Read this article in Hindi to learn about the top eleven renewable sources of energy. The renewable sources are: 1. Hydroelectric Power 2. Solar Energy 3. Photovoltaic Energy 4. Solar Thermal Electric Power 5. Mirror Energy 6. Biomass Energy 7. Biogas 8. Wind Power 9. Tidal and Wave Power 10. Geothermal Energy and 11. Nuclear Power.
Source # 1. जल विद्युत/पनबिजली (Hydroelectric Power):
इसमें नदियों पर बाँध बनाकर प्राकृतिक ढाल से नीचे गिर रहे पानी का उपयोग करके टरबाइनें चलाई जाती हैं जिससे बिजली पैदा होती है । इसे जल विद्युत कहते हैं । 1950 और 1970 के बीच दुनिया में जल विद्युत का उत्पादन सात गुना बढ़ा था ।
जल विद्युत संयंत्रों का लंबा जीवन, ऊर्जा के स्रोत रूप में उसकी नवीकरणीय प्रकृति, चलाने और रखरखाव की कम लागत और जीवाश्म ईंधनों के विपरीत मुद्रास्फीति के दबाव की नामौजूदगी इसके कुछ लाभ हैं ।
जल विद्युत की त्रुटियाँ:
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जल विद्युत के कारण संसारभर में आर्थिक प्रगति हुई है । लेकिन इसने पर्यावरण संबंधी कुछ गंभीर समस्याएँ भी पैदा की हैं ।
i. जल विद्युत पैदा करने के लिए बड़े-बड़े कृषि और जंगलाती क्षेत्र डूबा दिए जाते हैं । ये जमीन स्थानीय निवासियों और किसानों की जीविका का स्रोत होती हैं । अतः भूमि के उपयोग के मुद्दे पर टकराव होना अपरिहार्य है ।
ii. जलाशयों में (विशेषकर वनविनाश के कारण) गाद बैठने से जल विद्युत संयंत्रों का जीवन कम होता है ।
iii. जल विद्युत उत्पादन के अलावा जल का प्रयोग अनेक कार्यों में होता है । इनमें घरेलू, खेतिहर और औद्योगिक उपयोग शामिल हैं । इससे जल के समतामूलक वितरण के लिए टकराव होता है ।
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iv. विद्युत उत्पादन के लिए बाँध बनने पर नौकाचालन और मछलीपालन के लिए नदियों का उपयोग कठिन हो जाता है ।
v. विस्थापित व्यक्तियों का पुनर्वास एक समस्या है जिसका कोई हल नहीं है । अनेक बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध बढ़ रहा है, क्योंकि अनेक बाँध परियोजनाएँ प्रभावित लोंगों के पुनर्वास या पर्याप्त क्षतिपूर्ति में असफल रही हैं ।
vi. कुछ भूकंप-संभावित क्षेत्रों में बड़े बाँध भूकंप का कारण बन सकते हैं, जैसे हिमालय की तराई में स्थित टेहरी बाँध । टेहरी बाँध के आसपास के इलाके में इसकी भारी संभावना है । चिपको आंदोलन के प्रवर्तक श्री सुंदरलाल बहुगुणा ने वर्षों तक टेहरी बाँध के खिलाफ संघर्ष किया ।
Source # 2. सौर ऊर्जा (Solar Energy):
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एक घंटे में सूरज पृथ्वी को इतनी ऊर्जा देता है जितने का हम साल भर में उपयोग करते हैं । ऊर्जा की इस विराट मात्रा को यदि बाँधकर रखना संभव होता तो मानवजाति को ऊर्जा के किसी और स्रोत की आवश्यकता नहीं पड़ती । आज पानी गर्म करने और बिजली पैदा करने के लिए इस ऊर्जा के संग्रह के अनेक तरीके विकसित किए जा चुके हैं ।
घरों के लिए सौर ऊष्मा (Solar heating for houses):
वातानुकूलन और/या उष्मा का उपयोग करने वाले आधुनिक आवास ऊर्जा पर बहुत अधिक निर्भर हैं । एक सौर आवास या भवन की रूपरेखा ऐसी होती है कि वह दक्षिण की ओर रुख वाली बड़ी-बड़ी, शीशे की खिड़कियों से सूरज की गर्मी का संग्रह कर सके । सौर भवन में दक्षिण दिशा में सूर्यस्थल (sunspaces) बनाए जाते हैं और वे बड़े ऊष्मा अवशोषकों की तरह काम करते हैं ।
