी बनाए रखने में मदद मिलती है और ह्रासमान क्षेत्रों को फिर से हरा-भरा करना संभव होता है ।
एक नदी प्रणाली के प्रबंध का सबसे बेहतर ढंग यह है कि उसके रास्ते को यथासंभव अप्रभावित रहने दिया जाए । बाँधों और नहरों से मानसून में भारी बाढ़ें आती हैं और नमभूमियों से जल निकास उन क्षेत्रों पर गंभीर प्रभाव डालता है जो भारी वर्षा होने पर बाढ़ग्रस्त हो जाते हैं ।
बाँध (Dams):
आज संसार में 45,000 से अधिक बड़े बाँध हैं जो अपने आर्थिक विकास के लिए इन जल संसाधनों का उपयोग करने वाले समुदायों और अर्थव्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । हाल के अनुमानों से संकेत मिलता है कि दुनियाभर में सिंचित क्षेत्र का 30-40 प्रतिशत भाग बाँधों पर निर्भर है ।
जमा किए गए जल का उपयोग करने वाला एक और दावेदार जल विद्युत है । दुनिया की कुल विद्युत आपूर्ति का 19 प्रतिशत भाग आज इसी स्रोत से आता है और 150 से अधिक देशों में इसका प्रयोग किया जाता है । दुनिया के दो सबसे बड़े देशों-चीन और भारत-ने विश्व के कोई 57 प्रतिशत बड़े बाँध बनाए हैं ।
बाँधों से पैदा समस्याएँ (Problems caused by dams):
i. नदियों का विभाजन और भौतिक रूपांतरण
ii. नदियों के पारितंत्रों पर गंभीर प्रभाव
iii. जनता के विस्थापन के कारण बड़े बाँधों के सामाजिक परिणाम
iv. आसपास की भूमियों में जलभराव और लवण की मात्रा में वृद्धि
v. पशुओं के आवासों की क्षति और उनके आवागमन के मार्गों के बंद होने पर उनका विस्थापन
vi. मछलियों के शिकार और जल यातायात में विघ्न
vii. जलग्रहण क्षेत्रों में वनस्पतियों के सड़ने से और कार्बन के अंदर आने से जलाशयों से हरित गैसों का निकास अभी हाल में पहचाना गया प्रभाव है ।
बड़े बाँध मूल और आदिवासी जनता के जीवन, जीविका, संस्कृतियों और आध्यात्मिक जीवन पर गंभीर प्रभाव डालते हैं । बाँधों के नकारात्मक प्रभावों से वे अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित हुए हैं और अकसर उनके लाभों से वंचित रहे हैं । भारत में बाँधों के कारण विस्थापित 160 से 180 लाख व्यक्तियों में 40-50 प्रतिशत आदिवासी हैं जबकि हमारे देश की एक अरब की जनसंख्या में वे मात्र आठ प्रतिशत हैं ।
बाँधों के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों के कारण तथा लक्ष्यों को पाने की असफलता के कारण पिछले दो दशकों में बड़े बाँधों संबंधी टकराव और तीखे हुए हैं । हाल के उदाहरणों से पता चलता है कि स्थानीय जनता की कारगर भागीदारी समेत एक पारदर्शी प्रक्रिया पैदा करने की असफलता ने प्रभावित जनता को परियोजना और उसके विकल्पों के हानि-लाभ संबंधी बहस में सक्रिय भूमिका निभाने से रोका है । समतामूलक वितरण पर परंपरागत, स्थानीय नियंत्रण का समाप्त हो जाना टकराव का एक बड़ा कारण है ।
3. खनिज संसाधन (Mineral Resources):
खनिज एक सुनिश्चित रासायनिक संरचना और सुस्पष्ट भौतिक गुणों वाला, प्रकृति में मिलने वाला पदार्थ होता है । एक अयस्क ऐसा उपयोगी या खनिजों का संयोग है जिससे धातु जैसी कोई उपयोगी वस्तु प्राप्त की जा सके और उपयोगी वस्तुएँ बनाने में जिसका प्रयोग किया जा सके ।
