Read this article in Hindi to learn about the history of our global environment.
हमारा पर्यावरण दैनिक जीवन के लिए आवश्यक अनेक प्रकार की वस्तुएँ और सेवाएँ हमें प्रदान करता है । इन प्राकृतिक संसाधनों में हवा, पानी, मिट्टी और खनिज शामिल हैं, और साथ में जलवायु और सौर ऊर्जा भी । ये प्रकृति के ‘अजैविक’ (abiotic) घटक हैं । प्रकृति के ‘जैविक’ (biotic) घटकों में सूक्ष्म जीवाणुओं समेत पेड़-पौधे और जीव-जंतु शामिल हैं ।
पेड़-पौधे और जीव-जंतु ऐसी विभिन्न कायाओं (organisms) के समुदायों के रूप में ही रह सकते हैं जो अपने आवास में आपस में घनिष्ठ संबंध रखते हैं और जिन्हें विशेष अजैव दशाओं (specific abiotic conditions) की आवश्यकता होती है । मसलन जंगल, घास के मैदान, रेगिस्तान, पर्वत, नदियाँ और झीलें तथा समुद्री पर्यावरण, ये सब पौधों और पशुओं के विशेष समुदायों के लिए आवास का प्रयोजन सिद्ध करते हैं । प्रकृति के अजैव पक्षों और विशिष्ट सजीव कायाओं के आपसी घात-प्रतिघात से ही विभिन्न प्रकार के पारितंत्रों (ecosystems) का निर्माण होता है ।
इनमें से अनेक कायाओं का उपयोग हमारे खाद्य संसाधनों के रूप में होता है । अन्य का हमारे भोजन से कम प्रत्यक्ष संबंध होता है, जैसे मधुमक्खियाँ परागण करती और बीजों को बिखराती हैं, केंचुए जैसे मिट्टी के प्राणी पौधों की वृद्धि के लिए मृदा के पोषक तत्त्वों का परिचालन करते हैं, तथा फफूँद और दीमकें मृत पौधों के अवयवों का विघटन करती हैं ताकि सूक्ष्मप्राणी मलबों पर क्रिया करके मिट्टी के पोषक तत्त्व वापस ला सकें ।
विश्व के पर्यावरण का इतिहास (History of Our Global Environment):
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लगभग दस हजार साल पहले मानवजाति जंगलों और घास के मैदानों में आखेटक-संग्राहक रूप में रहती थी और फिर कृषकों और पशुपालकों में परिवर्तित हो गई । तब हमने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप अपने पर्यावरण को बदलना आरंभ किया । जब हमारी फसलें उगाने और पालतू पशुओं का उपयोग करने की योग्यता बढ़ी तब ये प्राकृतिक ‘पारितंत्र’ खेतिहर जमीनों में बदल गए ।
अधिकतर परंपरागत कृषक जल के लिए प्राकृतिक संसाधनों-वर्षा, जलधाराओं और नदियों पर बहुत हद तक निर्भर थे । आगे चलकर उन्होंने भूमिगत जल निकालने और जलप्रवाह को रोकने के लिए कुओं का उपयोग शुरू किया तथा बाँध बनाकर जमीनों की सिंचाई की । हाल में भूमि के किसी विशेष क्षेत्रफल से पैदावार को और अधिक बढ़ाने के लिए हमने रासायनिक खादों और कीड़ामार दवाओं का उपयोग आरंभ किया है ।
लेकिन अब हम यह महसूस कर रहे हैं कि इन सब की वजह से हमारे पर्यावरण में अनेक अवांछित विसंगतियाँ पैदा हो गई हैं । मानवजाति प्राकृतिक संसाधनों का अति-उपयोग और क्षरण कर रही है । भूमि के अति सघन उपयोग ने अधिकाधिक व्यक्तियों की बढ़ती माँगों को पूरा करने के बारे में पारितंत्र की क्षमता को कम कर दिया है और इन सबके लिए संसाधनों का और भी गहन उपयोग करना पड़ रहा है ।
औद्योगिक संवृद्धि, नगरीकरण, जनसंख्या वृद्धि तथा उपभोक्ता वस्तुओं के उपभोग में भारी वृद्धि ने पर्यावरण पर और भी दबाव डाला है क्योंकि इन सबके कारण भारी मात्रा में ठोस अपशिष्ट पदार्थ (solid waste) पैदा हो रहे हैं । वायु, जल और मिट्टी का प्रदूषण मानव के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालने लगा है ।
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भूमि और संसाधनों के उपयोग में परिर्वतन (Changes in Land and Resource Use):
पिछले सौ वर्षों में स्वास्थ्य-रक्षा की बेहतर व्यवस्था और पोषाहार में सुधार से जनसंख्या तेजी से बढ़ी है, विशेषकर विकासशील देशों में । जनसंख्या में यह अभूतपूर्व वृद्धि पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव डाल रही है । जंगल, घास के मैदान और दलदल के बड़े-बड़े टुकड़ों को खेती और उद्योगों के योग्य बनाया जा रहा है ।
इन परिवर्तनों ने भूमि के उपयोग के ढर्रों में नाटकीय परिवर्तन किए हैं जिससे अमूल्य प्राकृतिक पारितंत्र तेजी से गायब हो रहे हैं । जल, भोजन, ऊर्जा, उपभोक्ता वस्तुओं की बढ़ी हुई आवश्यकता केवल जनसंख्या की वृद्धि का परिणाम नहीं है; वह अधिक समृद्ध समाजों के सदस्यों द्वारा और हमारे अपने समाज के समृद्ध सदस्यों द्वारा संसाधनों के अति-उपयोग का परिणाम भी है ।
औद्योगिक विकास का उद्देश्य तमाम उपभोक्ता वस्तुओं की बढ़ती माँगों को पूरा करना है लेकिन ये उपभोक्ता वस्तुएँ लगातार बढ़ती मात्रा में अपशिष्ट (waste) भी पैदा कर रही हैं । औद्योगिक क्षेत्रों की वृद्धि के कारण लोग अपनी परंपरागत, निर्वहनीय, ग्रामीण जीवनशैली को छोड़कर उद्योगों के इर्दगिर्द विकसित नगरों की ओर आ रहे हैं । पिछले कुछ दश्कों में अनेक छोटे नगर बड़े नगर बन गए हैं; कुछ तो दानवाकर महानगर भी बन चुके हैं ।
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इसके कारण अधिक जनसंख्या घनत्व वाले इन नगरीय क्षेत्रों के आस-पास की जमीन जितना कुछ पैदा करती है और इन क्षेत्रों की भारी आबादी का जो उपभोग-स्तर है, उसके बीच अंतर बढ़ा है । नदियों और झीलों का पानी, खेतिहर क्षेत्रों से प्राप्त खाद्य पदार्थों, चरागाही क्षेत्रों के पालतू पशुओं और जंगलों से प्राप्त इमारती लकड़ी, जलावन, निर्माण सामग्री और दूसरे संसाधनों के बिना ये नगर-केंद्र बने भी नहीं रह सकते ।
ग्रामीण खेतिहर व्यवस्था जंगलों, नमभूमियों, घास के मैदानों, नदियों और झीलों पर निर्भर है । निर्जन पारितंत्रों और कृषि-क्षेत्रों से नगरीय उपभोक्ता (urban user) की ओर प्राकृतिक संसाधनों की गति ने मनुष्यों के बीच संसाधनों के वितरण में गंभीर असमानता पैदा कर दी है । यह अन्यायपूर्ण और अनिर्वहनीय, दोनों है ।