इन सूर्यस्थलों के फर्श टाइलों और ईंटों के बने होते हैं जो दिन भर गर्मी सोखते रहते हैं और रात में ठंड बढ़ने पर उसे धीरे-धीरे छोड़ते जाते हैं । ऊर्जा-समर्थ (energy efficient) भवनों में सूर्य, जल और पवन का उपयोग मौसम ठंडा हो तो भवन को गर्म करने और गर्मियों में ठंडा करने के लिए किया जाता है ।
यह अधिकतर डिजाइन और भवन सामग्री पर आधारित होता है । परंपरागत ढाँचों में पत्थर या गारे की मोटी दीवारों का उपयोग कुचालक के रूप में किया जाता था । छोटे दरवाजे और खिड़कियाँ बनाकर सूरज की सीधी रोशनी और गर्मी को घर के अंदर नहीं आने दिया जाता था ।
ब्रिटिश काल में घरों के अंदर काँच की मोटी खिड़कियाँ इस प्रकार लगाई जाती थीं कि उन पर सूरज की सीधी रोशनी न पड़े । इस प्रकार, हरितगृह प्रभाव पैदा किए बिना भी काँच का उपयोग संभव हो पाता था । बरामदे भी ऐसे ही उद्देश्य पूरे करते थे । पुराने बँगलों में ऊँची छतें होती थीं और रौशनदान होते थे जिनसे गर्म हवा ऊपर उठकर निकल जाती थी ।
कमरे में हवा के अंदर आने और बाहर जाने से कमरा ठंडा रहता है । खिड़कियों पर बड़े छज्जों और ओलतियों (eaves) के होने से काँच कमरे के अंदर की हवा को गर्म नहीं कर पाता । गर्मी रोकने के लिए दोहरी दीवारों का उपयोग किया जा सकता है और छायादार पेड़ घर का तापमान घटाने में सहायक होते हैं ।
सौर ऊर्जा से पानी गर्म करना (Solar water heating):
सौर ऊर्जा से पानी गर्म करने की अधिकांश व्यवस्थाओं में दो मुख्य भाग होते हैं; ”सौर संग्राहक” और ”भंडार टंकी” । सौर संग्राहक पानी को गर्म करता है और फिर वह पानी एक कुचालक भंडार टंकी में चला जाता है ।
”चपटी प्लेट वाला संग्राहक” (Flat-plate-collector) एक आम किस्म का संग्राहक होता है । यह पारदर्शी ढक्कन वाला एक आयताकार बक्सा होता है जिसका रुख सूरज की ओर होता है । इसे आम तौर पर एक सपाट छत पर रखा जाता है ।
इस बक्से से अनेक नलियाँ गुजरती हैं और उनमें गर्म किया जाने वाला जल या एँटीफ्रीज (antifreeze) जैसा कोई और द्रव गुजरता है । ये नलियाँ धातु की एक ”अवशोषक प्लेट” पर लगी होती हैं जिसे सूर्य की गर्मी सोखने के लिए काला रंगा जाता है । संग्राहक में गर्मी बढ़ती है और द्रव जब नलियों से गुजरता है तब वह भी गर्म हो जाता है ।
सूरज जब न चमक रहा हो तो तब ये व्यवस्थाएँ पानी को गर्म नहीं कर सकतीं । इसलिए घरों में एक परंपरागत प्रणाली विकल्प के रूप में होनी चाहिए । इजराइल के लगभग 80 प्रतिशत घरों में जल गर्म करने वाले सौर हीटर हैं ।
सौर कुकर (Solar cooker):
सूरज से पैदा गर्मी का उपयोग सौर कुकर की सहायता से सीधे भोजन पकाने के लिए किया जा सकता है । सोलर कुकर धातु का एक बक्सा होता है जो अंदर से काला होता है ताकि वह गर्मी सोख सके और उसे बनाए रख सके । ढक्कन एक परावर्ती सतह (reflective surface) होता है जो सूरज की गर्मी को परिवर्तित करके बक्से में भेजता है । बक्से में काले बर्तन होते हैं जिनमें पकाने के लिए खाद्य सामग्री रखी जाती है ।