पृथ्वी की पर्पटी में खनिज को बनने में लाखों वर्षों का समय लगता है । लोहा, एल्युमिनियम, जस्ता, मैंगनीज और ताँबा औद्योगिक उपयोग वाले महत्वपूर्ण कच्चे माल हैं । महत्त्वपूर्ण गैर-धातु संसाधनों में कोयला, नमक, मिट्टी, सीमेंट और सिलिका शामिल हैं । खनिजों की एक और श्रेणी इमारतों के निर्माण में प्रयुक्त पत्थर, जैसे ग्रेनाइट, चूनापत्थर है ।
हीरे, पन्ने और लाख जैसे कीमती पत्थर ऐसे विशेष गुणों वाले खनिज हैं जिनको मनुष्य उनके सौंदर्य और आभूषण संबंधी मूल्य के कारण महत्त्व देता है । सोने, चाँदी और प्लैटिनम की चमक-दमक का उपयोग गहनों मे किया जाता है । तेल, गैस और कोयला जैसे खनिज तब बने जब प्राचीन काल में पौधे और मृत पशु भूमिगत जीवाश्म ईंधनों में बदल गए । खनिजों और उनके अयस्कों (ores) को उपयोग के लिए भूगर्भ से निकालना पड़ता है । इस प्रक्रिया को खनन (mining) कहते हैं ।
खनन के कार्य आम तौर पर चार चरणों में पूरे होते हैं:
i. पूर्वेक्षण (Prospecting) :
खनिज की खोज ।
ii. छानबीन (Exploration) :
भंडार के आकार, परिमाण, स्थान और उसके आर्थिक मूल्य का निर्धारण ।
iii. विकास (Development) :
भंडार को सुलभ बनाने की प्रक्रिया ताकि उससे खनिज निकाले जा सकें ।
iv. दोहन (Exploitation) :
खदानों से खनिजों की निकासी ।
अतीत में पूर्वेक्षकों (prospectors) ने ऐसे क्षेत्रों में भंडारों की खोज की जिसमें खनिज सतह पर धारियों के रूप में नजर आते थे । लेकिन आज पूर्वेक्षण और छानबीन के काम भूगर्भशास्त्री, खनन इंजीनियर, भूभौतिकशास्त्री और भूरसायनशास्त्री करते हैं जो मिलकर नए भंडारों की खोज करते हैं । पूर्वेक्षण की आधुनिक विधियों में क्षेत्र के सर्वेक्षण और अध्ययन के लिए तथा स्थानों का पता लगाने के लिए जी आई एस (GIS) जैसे परिष्कृत उपकरणों का उपयोग किया जाता है ।
अयस्क या खनिज का भंडार पृथ्वी की सतह के पास है या गहराई में है, इसके आधार पर खनन की विधि तय की जाती है । क्षेत्र की आकृति और अयस्क के भंडार की भौतिक प्रकृति का अध्ययन भी किया जाता है ।
खदानें दो तरह की होती हैं: खुली (या पट्टीदार) खदानें (open cast or strip mines) और गहरी (या सांभाकार) खदानें (deep mines) । उपरोक्त मानदंडों के आधार पर कोयला, धात्विक और अधात्विक खनिजों का खनन अलग-अलग ढंगों से किया जाता है । खनन के लिए चुनी गई विधि अंततः इस आधार पर होती है कि मौजूदा दशाओं में कम से कम लागत पर अधिक से अधिक खनिज कैसे प्राप्त किया जाए और खननकर्मियों को खतरा भी कम से कम हो ।
उपयोग से पहले अधिकांश खनिजों का परिसंस्करण (processing) आवश्यक है । इसलिए ‘प्रौद्योगिकी’ संसाधनों की मौजूदगी और उन्हें ‘उपयोग-योग्य’ बनाने के लिए आवश्यक ऊर्जा, दोनों पर निर्भर होती है ।
खदान सुरक्षा (Mines Safety):
खनन जोखिम भरा काम है और खदान मजदूरों की सुरक्षा खनन उद्योग के लिए पर्यावरण संबंधी एक महत्वपूर्ण विषय है । खुली खदान भूमिगत खदान से कम खतरनाक होती है और धातु का खनन कोयले के खनन से कम खतरनाक होता है । तमाम भूमिगत खदानों में चट्टानों और छतों का गिरना, जलभराव और वायु का अपर्याप्त प्रवाह सबसे बड़े जोखिम होते हैं । कोयले की खदानों में भारी विस्फोट हुए हैं और अनेक मजदूर मारे गए हैं । धातुओं वाली खदानों में विस्फोटकों के उपयोग से पैदा विपत्तियों में और भी मजदूर मारे जा चुके हैं ।
