Read this article in Hindi to learn about the renewable resources and its associated problems.
नवीकरणीय संसाधन (Renewable Resources):
पारितंत्र संसाधनों के उत्पादक और संसाधक (processors) होते हैं । सौर ऊर्जा पारितंत्रों की प्रमुख चालक शक्ति है जो जगंलों, घास के मैदानों और जलीय पारितंत्रों में पौधों की वृद्धि के लिए ऊर्जा देती है । एक जंगल अपनी मृत वस्तुओं, पत्तों, शाखों आदि को बराबर मिट्टी में लौटाकर अपनी पादप सामग्री का पुनर्चालन करता है ।
जंगलों की अपेक्षा घास के मैदान सामग्रियों का अधिक तेजी से पुनर्चालन करते हैं क्योंकि हर साल वर्षा के बाद घास सूख जाती है । तमाम जलीय पारितंत्र भी सौर ऊर्जा पर निर्भर हैं और उनके भी वृद्धि-चक्र होते हैं जिनमें पौधों के जीवन का प्रसार होता है और जलचर प्राणी प्रजनन करते हैं । सूरज भी जल-चक्र को संचालित करता है ।
हमारा भोजन प्राकृतिक और खेतिहर दोनों पारितंत्रों से आता है । परंपरागत खेतिहर पारितंत्र वर्षा पर निर्भर थे, लेकिन अब वे अतिरिक्त रसायनों और सिंचाई की व्यवस्था से अतिरिक्त जल पाकर अधिकाधिक खाद्यान्न पैदा करने लगे हैं । लेकिन वे फसलों की वृद्धि के लिए आज भी सौर ऊर्जा पर निर्भर हैं ।
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इसके अलावा, आधुनिक कृषि अनेक पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा करती है जो अंततः भूमि को अनुपजाऊ बनाती हैं । इनमें शामिल हैं सिंचाई जो मिट्टी को खारा बनाती है, कृत्रिम खादों का उपयोग जो अंततः मिट्टी की गुणवत्ता को मारता है, और कीड़ामार दवाओं का उपयोग जो मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए जोखिम पैदा करता है और दीर्घकाल में खेतिहर पारितंत्रों के महत्त्वपूर्ण घटकों को नष्ट करता है ।
उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन के लिए उद्योगों को प्रकृति से जल, खनिज और ऊर्जा समेत कच्चा माल चाहिए । उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान पैदा हुई गैसों, रसायनों और व्यर्थ पदार्थों से हमारा पर्यावरण प्रदूषित होता है, क्योंकि उद्योगों के अपशिष्ट और गंदे द्रवों की सफाई में सावधानी से काम नहीं लिया जाता ।
प्राकृतिक संसाधन और संबंधित समस्याएँ (Natural Resources and Associated Problems):
प्राकृतिक संसाधनों का असमान उपयोग (The unequal consumption of natural resources):
इन दिनों हमारे प्राकृतिक संसाधनों के एक बड़े भाग की खपत प्रौद्योगिक रूप से उन्नत या ‘विकसित’ दुनिया (developed world) में हो रही है जिसे प्रायः ‘उत्तर’ (the North) कहा जाता है । भारत और चीन समेत ‘दक्षिण’ (the South) के ‘विकासशील राष्ट्र’ (developing nations) भी अपनी अधिक जनसंख्या के कारण अनेक संसाधनों का अति-उपयोग कर रहे हैं ।
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लेकिन संसाधनों का प्रति व्यक्ति उपभोग विकसित देशों में अधिकांश विकासशील देशों से पचास गुना तक अधिक है । औद्योगिक अपशिष्ट (industrial waste) और हरित गैसों का 75 प्रतिशत से भी अधिक भाग विकसित देशों का योगदान है ।
विकसित देशों में प्रचुर मात्रा में जीवाश्म ईंधनों की ऊर्जा (fossil fuel) का उपयोग भी हो रहा है । उनका खाद्य पदार्थों का प्रति व्यक्ति उपभोग भी बहुत अधिक है और वे अधिक मात्रा में खाद्य और अन्य पदार्थों को बरबाद कर रहे हैं, जैसे खाद्य उद्योग में पैकेजिंग सामग्री का इस्तेमाल । मिसाल के लिए अमरीका की आबादी दुनिया की कुल अबादी का चार प्रतिशत है, पर वह दुनिया के कोई 25 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग करता है ।