भारत का सौर कुकर कार्यक्रम दुनिया में सबसे बड़ा है और अनुमान है कि दो लाख परिवार सौर कुकर का प्रयोग करते हैं । सौर कुकर जलावन लकड़ी की जरूरत और लकड़ी के धुएँ से होने वाले प्रदूषण को कम करते हैं । फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में ये लोकप्रिय नहीं हो सके हैं क्योंकि माना जाता है कि ये भोजन पकाने की परंपरागत विधियों के अनुकूल नहीं हैं । लेकिन यदि उन्हें लोकप्रिय बनाया जाए तो संभावनाएँ काफी हैं ।
सौर ऊर्जा वाले अन्य उपकरण (Other solar power devices):
खारे या गंदले पानी को शुद्ध आसवित जल में बदलने के लिए सौर व्यवस्थाओं द्वारा जल को लवणमुक्त करने की विधियाँ (desalination systems) विकसित की गई हैं । जहाँ ताजा जल उपलब्ध नहीं है वहाँ भविष्य में ये मानव की आर्थिक संवृद्धि के साधन बन सकती हैं ।
Source # 3. फोटोवोल्टीय ऊर्जा (Photovoltaic Energy):
दुनियाभर में जिस सौर प्रौद्योगिकी के उपयोग की सबसे अधिक संभावना है वह फोटोवोल्टीय सेलों की प्रौद्योगिकी है । यह फोटोवोल्टीय सेलों (या सौर सेलों) का उपयोग करके सूरज की रोशनी को सीधे बिजली में परिवर्तित करती है ।
सौर सेल बिजली बनाने के लिए सूरज की गर्मी नहीं, रोशनी का उपयोग करते हैं । इनका रखरखाव बहुत आसान होता है, कोई गतिशील भाग नहीं होता और मूलतः पर्यावरण पर ये कोई प्रभाव नहीं डालते । ये सफाई, सुरक्षा और खामोशी के साथ काम करते हैं । जहाँ भी सूरज की रोशनी हो, वहाँ इन्हें छोटे-से स्थान में तुरंत लगाया जा सकता है ।
सौर सेल सिलिकन (silicon) की दो अलग-अलग तहों से बने होते हैं, जिनमें प्रत्येक का एक विद्युत आवेश होता है । सेलों पर रोशनी पड़ती है तो दोनों तहों के बीच आवेश गति करते हैं और बिजली पैदा होती है । इन सेलों को तारों से जोड़कर एक माड्यूल (module) बनाया जाता है । कोई 40 सेलों का एक माड्यूल एक बल्ब जलाने के लिए काफी होता है । अधिक ऊर्जा के लिए माड्यूल को तारों से जोड़कर एक सरणी (array) बनाई जाती है ।
ये सरणियाँ एक घर में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा पैदा कर सकती हैं । पिछले कुछ वर्षों में प्रौद्योगिकी की लागत घटाने, दक्षता बढ़ाने और सेलों का जीवन बढ़ाने संबंधी गहन कार्य किए गए हैं । लागत घटाने और उत्पादन को स्वचालित बनाने के लिए रवाहीन (amorphous) सिलिकन जैसी अनेक नई सामग्रियों को आजमाया जा रहा है ।
आज कैल्कुलेटरों और घड़ियों में इन सेलों का खूब प्रयोग हो रहा है । ये उपग्रहों, विद्युत प्रकाश, रेडियो जैसे छोटे उपकरणों के लिए, पानी के पंपों, राजमार्गों पर प्रकाश, मौसम विज्ञान के केंद्रों के लिए तथा विद्युत प्रणालियों के लिए भी ऊर्जा प्रदान करते हैं । बिजली की आपूर्ति करने वाली कुछ कंपनियाँ अपने आपूर्ति के नेटवर्कों में ऐसे सेलों की प्रणालियाँ शामिल कर रही हैं ।
पर्यावरण के लिए ये सेल वरदान हैं । ये हवा या पानी में प्रदूषक या विषैले पदार्थ नहीं छोड़ते, इनमें कोई रेडियोधर्मी पदार्थ नहीं होता और इनसे कोई विनाशकारी दुर्घटना नहीं होती । लेकिन कुछ ऐसे सेलों में थोड़ी मात्रा में कैडमियम जैसे विषैले पदार्थ होते हैं जो आग लगने पर पर्यावरण में पहुँच जाते हैं ।
सौर सेल सिलिकन से बने होते हैं जो पृथ्वी पर दूसरा सबसे प्रचुर उपलब्ध तत्त्व है । पर फिर भी उसे खनन के द्वारा निकालना पड़ता है । खनन कार्य पर्यावरण के लिए समस्याएँ पैदा करता है । फोटोवोल्टीय प्रणालियाँ निश्चित तौर पर तभी काम करती हैं जब सूरज निकला हुआ हो । इस कारण ऊर्जा के संचय के लिए बैटरियों की आवश्यकता होती है ।
Source # 4. सौरताप विद्युत (Solar Thermal Electric Power):
सौर विकिरण भारी ऊर्जा पैदा कर सकता है जिससे बिजली पैदा की जा सकती है । कम बादल वाले क्षेत्र, जहाँ विकिरण का बिखराव कम होता है, इसके सबसे उपयुक्त स्थान हैं । संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के एक अनुमान के अनुसार, यह ऊर्जा पवन ऊर्जा के व्यापारिक उपयोग से कोई 20 साल पीछे है पर निकट भविष्य में इसके तेजी से बढ़ने की आशा है ।
Source # 5. दर्पण ऊर्जा (Mirror Energy):
1980 के दशक में कैलिफोर्निया में सौरताप विद्युत पैदा करने की एक बड़ी इकाई कायम की गई जिसमें 700 परिवलय (parabolic) आकार के दर्पण थे । इनमें से हर एक में 1.5 मीटर व्यास के 24 परावर्तक (reflectors) थे जो सूर्य की ऊर्जा को केंद्रित करके विद्युत उत्पादन के लिए भाप बनाते थे ।
Source # 6. जैवभार ऊर्जा (Biomass Energy):
लकड़ी का एक कुंड जब जलाया जाता है तो हम जैवभार ऊर्जा का प्रयोग कर रहे होते हैं । पेड़-पौधों को बढ़ाने के लिए सौर ऊर्जा चाहिए । इसलिए जैवभार ऊर्जा जमा सौर ऊर्जा का एक रूप है । यूँ तो लकड़ी जैवभार ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है, पर इस ऊर्जा को पैदा करने के लिए खेतिहर अपशिष्ट, गन्ने के अपशिष्ट और खेतों की दूसरी गौण पैदावारों का प्रयोग भी करते हैं ।
जैवभार के उपयोग के तीन ढंग हैं । उसे जलाकर गर्मी और बिजली पैदा की जाती है, मिथेन जैसे गैसीय ईंधन में बदला जा सकता है या द्रव ईंधन में बदला जा सकता है । द्रव ईंधन में, जिसे जैव ईंधन (biofuels) भी कहते हैं, दो अल्कोहल शामिल हैं: एथेनाल और मेथेनाल । चूँकि जैवभार को द्रव ईंधन में सीधे बदला जा सकता है, इसलिए यह किसी दिन हमें कारों, ट्रकों, बसों, हवाई जहाजों और रेलों के लिए काफी आवश्यक ईंधन की आपूर्ति कर सकता है और डीजल की जगह वनस्पति तेलों से बना जैव-डीजल ले सकता है ।
अमरीका में आज यह ईंधन सोयाबीन तेल से पैदा किया जा रहा है । शोधकर्ता ऐसे शैवाल (algae) विकसित कर रहे हैं जो तेल पैदा करेंगे और इसे जैव-डीजल में बदला जा सकेगा । घास, पेड़ों, छाल, बुरादे, कागज और खेती के अपशिष्ट से एथेनाल पैदा करने के नए ढंग खोजे गए हैं ।
नगरों के ठोस कार्बनिक अपशिष्ट में कागज, जूठा भोजन तथा कपड़े, प्राकृतिक रबड़ और चमड़े जैसी वस्तुओं से निकले दूसरे कार्बनिक अजीवाश्म ईंधन (organic non-fossil fuel) मौजूद होते हैं जो नगरीय अपशिष्ट में पाए जाते हैं । इन दिनों अमरीका में पुनर्चालन (recycling) और कंपोस्ट कार्यक्रमों के द्वारा नगरों के ठोस अपशिष्ट से लगभग 31 प्रतिशत कार्बनिक अपशिष्ट वापस प्राप्त कर लिया जाता है, 62 प्रतिशत का भूमिभराव (landfill) कर दिया जाता है और 7 प्रतिशत जला दिया जाता है । दहन बायलरों (combustion boilers) या भाप की टरबाइनों के द्वारा इस बेकार पदार्थ को बिजली में बदला जा सकता है ।
ध्यान रहे कि किसी ईंधन की तरह जैवभार को भी जलाने या ऊर्जा में बदलने पर कार्बन डाइआक्साइड समेत कुछ प्रदूषक पैदा होते हैं । लेकिन जैवभार जीवाश्म ईंधनों के मुकाबले कम वायु प्रदूषक पैदा करता है । जैवभार में प्राकृतिक रूप से ही गंधक कम होता है और इसलिए उसे जलाने पर कम सल्फर डाइआक्साइड निकलती है । लेकिन खुली हवा में जलाया जाए तो (वनस्पति सामग्री में नाइट्रोजन की अधिकता के कारण) अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में नाइट्रोजन के आक्साइडों, कार्बन मोनोआक्साइड और कणपदार्थों (particulates) का उत्सर्जन होगा ।
Source # 7. जैवगैस (Biogas):
जैवगैस वनस्पतियों, पशुओं के मलमूत्र, अन्य व्यर्थ पदार्थ, घरेलू कूड़े-कचरे तथा मछली प्रसंस्करण (fish processing), दुग्धशाला और गंदा जल शोधन संयत्रों जैसे कुछ उद्योगों के व्यर्थ पदार्थों से पैदा की जाती है । यह एक गैसीय मिश्रण है जिसमें मिथेन, कार्बन डाइआक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड और जलवाष्प मिली होती हैं । मिथेन ज्वलनशील गैस होने के कारण आसानी से जलता है । खाद्य पदार्थों के एक टन अपशिष्ट से 85 घनमीटर जैवगैस पैदा की जा सकती है । उपयोग के बाद बाकी पदार्थ खाद की तरह काम में आ जाता है ।
डेनमार्क अपशिष्ट से भारी मात्रा में जैवगैस पैदा करता है और 15 कृषक सहकारी संस्थाओं (farmers cooperatives) से 15,000 मेगावाट बिजली पैदा करता है । लंदन में एक ऐसा संयंत्र है जो प्रतिवर्ष 4,20,000 टन नगरीय अपशिष्ट से 30 मेगावाट बिजली पैदा करता है और इससे 50,000 परिवारों को बिजली प्राप्त होती है । जर्मनी में कचरे के भूमिभराव के 25 प्रतिशत भूमिभराव जैवगैस से बिजली तैयार की जाती है । जापान में 85% और फ्रांस में 50% अपशिष्ट का ऐसे ही उपयोग किया जाता है ।
भारत के देहातों में जैवगैस संयंत्र अधिकाधिक लोकप्रिय हो रहे हैं । जैवगैस संयंत्र गोबर को गैस में बदल देते हैं जिसका उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है । दो ईंधन वाले इंजन (dual fuel engines) चलाने के लिए भी इसका उपयोग होता है । जैवगैस के इस्तेमाल से रसोईघरों में धुआँ कम हुआ है । इससे हजारों परिवारों की फेफड़े संबंधी समस्याएँ भी कम हुई हैं ।
शक्कर उद्योग का रेशेदार अपशिष्ट दुनिया में जैवभार ऊर्जा का सबसे बड़ा संभावित स्रोत है । गन्ने के शीरे से पैदा एथेनाल वाहनों के लिए उम्दा ईंधन है और आज ब्राजील में एक तिहाई-वाहनों में इसका प्रयोग हो रहा है ।
राष्ट्रीय जैवगैस परियोजना और सामुदायिक संस्थागत जैवगैस संयंत्र कार्यक्रम द्वारा जैवगैस की अनेक परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है । 1996 में कोई 21.8 लाख परिवार जैवगैस का उपयोग कर रहे थे । लेकिन चीन में जैवगैस प्रयोग कर रहे परिवारों की संख्या दो करोड़ है ।
Source # 8. पवनशक्ति (Wind Power):
पवन सबसे पहला ऊर्जा स्रोत था जिसका उपयोग नाव चलाने में किया जाता था । कोई 2000 साल पहले सिंचाई के लिए पानी उठाने और अनाज कूटने के लिए चीन, अफ़गानिस्तान और फ़ारस में पवनचक्कियों का विकास हुआ । वायु से बिजली बनाने के आरंभिक प्रयास पिछली सदी के अंतिम वर्षों में अधिकतर डेनमार्क में किए गए ।
आज डेनमार्क और कैलिफोर्निया में पवन टरबाइनों के बड़े-बड़े सहकारी संगठन हैं जो सरकारी ग्रिड को बिजली बेचते हैं । तमिलनाडु में बड़े-बड़े पवन संयंत्र हैं जो 850 मेगावाट बिजली पैदा करते हैं । इस समय भारत संसार में पवन ऊर्जा का तीसरा बड़ा उत्पादक है ।
पवन ऊर्जा पवन की गति पर निर्भर होती है । इसलिए किसी क्षेत्र में पवन की औसत गति ऊर्जा के आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक होने का एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक है । पवन की गति ऊँचाई के साथ बढ़ती है । टरबाइन के स्थल विशेष पर 10 मीटर की अपेक्षा 30 मीटर की ऊँचाई पर उपलब्ध ऊर्जा 60 प्रतिशत अधिक होती है ।
पिछले दो दशकों में विद्युत उत्पादक पवनचक्कियों (टरबाइनों) की रूपरेखा, स्थल का चयन, स्थापना, कार्यकलाप और रखरखाव में तकनीकी रूप से भारी प्रगति हुई है । इन सुधारों के कारण पवन से ऊर्जा बनाने की दक्षता बढ़ी है और विद्युत उत्पादन की लागत कम हुई है ।
पर्यावरण पर प्रभाव (Environmental impacts):
पवनशक्ति का पर्यावरण पर प्रभाव बहुत कम होता है क्योंकि वायु या जल का निकास या ठोस अपशिष्ट का उत्पादन नहीं के बराबर होता है और विकिरण की समस्या भी नहीं होती है । समस्या है तो पवनचक्कियों से टकराकर पक्षियों के मरने की, शोर-शराबे की, टीवी सिग्नलों पर असर पड़ने की और बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए अधिक संख्या में लगाए गए पवनचक्कियों से होने वाले सौंदर्यात्मक क्षति की ।
पवनक्षेत्र के लिए खुली भूमि की आवश्यकता होती है । फिर भी टरबाइन के आधार के लिए, बुनियाद डालने और यहाँ तक की सड़कें बनाने के लिए पवनक्षेत्र के कुल क्षेत्रफल का एक प्रतिशत से भी कम भाग लगता है । बाकी जमीन का उपयोग खेती या चराई के लिए भी किया जा सकता है । समुद्र किनारे पवनचक्कियाँ लगाने से भूमि की माँग कम हो जाती है और नजारा भी अच्छा नहीं होता ।
पवन एक आंतरायिक (यानी रुक-रुक कर होने वाला, intermittent) स्रोत है और पवनों का अंतराल उनके भौगोलिक वितरण पर निर्भर होता है । इसलिए पवन का उपयोग बिजली के एकाकी स्रोत के रूप में नहीं किया जा सकता, और बिजली के किसी पूरक या वैकल्कि स्रोत की आवश्यकता पड़ती है ।
Source # 9. ज्वारीय और लहरी शक्ति (Tidal and Wave Power):
पृथ्वी की 70 प्रतिशत सतह पर जल है । जल को गर्म करके सूर्य समुद्री धाराएँ पैदा करता है और पवनें भी, जो लहरों को जन्म देती हैं । अनुमान है कि उष्णकटिबंधीय सागरों (tropical oceans) द्वारा एक सप्ताह में अवशोषित सौर ऊर्जा दुनिया के कुल तेल भंडार 1000 अरब बैरल के बराबर हो सकती है ।
सभी महाद्वीपों में स्थल से टकराने वाली समुद्री लहरों की ऊर्जा अनुमानतः 20-30 लाख मेगावाट के बराबर है । 1970 के दशक के बाद अनेक देश विद्युत उत्पादन के लिए सागरों की गतिज ऊर्जा के उपयोग संबंधी प्रयोग कर रहे हैं ।
ज्वारीय ऊर्जा का उपयोग नदमुख (estuary) पर एक बंध बनाकर और ज्वारी प्रवाह को टरबाइनों से गुजारकर किया जाता है । एकतरफा प्रणाली में आने वाले ज्वार से एक जलद्वार के रास्ते एक ताल (basin) को भरवाया जाता है और इस तरह जमा पानी का उपयोग भाटे (low tide) के दौरान बिजली पैदा करने में किया जाता है । एक दोतरफा प्रणाली में अंदर आने वाले और बाहर जाने वाले ज्वार, दोनों से ही बिजली पैदा की जाती है ।
ज्वारीय बिजलीघर तटीय क्षेत्रों के संवेदनशील पारितंत्र में पर्यावरण संबंधी भारी परिवर्तन लाते हैं, जल के पक्षियों के आवासों और घोंसलों को नष्ट कर सकते हैं और मछलियों के शिकार में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं । एक नदी के मुख पर स्थित एक ज्वारीय बिजलीघर समुद्र में दूषित जल के प्रवाह को रोकता है और इस तरह नदमुख पर स्वास्थ्य संबंधी जोखिम और प्रदूषण पैदा कर सकता है ।
दूसरे दोषों में तटों पर स्थित ऊर्जा संयंत्र जहाजरानी के लिए जोखिम पैदा करते हैं । अवशिष्ट लहर (residual drift current) मछलियों के प्रजनन को प्रभावित कर सकती है क्योंकि लहरों के साथ बहकर उनके अंडे प्रजनन स्थल से दूर चले जाते हैं । लहरें सतह के पास तैरने वाली मछलियों के आव्रजन के ढर्रों (migratory patterns) को भी प्रभावित कर सकती हैं ।
लहरी शक्ति गति को विद्युत या यांत्रिक ऊर्जा में बदलती है । इसमें टर्बोजेनेरेटरों को चलाने के लिए ऊर्जा निष्कर्षक उपकरण (energy extraction device) का प्रयोग किया जाता है । समुद्र में बिजली पैदा करके तारों द्वारा स्थली भागों को भेजी जा सकती है । ऊर्जा के इस स्रोत की पूरी-पूरी छानबीन अभी होनी है । पृथ्वी पर संभावित लहरी ऊर्जा के सबसे बड़े क्षेत्र उत्तरी और दक्षिणी दोनों गोलार्धों में 40० से 60० अक्षांश के बीच स्थित हैं । सबसे जोरदार हवाएँ यहीं चलती हैं ।
एक और विकसित हो रही धारणा यह है कि समुद्रों की गर्म ऊपरी सतहों और ठंडे गहरे जल के बीच तापमान के अंतर का उपयोग ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जाए । इन संयंत्रों को महासागर ताप ऊर्जा रूपांतरण (Ocean Thermal Energy Conversion -OCTECH) संयंत्र कहते हैं । यह एक उच्च तकनीक वाला संयंत्र है जो भविष्य में बहुत मूल्यवान साबित हो सकता है । इस समय महासागर विकास विभाग का एक संयंत्र तिरूचेंदूर (तमिलनाडु) में है जो प्रतिदिन एक मेगावाट बिजली पैदा करता है ।
Source # 10. भूतापीय ऊर्जा (Geothermal Energy):
यह पृथ्वी के अंदर संकलित ऊर्जा (stored energy) है । भूतापीय ऊर्जा का जन्म पृथ्वी की गहराई में गर्म, पिघली चट्टान से होता है जो पृथ्वी की पपड़ी के कुछ भागों को तोड़कर बाहर आ जाती है । मैग्मा से पैदा गर्मी भूतापीय जलाशय (underground reservoirs) कहलाने वाले भूमिगत जल को गर्म करती है । निकास का कहीं रास्ता मिले तो यह गर्म भूमिगत जल बाहर सतह पर आ जाता है या फिर उबलकर गीजर की शक्ल ले लेता है ।
आधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से पृथ्वी की सतह से काफी नीचे कुआँ खोदकर भूमिगत जलाशयों तक पहुँचा जाता है । इसे भूतापीय ऊर्जा का ‘सीधा’ प्रयोग कहते हैं और यह गर्म पानी की एक स्थायी धारा पैदा करता है जिसे पंप द्वारा ऊपर लाया जाता है । 20वीं सदी में कमरों को गर्म करने, औद्योगिक कामों और विद्युत उत्पादन में भूतापीय ऊर्जा का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता रहा है, खासकर आइसलैंड, जापान और न्यूजीलैंड में ।
भूतापीय ऊर्जा लगभग पनबिजली जितनी ही सस्ती होती है और इसलिए भविष्य में इसका उपयोग उत्तरोत्तर बढ़ेगा । लेकिन भूतापीय जलाशयों के जल में अकसर संक्षारक (corrosive) और प्रदूषक खनिज होते
हैं । इसके अलावा, भूतापीय द्रव एक समस्या है और निबटारे से पहले उसका शोधन आवश्यक है ।
Source # 11. परमाणु ऊर्जा (Nuclear Power):
1938 में ओटो हान और फ्रिट्ज स्ट्रासमैन नामक दो जर्मन वैज्ञानिकों ने नाभिकीय विखंडन (nuclear fission) को दर्शाया । उन्होंने देखा कि न्यूट्रानों से किसी यूरेनियम परमाणु पर घात करवा कर वे उसके नाभिक को तोड़ सकते हैं । नाभिक टूटा तो कुछ द्रव्यमान (mass) ऊर्जा में परिवर्तित हो गया । लेकिन परमाणु ऊर्जा उद्योग का विकास 1950 के दशक के अंतिम भाग में हुआ । दुनिया में बड़े पैमाने पर पहला परमाणु ऊर्जा संयंत्र 1957 में पेंसिलवेनिया (संयुक्त राज्य अमरीका) में काम करना शुरू किया ।
डा. होमी भाभा को भारत में परमाणु ऊर्जा विकास का जनक माना जाता है । मुंबई का भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र आधुनिक नाभिकीय प्रौद्योगिकी का अध्ययन और विकास करता है । भारत में पाँच परमाणु ऊर्जा केंद्रों पर दस परमाणु रिएक्टर हैं जो देश की दो प्रतिशत बिजली पैदा करते हैं । ये संयंत्र महाराष्ट्र (तारापुर), राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तरप्रदेश और गुजरात में स्थित हैं । भारत को यूरेनियम झारखंड की खदानों से मिलता है । केरल और तमिलनाडु में थोरियम के भंडार भी हैं ।
परमाणु रिएक्टर विद्युत उत्पादन के लिए यूरेनियम-235 का उपयोग करते हैं । एक किलोग्राम यूरेनियम-235 से मुक्त ऊर्जा 3,000 टन कोयला जलाने से प्राप्त ऊर्जा के बराबर होती है । यूरनियम-235 की छड़ें बनाकर परमाणु रिएक्टर में लगा दी जाती हैं । नियंत्रक छड़ें न्यूट्रानों को अवशोषित करके विखंडन (fission) की समायोजित करती हैं जिससे रिएक्टर में शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया से ऊर्जा-मुक्त होती है ।
प्रतिक्रिया में मुक्त ऊष्मा से जल को गर्म करके भाप बनाई जाती है जो बिजली पैदा करने वाली टरबाइनों को चलाती है । इसका दोष यह है कि छड़ों को समय-समय पर बदलना पड़ता है । नाभिकीय अपशिष्ट के निकलने के कारण इसका पर्यावरण पर बहुत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । यह प्रतिक्रिया बहुत गर्म व्यर्थ जल छोड़ती है जो जलीय पारितंत्रों को हानि पहुँचाता है, हालाँकि उसे मुक्त किए जाने से पहले उसे एक जल प्रवाह व्यवस्था में ठंडा भी कर लिया जाता है ।
परमाणविक अपशिष्ट का निपटारा एक अधिकाधिक गंभीर मुद्दा बनता जा रहा है । परमाणु ऊर्जा के उत्पादन की लागत में उसके अपशिष्टों के निबटारे की और पुराने संयंत्रों को बंद करने की भारी लागत भी शामिल की जानी चाहिए । इनकी भारी आर्थिक और पर्यावरणीय लागत होती है जिसे नए परमाणु संयंत्रों के विकास के समय ध्यान में नहीं रखा जाता । पर्यावरण संबंधी कारणों से स्वीडन ने 2010 तक एक परमाण-मुक्त देश बनने का फैसला किया है ।
हालाँकि पर्यावरण पर परमाणु ऊर्जा के परंपरागत प्रभाव नगण्य हैं, फिर भी ऊर्जा के दूसरे सभी स्रोतों की अपेक्षा इसे खतरनाक इसलिए समझा जाता है क्योंकि कोई भी दुर्घटना विनाशकारी हो सकती है और उसके प्रभाव लंबे समय तक बने रह सकते हैं । यह तेल या जैवभार की तरह वायु और जल को नियमित रूप से प्रभावित नहीं करता, पर एक ही दुर्घटना हजारों की जानें ले सकती है, बहुत-से दूसरे लोगों को गंभीर रोग लगा सकती है और मृत्यु, कैंसर और जैविक विकार पैदा करने वाली रेडियोधर्मिता के द्वारा किसी क्षेत्र को कई दशकों तक के लिए प्रभावित कर सकती है ।
परमाणु ऊर्जा के उत्पादन से प्राप्त रेडियोधर्मी अपशिष्ट का प्रबंध, भंडार और निबटारा परमाणु ऊर्जा उद्योग का सबसे बड़ा खर्च है । चेर्नोबिल (भूतपूर्व सोवियत संघ, अब यूक्रेन) तथा थ्री माइल्स आइलैंड (संयुक्त राज्य अमरीका) में भयानक परमाणु दुर्घटनाएँ हो चुकी हैं । ऐसी दुर्घटनाओं से उत्पन्न रेडियोधर्मिता कई पीढ़ियों तक मानवजाति को प्रभावित करती है ।