खनन खननकर्मियों के लिए अनेक दीर्घकालिक व्यावसायिक जोखिम पैदा करता है । खनन कार्य के दौरान उड़ने वाली धूल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और फेफड़े का एक रोग पैदा करती है, जिसे ”काला फेफड़ा” या न्यूमोकोनियोसिस (pneumoconiosis) कहते हैं । डायनामाइट के अधूरे धमाकों से पैदा धुआँ बेहद जहरीला होता है ।
कोयले की तहों से नकलने वाली मिथेन गैस स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है, हालाँकि यह खदान की हवा में आम तौर पर जिस अनुपात में पाई जाती है उसमें जहरीली नहीं होती । यूरेनियम की खदानों में विकिरण (radiation) एक ऐसा जोखिम है जो जानलेवा हो सकता है ।
पर्यावरण की समस्याएँ (Environmental problems):
खनन कार्यों को पर्यावरण के ह्रास के प्रमुख स्रोतों में गिना जाता है । स्थलमंडल से इन सभी वस्तुओं की निकासी के अनेक पार्श्व प्रभाव (side-effects) होते हैं । खनन के कारण भूमि की उपलब्धता में कमी, उद्योगों के अपशिष्ट, भूमि का औद्योगिक उपयोग तथा औद्योगिक अपशिष्टों के कारण भूमि, वायु और जल का प्रदूषण-ये सब इन अनवीकरणीय संसाधनों के पर्यावरण संबंधी पार्श्व प्रभाव हैं ।
इस समस्या पर विश्व की जनता जागरूक है और प्राकृतिक पर्यावरण की क्षति को रोकने के लिए सरकारी कार्रवाइयों ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को जन्म दिया है । इसके कारण पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकने वाली गतिविधियों और घटनाओं की रोकथाम के लिए कानून भी बनाए गए हैं ।
4. खाद्य संसाधन (Food Resources):
आज हमारा भोजन पूरी तरह कृषि, पशुपालन और मछलियों पर निर्भर है । हालाँकि भारत खाद्य-उत्पादन में आत्मनिर्भर है, पर इसका कारण कृषि की आधुनिक विधियाँ हैं जो पूरी तरह अनिर्वहनीय हैं और जो रासायनिक खादों और कीटनाशकों का अति-उपयोग करके हमारे पर्यावरण को प्रदूषित करती हैं ।
खाद्य और कृषि-संगठन निर्वहनीय कृषि की परिभाषा ऐसे कृषि के रूप में करता है जो भूमि, जल तथा पौधा और प्राणी रूपी संसाधनों को सुरक्षित रखे, पर्यावरण का ह्रास न करे, तथा आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक और सामाजिक दृष्टि से स्वीकार्य हो । हमारे अधिकांश बड़े फार्म एक फसल उगाते हैं । अगर इस फसल को कीड़े लग जाएँ तो पूरी फसल नष्ट हो सकती है और किसान को उस साल कोई आय नहीं होती ।
दूसरी ओर, किसान अगर पंरपरागत किस्मों का प्रयोग करें और अनेक अलग-अलग फसलें उगाएँ तो पूरी असफलता की संभावना काफी घट जाती है । अनेक अध्ययनों से स्पष्ट है कि अकार्बनिक खादों और कीटनाशकों के विकल्पों का उपयोग किया जा सकता है । इसे समन्वित फसल प्रबंध (Integrated Crop Management) कहते हैं ।
खाद्य सुरक्षा (Food security):