मानव के उपभोग के लिए पशुमांस पाने के लिए फसलें उगाने से कहीं अधिक भूमि चाहिए । इस तरह जो देश मांसाहारी भोजन पर अत्यधिक निर्भर हैं उन्हें, जहाँ लोग मुख्यतः शाकाहारी है उन देशों की अपेक्षा, चरागाहों के लिए काफी अधिक भूमि की आवश्यकता होती है ।
भूमि उपयोग की योजना (Planning land-use):
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भूमि स्वयं ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण संसाधन है । यह खाद्यान्न उत्पादन, पशुपालन और उद्योगों के लिए और बढ़ती इंसानी बस्तियों के लिए आवश्यक है । गहन उपयोग के ये रूप अकसर ‘निर्जन भूमि’ की कीमत पर बढ़ाए जाते हैं: हमारे बाकी बचे जंगलों, चरागाहों, दलदली ज़मीनों और रेगिस्तानों की कीमत पर । इसलिए भूमि के उपयोग की ऐसी विवेकपूर्ण नीति अपनाने की आवश्यकता है जो तय करे कि विभिन्न उद्देश्यों के लिए कितनी भूमि उपलब्ध कराई जाए और कहाँ ।
मसलन प्रायः औद्योगिक बस्तियों या बाँधों का निर्माण वैकल्पिक स्थानों पर किया जा सकता है, पर एक प्राकृतिक निर्जन स्थान का कृत्रिम ढंग से सृजन नहीं किया जा सकता । आज वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा की दीर्घकालिक आवश्यकताओं के लिए हर पारितंत्र में कम से कम दस प्रतिशत भूमि और जलाशय निर्जन स्थलों के रूप में सुरक्षित रखे जाने चाहिए ।
एक विस्फोटमुखी जनसंख्या के लिए पर्याप्त खाद्य के उत्पादन के लिए ‘भूमि की बढ़ती भूख’ के चलते आज संसाधन रूप में भूमि पर गंभीर दबाव पड़ रहा है । यह दुरुपयोग से पैदा ह्रास से भी प्रभावित होती है । औद्योगिक अपशिष्ट तथा गाँवों और नगरों के गंदे पानी से भूमि और जल संसाधन तो प्रभावित हो ही रहे हैं, उन्हें सामयिक आर्थिक लाभ के लिए कृषि और उद्योगों की तरफ भी मोड़ा जाता है ।
भारी महत्त्व वाले प्राकृतिक दलदलों को कृषि और अन्य कार्यों के लिए सुखाया जा रहा है तथा अर्धशुष्क भूमि को सींचा और उसका अति-उपयोग किया जा रहा है । भूमि के उपयोग में सबसे हानिकारक परिवर्तन का पता तेजी से होने वाले जंगलों के विनाश से चलता है, भारत में भी और बाकी दुनिया में भी । जंगल हमें अनेक प्रकार की सुविधाएँ देते हैं ।
वातावरण में आक्सीजन का स्तर बनाए रखना, कार्बन डाइआक्साइड को निकालना, जल व्यवस्थाओं को नियंत्रित करना, कटाव (अपरदन) में कमी लाना और साथ ही खाद्य पदार्थ, ईंधन, इमारती लकड़ी, चारा, जड़ी-बूटियाँ आदि उत्पन्न करना इन सुविधाओं में शामिल हैं । आने वाले लंबे समय में इनकी हानि जंगलाती जमीनों को दूसरे उपयोगों की ओर मोड़ने से प्राप्त अल्पकालिक लाभों से काफी अधिक गंभीर होती है ।
निर्वहनीय जीवनशैली की आवश्यकता (The need for sustainable lifestyles):
पृथ्वी पर मानव जीवन की गुणवत्ता और पारितंत्रों की गुणवत्ता संसाधनों के निर्वहनीय उपयोग के सूचक हैं ।
मानव की निर्वहनीय जीवनशैली के कुछ स्पष्ट सूचक इस प्रकार हैं:
i. जीवनकाल में वृद्धि,
ii. ज्ञान में वृद्धि,
iii. आय में वृद्धि ।
इन तीनों को मिलाकर ‘मानव विकास सूचकांक’ (Human Development Index) कहा जाता है ।
पारितंत्र की गुणवत्ता के सूचकों को मापना अधिक कठिन है । ये हैं:
i. स्थिर जनसंख्या,
ii. जैव-विविधता की दीर्घकालिक सुरक्षा,
iii. प्राकृतिक संसाधनों का सावधानी के साथ दीर्घकाल तक उपयोग,
iv. पर्यावरण के ह्रास और प्रदूषण को रोकना ।