Read this article in Hindi to learn about the loss of genetic diversity.
पूरी दुनिया में 50,000 ज्ञात और प्रमाणित खाद्य पौधे हैं । इनमें केवल 15 किस्में ही दुनिया को 90 प्रतिशत भोजन देती हैं । कृषि की आधुनिक विधियों ने फसलों की जैविक परिवर्तनीयता (genetic variability) को गहरी हानि पहुँचाई है । भारत में केवल चावल की अपनी पंरपरागत किस्मों की संख्या 30 से 50 तक बतलाई जाती है ।
इनमें से अधिकांश किस्में पिछले दो दशकों से किसानों के लिए समाप्त हो चुकी हैं, क्योंकि बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियाँ आक्रामक ढंग से केवल कुछ व्यापारिक किस्मों को ही बढ़ावा दे रही हैं । इससे हमारी खाद्य सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाता है क्योंकि किसान फसलों में तेजी से बढ़ते किसी रोग के कारण सारी फसल से वंचित हो सकते हैं ।
दूसरी ओर, जिस अनाज की अनेक जगहों पर अनेक किस्में उगाई जा रही हो उसमें आसानी से रोग नहीं फैलता । फसलों में वांछित गुण लाने का सबसे कारगर उपाय जंगली किस्मों में पाई जाने वाली विशेषताओं का उपयोग करना है । निर्जन भूमि के सिमटाव के साथ ये किस्में तेजी से गायब हो रही हैं । ये एक बार गायब हुई कि दुबारा आवश्यकता होने पर भी उनकी वांछित विशेषताओं को पैदा नहीं किया जा सकता । राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों में इन जंगली पौधों के संरक्षण पर ही दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा का दारोमदार है ।
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दुनियाभर में अगर पौधों की जैविक हानि को कम नहीं किया गया तो विश्वस्त अनुमानों के अनुसार वर्ष 2025 तक पौधों की कम से कम 60,000 प्रजातियाँ गायब हो जाएँगी, यानी कुल संख्या का 25 प्रतिशत । इसे रोकने का सबसे सस्ता उपाय हमारे संरक्षित क्षेत्रों का जाल और उनके विस्तार को बढ़ाना है । बीजद्रव्य (germplasm) का संग्रह, बीज बैंक और ऊतक संवर्धन (tissue culture) की सुविधाएँ उनके लोप को रोकने के अन्य उपाय हैं, पर ये बहुत महँगे हैं ।
वैज्ञानिकों का मानना है कि हमारी भावी खाद्य आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए दुनिया को जल्द ही एक दूसरी हरित क्रांति की आवश्यकता होगी । यह भूमि और जल प्रबंध की नई नैतिकता पर आधारित होगी जिसमें पर्यावरण संबंधी संवेदनशीलता, समता, जैव-विविधता का संरक्षण तथा फसली पौधों के जंगली समतुल्यों का यथास्थल (in-situ) संरक्षण जैसे मूल्य शामिल होंगे ।
इससे हर एक को केवल भोजन ही नहीं मिलेगा बल्कि भोजन और जल दोनों का वितरण अधिक उचित रूप से होगा, रासायनिक खादों और कीटनाशकों के उपयोग पर कृषि की निर्भरता कम होगी (ये वस्तुएँ दीर्घकाल में मानव के लिए हानिकारक हैं) और संरक्षित क्षेत्रों में फसली पौधों के जंगली समतुल्यों के संरक्षण में अधिकाधिक सहायता मिलेगी । जल के स्रोतों का प्रदूषण, भूमि का ह्रास ओर मरुस्थल का प्रसार को तेजी से रोकने की आवश्यकता है ।
मृदा संरक्षण के उपाय करना, खासकर पहाड़ों की ढालों पर खेती की उपयुक्त तकनीकों का उपयोग करना, मिट्टी में कार्बनिक घटक को बढ़ाना, फसलों का चक्र बनाना और छोटे (micro) स्तर पर जलविभाजकों का प्रबंध करना खेतिहर उत्पादनों की भावी आवश्यकताओं की पूर्ति करने की कुंजियाँ हैं ।
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सबसे अहम् बात यह है कि खाद्य आपूर्ति का दुनियाभर में जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों की प्रभावशीलता से गहरा संबंध है । दुनिया को खाद्य उत्पादन की बेहतर और अधिक निर्वहनीय विधियों की आवश्यकता है जो भूमि के उपयोग का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है ।