अनुमान है कि संसार में हर साल 1.8 करोड़ व्यक्ति, जिनमें अधिकांश स्त्रियाँ या बच्चे हैं, भूख या कुपोषण से मर जाते हैं । बहुत-से दूसरे व्यक्ति भोजन में अनेक प्रकार की अपर्याप्ताओं को झेलते हैं ।
पृथ्वी हमें सीमित मात्रा में ही भोजन दे सकती है । अगर विश्व की खाद्य उत्पादन की क्षमता बढ़ती आबादी की जरूरतें पूरी न कर सकी तो अराजकता और टकरावों का जन्म होगा । इस तरह परिवार कल्याण कार्यक्रम के द्वारा जनसंख्या के नियंत्रण से खाद्य सुरक्षा का गहरा संबंध है । इसका संबंध कृषि के लिए जल की उपलब्धता से भी है । खाद्य सुरक्षा तभी संभव है जब खाद्य पदार्थों का समान वितरण हो । हममें से बहुत लोग लापरवाही से ढेरों भोजन बरबाद करते हैं । इससे हमारे पर्यावरणीय संसाधनों पर अंततः दबाव पड़ता है ।
एक और प्रमुख आवश्यकता है छोटे किसानों को हरसंभव सहायता मुहैय्या कराने की ताकि वे नगरों में जाकर अकुशल औद्योगिक श्रमिक न बनें और किसान ही रहें । जिन देशों के पास अतिरिक्त खाद्य पदार्थ हैं उनसे विकासशील देशों के कम खाद्य पदार्थों वाले देशों की ओर, राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार, इन वस्तुओं के प्रवाह में वृद्धि की अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक नीतियाँ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से संबंधित योजनाकारों के लिए एक अन्य प्रमुख विषय है ।
अविकसित देशों के बाजारों में विकसित दुनिया के खाद्य पदार्थों की लागत से कम दाम पर ‘उतराई’ (dumping) से फसलों की कीमतें गिरती हैं और किसानों को प्रतियोगिता अनिर्वहनीय विधियाँ अपनाने पर मजबूर करती है ।
मछली पालन (Fisheries):
विश्व के अनेक भागों में मछलियाँ प्रोटीन का महत्वपूर्ण स्रोत हैं । इनमें समुद्री और ताजे जल की मछलियाँ, दोनों शामिल हैं । 1950 और 1990 के बीच मछलियों की आपूर्ति में अभूतपूर्व वृद्धि हुई । फिर भी, दुनिया के अनेक भागों में अत्यधिक मछलियाँ पकड़े जाने के कारण उनमें कमी आई है । 1995 की खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया का 44 प्रतिशत मछली उत्पादन पूरी तरह या बुरी तरह दोहन का शिकार है ।
16 प्रतिशत पहले से अति-दोहन का शिकार है, छह प्रतिशत का ह्रास हुआ है और केवल 3 प्रतिशत धीरे-धीरे बहाल हो रहा है । अपने मछली संसाधनों में भयानक कमी आने के बाद कनाडा ने 1990 के दशक में ही काड के शिकार पर लगभग पूरा प्रतिबंध लगा दिया था ।
मछली मारने की आधुनिक प्रौद्योगिकी में मशीनी ट्राउलरों का और छोटे गाँठदार जालों का प्रयोग किया जाता है । इसका सीधा परिणाम अति-दोहन है जो निर्वहनीय नहीं है । स्पष्ट है कि मछली उत्पादन के निर्वहनीय होने के लिए मछलियों का सफल प्रजनन और उनके बढ़ने के लिए समय की आवश्यकता होती है । छोटे परंपरागत मछुआरे, जो संगठित ट्राउलरों का मुकाबला नहीं कर सकते, इन विकासक्रमों से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं ।
खाद्य के वैकल्पिक स्रोत (Alternate food sources):
अगर हम खेती के मौजूदा तरीकों को छोड़ सकें तो प्रवर्तनकारी ढंग से खाद्य पदार्थों का उत्पादन हो सकता है । इसमें खाद्य उत्पादन के नए रास्तों को आजमाना भी शामिल है, जैसे लकड़ी छोड़ दूसरी पैदावारों के लिए वनों का उपयोग करना । अगर इन पैदावारों का निर्वहनीय दोहन किया जाए तो इनका उपयोग भोजन के लिए किया जा सकता है । इनमें फल, सब्जियाँ, रस, गोंद आदि शामिल हैं । इसमें निश्चित रूप से समय लगेगा क्योंकि लोगों को इन नए खाद्य पदार्थों के स्वाद का अभ्यस्त बनाना होगा ।
वनों से परंपरागत और आधुनिक दोनों प्रकार की दवाओं की निर्वहनीय प्राप्ति संभव है । बचपन में होने वाले ल्युकेमिया (leukemia) के लिए मेडागास्कर का रोजी पेरिविंकल (Rosy Periwinkle) और कैंसरमारक दवा के रूप में पश्चिमोत्तर अमरीका में स्थित पश्चिमी येव से प्राप्त टैक्सोल (Taxol) आधुनिक चिकित्सा में वनों की पैदावार के बड़े पैमाने पर उपयोग के उदाहरण हैं । समुचित सावधानी के बिना व्यापारिक शोषण ऐसे पौधों के शीघ्र विनाश का कारण बन सकता है ।
पहाड़ों की ढालों पर कम उपजाऊ मिट्टी में पैदा होने वाली नगली (Nagli) जैसी अपरिचित फसलों का उपयोग एक अन्य विकल्प है । पश्चिमी घाट की इस फसल के लिए आज कोई बाजार नहीं है और यह शायद इसीलिए कम उगाई जाती है । केवल स्थानीय जनता ही इस पौष्टिक फसल को खाती है ।
इसलिए पहले की तरह इसकी आज व्यापक रूप से खेती नहीं की जाती । इस फसल को लोकप्रिय बनाया जाए तो हाशियाई जमीनों से खाद्य की उपलब्धता बढ़ सकती है । नगरीय परिवेशों में सब्जियों और फलों समेत अनेक ऐसी फसलें उगाई जा सकती हैं जो घरों के बेकार पानी और कृमिकपोस्ट गड्ढों से प्राप्त खादों की सहायता से उगाई जा सकें ।
अभी झक अप्रयुक्त समुद्री खाद्य पदार्थों से, मसलन समुद्री घास से, प्राप्त भोजन को लोकप्रिय बनाया जा सकता है, बशर्ते यह काम निर्वहनीय ढंग से किया जाए । पोषाहार के बारे में स्त्रियों को शिक्षित करना, जो परिवार के खानपान से गहराई से जुड़ी होती हैं, अनेक विकासशील देशों में खाद्य की आवश्यकताओं की पूर्ति का एक अहम् पहलू है ।
समन्वित कीट प्रबंध (Integrated Pest Management) में कीटभोजी प्राणियों का संरक्षण, पौधों की कीट-प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग और रासायनिक खादों के उपयोग में कमी शामिल हैं । निर्वहनीय खाद्य उत्पादन के लिए भी इसका व्यवहार किया जाना चाहिए ।
5. ऊर्जा संसाधन (Energy Resources):
तेल और पर्यावरण पर उसका प्रभाव (Oil and its environmental impacts):
भारत के आज इस्तेमाल हो रहे तेल भंडार मुंबई समुद्रतट से लगे हुए और असम में हैं । भारत का अधिकांश प्राकृतिक गैस तेल से निकला है और वितरण की व्यवस्था न होने के कारण बस जला दी जाती है । इससे लगभग 40 प्रतिशत उपलब्ध गैस बरबाद हो रही है । तेल और प्राकृतिक गैस के दोहन, शोधन, यातायात और उपयोग की प्रक्रियाएँ वातावरण पर गंभीर प्रभाव डालती हैं जैसे रिसाव से हवा और पानी प्रदूषित होते हैं, और अकस्मात आग लगती है तो अनेक दिनों और सप्ताहों तक जलती रहती है ।
तेलशोधन के दौरान लवण और ग्रीज जैसे ठोस अपशिष्ट पैदा होते हैं और ये भी पर्यावरण को हानि पहुँचाते हैं । सागर में बने तेल-कुँओं से, तेल के टैंकरों की सफाई से और जहाजों के टूटने पर तेल की परतें बन जाती हैं । सबसे बड़ी विपत्ति तब आई जब 1989 में एक विशाल तेलवाहक जहाज एक्सान वाल्डेज डूब गया । तब अलास्का के तट पर परिंदों, समुद्री ऊदबिलावों, सीलों और अन्य सामुद्रिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा ।
तेल से चलने वाले वाहन कार्बन डाइआक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रस आक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड और कण पदार्थ छोड़ते हैं जो वायु प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है, विशेषकर भारी यातायात वाले नगरों
में । सीसायुक्त पेट्रोल स्नायुतंत्र को हानि पहुँचाता है तथा एकाग्रता कम करता है ।
सभी नई कारों में कैटेलिटिक कनवर्टर (catalytic converters) लगाकर सीसारहित पेट्रोल से उन्हें चलाया जा सकता है, पर सीसारहित पेट्रोल में बेंजीन (benzene) और ब्यूटेडीन (butadine) होते हैं जो कैंसरजनक यौगिकों (carcinogenic compounds) के रूप में जाने जाते हैं । दिल्ली में, जहाँ भारी यातायात ने धूमकोहरा (smog) की गंभीर समस्याएँ पैदा कर दी थीं, बड़ी संख्या में वाहनों को सी एन जी (CNG) वाहनों में बदलकर स्वास्थ्य संबंधी इस खतरे को कम किया गया है । इस सी एन जी में मिथेन गैस होती है ।
जीवाश्म ईंधन के घटते संसाधनों पर, विशेषकर तेल पर, भारी निर्भरता राजनीतिक तनाव, अस्थिरता और युद्ध को जन्म दे रही है । इस समय संसार का 65 प्रतिशत तेल का भंडार मध्यपूर्व (Middle East) के देशों में स्थित है ।
कोयला और पर्यावरण पर उसका प्रभाव (Coal and its environmental impacts):
कोयला दुनियाभर में हरितगृह प्रभाव का अकेला सबसे बड़ा जन्मदाता और विश्वव्यापी उष्णता के सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों में एक है । कोयला से चलने वाले अनेक विद्युत संयंत्रों में स्थिर-विद्युत अवक्षेपकों (electrostatic precipitants) जैसे उपकरण नहीं हैं जो निलंबित कण पदार्थ (suspended particulate matter-SPM), जो वायु का एक प्रमुख प्रदूषक है; के प्रदूषण को कम करें ।
कोयला जलने पर गंधक और नाइट्रोजन की आक्साइडें भी पैदा करता है जिनके जलवाष्प से मिलने पर ‘अम्लीय वर्षा’ होती है । इससे जंगलों की हरियाली नष्ट होती है, स्मारकों की क्षति होती है, जल प्रदूषित होता है और मानव का स्वास्थ्य प्रभावित होता है ।
कोयला से चलने वाले विद्युत संयंत्र ‘फ्लाई-ऐश’ के रूप में अपशिष्ट पैदा करते हैं । इससे निबटने के लिए बड़े-बड़े कूड़ास्थान बनाने पड़ते हैं । फ्लाई-पेश से ईंटें बनाने के लिए भी कुछ प्रयास किए गए हैं । बड़ी मात्रा में पैदा होने वाले फ्लाई-ऐश के यातायात और उनको ठिकाने लगाने की लागत को भी ताप-ऊर्जा के लागत-लाभ विश्लेषण में शामिल करना आवश्यक है ।
6. भूमि संसाधन (Land Resources):
संसाधन के रूप में भूमि (Land as a resource):
पर्वत, वादी, मैदान, नदी, घाटी और दलदल जैसी भूमियों में विभिन्न संसाधन- उत्पादक क्षेत्र शामिल होते हैं जिन पर वहाँ के लोग निर्भर होते हैं । अनेक परंपरागत कृषक समाजों के पास उन क्षेत्रों के संरक्षण के तरीके हुआ करते थे जिनसे वे संसाधन प्राप्त करते थे ।
उदाहरण के तौर पर, पश्चिमी घाट की ‘पवित्र वाटिकाओं’ में पेड़ काटने या कोई संसाधन लेने के लिए आसान-से कर्मकांड के साथ वाटिका की रक्षक आत्मा से प्रार्थना की जाती थी । किसी चट्टान पर टिका एक पत्थर संयोग से इधर या उधर गिरता था तो उसे अनुमति का मिलना या न मिलना माना जाता था । एक निश्चित समय तक फिर उसी प्रार्थना को दोहराया नहीं जाता था ।
अगर भूमि का उपयोग विवेक के साथ किया जाए तो उसे नवीकरणीय संसाधन माना जा सकता है । पेड़ों और घास की जड़ें मिट्टी को बाँधती हैं । अगर वन कम हुए या चरागाहों में अत्यधिक चराई हुई तो जमीन अनुर्वर हो जाएगी और ऊसर (wasteland) बन जाएगी ।
सघन सिंचाई से जलभराव होता है और मिट्टी खारी हो जाती है जिसमें फसलें नहीं उगाई जा सकतीं । भूमि पर अत्यंत विषैले औद्योगिक और परमाणविक अपशिष्ट फेंक दिए जाएँ तो वही भूमि अनवीकरणीय संसाधन बन जाती है ।
दूसरे किसी भी संसाधन की तरह ही पृथ्वी पर भूमि भी सीमित है । मानवजाति ने दुनियाभर में अपनी जीवनशैली को विभिन्न पारितंत्रों के अनुसार ढालना सीखा है । वह फिर भी, ध्रुवों की बर्फ पर, समुद्र के नीचे या अंतरिक्ष में कम से कम और कुछ समय तक नहीं रह सकता ।
घर बनाने, खेती करने, पशुओं की चरागाहें बनाने, वस्तुओं के वास्ते उद्योगों का विकास करने और नगर या कस्बे बसाकर उद्योगों को आधार देने के लिए मनुष्य को भूमि चाहिए । इतनी ही महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य नाजुक एवं अनमोल जैव-विविधता की रक्षा के लिए जंगलों, घास के मैदानों, नमभूमियों, पर्वतों, समुद्रतटों आदि निर्जन क्षेत्रों का संरक्षण भी करे ।
इस तरह भूमि का विवेकपूर्ण उपयोग सावधानी से नियोजन की माँग करता है । भूमि के विभिन्न प्रकार के उपयोग तो लगभग कहीं भी किए जा सकते हैं, पर संरक्षित क्षेत्र (राष्ट्रीय पार्क और अभयारण्य) वहीं बनाए जा सकते हैं जहाँ प्राकृतिक पारितंत्र अभी भी अप्रभावित हों । ऐसे संरक्षित क्षेत्र भूमि-उपयोग नियोजन के अहम् पहलू हैं ।
भूमि का ह्रास (Land degradation):
अधिकाधिक सघन खेती के कारण कृषि योग्य भूमि के लिए जोखिम पैदा हो रहा है । दुनिया में हर साल 50 से 70 लाख हेक्टेयर भूमि बंजर बनती जा रही है । कृषि में मिट्टी का जब अधिक गहन उपयोग होता है तो वायु और वर्षा से उसका कटाव और भी तेजी से होता है । खेत की अधिक सिंचाई उसमें खारापन पैदा करती है तथा जल के वाष्प बनने पर लवण मिट्टी की सतह पर आ जाते हैं जहाँ फसलें पैदा नहीं हो सकतीं ।
अत्यधिक सिंचाई से ऊपरी मृदा में जलभराव भी होता है जिससे फसलों की जड़ें प्रभावित होती हैं और उपज कम होती है । अधिकाधिक रासायनिक खादों का उपयोग भूमि को विषैला बनाता है और भूमि आखिरकार उपजाऊ नहीं रह जाती ।
जब नगरकेंद्र बढ़ते हैं और उद्योगों का प्रसार होता है तो कृषि-योग्य भूमियों और वनों का सिमटाव होता है । यह एक गंभीर हानि है और मानव सभ्यताओं पर इसके दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेंगे ।