Read this article in Hindi to learn about the journey from unsustainable to sustainable development.
दो दशक पहले तक दुनिया केवल आर्थिक विकास को मानव-विकास का सूचकांक समझती थी । इसीलिए जिन देशों का आर्थिक विकास अधिक था और जहाँ लोग अपेक्षाकृत समृद्ध थे, वे ‘उन्नत’ (developed) देश कहलाते थे, जबकि बाकी देश जहाँ गरीबी व्यापक थी और जो आर्थिक रूप से पिछड़े थे, ‘विकासशील’ (developing) कहे जाते थे ।
उत्तरी अमरीका और यूरोप के अधिकांश देश जिनका औद्योगीकरण पहले ही हो चुका है, आर्थिक रूप से अधिक उन्नत हैं । अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक उन्नत बनाने के लिए उन्होंने न केवल अपने प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से इस्तेमाल किया, बल्कि विकासशील देशों के प्राकृतिक संसाधनों का भी दोहन किया ।
इसलिए विकास ज्यों-ज्यों आगे बढ़ा, समृद्ध देश और अधिक समृद्ध तथा निर्धन देश और अधिक निर्धन होते गए । पर अब तो विकसित देश भी समझने लगे हैं कि आर्थिक संवृद्धि पर आधारित विकास से पैदा होने वाले पर्यावरणीय कुप्रभाव से वे भी बच नहीं सकते । विकास के इस रूप ने जीवन की गुणवत्ता को आगे नहीं बढ़ाया है, क्योंकि इससे पर्यावरण का अत्यधिक ह्रास हुआ है ।
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1970 के दशक तक विकास के अधिकांश विशेषज्ञ समझने लगे थे कि अगर पर्यावरण की हालत नहीं सुधारी जाती तो केवल आर्थिक संवृद्धि जनता का जीवन बेहतर नहीं बना सकती । विकास की जिन रणनीतियों में केवल आर्थिक बातों का ध्यान रखा गया था, वे पर्यावरण की गंभीर समस्याओं से ग्रस्त होने लगे ।
वे वायु और जल के प्रदूषण, अपशिष्ट प्रबंध, वनों के विनाश और जनता के कल्याण और स्वास्थ्य पर अन्य गंभीर प्रभाव डालने वाले दूसरे अनेक दुष्प्रभावों से घिर गए । राष्ट्र और विश्व के स्तर पर समाज में ‘अमीरों’ और ‘गरीबों’ के बीच समता के गंभीर प्रश्न भी उठने लगे । अमीरों और गरीबों की जीवनशैलियों की विषमता को विकास की इन अनिर्वहनीय रणनीतियों ने और भी तीखा बनाया ।
अनेक दशक पहले महात्मा गाँधी ने ऐसे ग्राम समुदायों की कल्पना की थी जो पर्यावरण के ठोस प्रबंध पर आधारित हों । उन्होंने मनुष्यों और पशुओं के मलोत्सर्जन के पुनर्चालन पर आधारित स्वच्छता की और पुनर्चालन योग्य सामग्रियों से बने हवादार झोपडों की आवश्यकता पर जोर दिया था ।
उन्होंने साफ और धूलरहित सड़कों की कल्पना की थी । उनका मुख्य उद्देश्य औद्योगिक वस्तुओं की जगह गाँवों में बनी वस्तुओं का उपयोग करना था । ये सभी सिद्धांत अब किसी भी गंभीर दीर्घकालिक विकास रणनीति के अंग हैं । ये धारणाएँ जब आम सोच का हिस्सा नहीं बनी थीं तब भी गाँधी जी ने अपने लिए एक निर्वहनीय जीवनशैली विकसित की थी ।
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अनेक दशक पहले गाँधी जी ने विकास की जिस रणनीति का सुझाव दिया उसे अब संसार भर में विकास के विशेषज्ञ अधिकाधिक स्वीकार करने लगे हैं । यह गाँधी जी की विकास की इस धारणा पर आधारित है कि संसार लोगों की जरूरतों को पूरा कर सकता है, उनके लालच को नहीं ।
यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि अर्थव्यवस्थाओं की संवृद्धि के साथ मानव जीवन की गुणवत्ता गिरी है । ऐसा लगता है कि आज संसार एक चौराहे पर खड़ा है । उसने अल्पकालिक आर्थिक संवृद्धि का रास्ता चुना और आज ‘मानव-जीवन की गुणवत्ता’ की कीमत पर पर्यावरण की हानि के नतीजे भुगत रहा है ।
पृथ्वी समाज के खुशहाल हिस्सों द्वारा इस्तेमाल और बरबाद किए जा रहे संसाधनों की पूर्ति नहीं कर सकती है और न ही कम विकसित देशों में लगातार बढ़ती जनसंख्या और रोजमर्रा की जरूरतों का बोझ उठा सकती है । इसलिए समाज को विकास की अनिर्वहनीय रणनीति छोड़कर ऐसी रणनीति अपनानी होगी जिसमें विकास पर्यावरण को हानि न पहुँचाए । निर्वहनीय विकास का यह रूप तभी संभव है जब हर व्यक्ति ‘पृथ्वी की सुरक्षा’ पर आधारित एक निर्वहनीय जीवनशैली अपनाएगा ।
ये आसान मुददे नहीं है । इंदिरा गाँधी ने 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन में कहा था कि निर्धनता सबसे बड़ा प्रदूषक है । मतलब यह था कि जहाँ धन्नासेठ राष्ट्रों में पर्यावरण की गंभीर समस्याएँ हैं, वहीं एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के अल्पविकसित देशों में पर्यावरण की निर्धनता से जुड़ी अलग ही तरह की समस्याएँ हैं । विकासशील देश तेजी से बढ़ती जनसंख्या का परिणाम भुगत रहे हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के अति-उपयोग का कारण है ।
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इस तरह दुनिया संसाधनों के अधिक समतामूलक उपयोग की आवश्यकता धीरे-धीरे समझने लगी है । प्राकृतिक संसाधनों और उनसे पैदा होने वाली दौलत पर नियंत्रण की कामना जनता के बीच तनाव पैदा करता है जो अंततः किसी देश के अंदर टकराव और देशों के बीच युद्धों का कारण बनता है । इससे जीवन की गुणवत्ता की हानि होती है ।
तो फिर विकास का एक नया रूप कैसे संभव हो जो दुनिया में बढ़ते असंतोष को हल करे ? यह बात स्पष्ट है कि विकास अल्पकालिक आर्थिक लाभों से हटकर दीर्घकालिक निर्वहनीय संवृद्धि के लिए होना चाहिए जो आज दुनिया के सभी व्यक्तियों के लिए ही नहीं, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी जीवन की गुणवत्ता को सुनिश्चित करे ।
आर्थिक विकास की मौजूदा रणनीतियाँ दुनिया के संसाधनों का इतनी तेजी से इस्तेमाल कर रही हैं कि हमारी भावी पीढ़ियों को पर्यावरण की गंभीर समस्याएँ झेलनी होंगी; जो हमारे सामने हैं उनसे कहीं अधिक बदतर । इसलिए विकास की मौजूदा रणनीतियों को दुनिया के दीर्घकालिक विकास के लिए अनिर्वहनीय समझा जाने लगा है । विकास की नई धारणा को ‘निर्वहनीय विकास’ (Sustainable Development) कहा जाता है ।
1992 के रियो सम्मेलन (Rio Conference) में दुनिया के राष्ट्रों ने इन मुद्दों को साफ-साफ महसूस किया । संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन (United Nations Conference on Environment and Development-UNCED) के लिए अनेक दस्तावेज तैयार किए गए जिन्होंने स्पष्ट कहा है कि पर्यावरण और विकास के बीच गहरा संबंध है और यह कि ‘पृथ्वी के बारे में सोचने’ की गहरी आवश्यकता है ।
निर्वहनीय विकास की परिभाषा ऐसे विकास के रूप में की गई है जो आवश्यकताओं की पूर्ति के बारे में भावी पीढ़ियों की क्षमता को प्रभावित किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करे । इसमें देशों, महाद्वीपों, जातियों, वर्गों के बीच समता का ध्यान भी रखा जाता है । इसमें एक ओर सामाजिक विकास और आर्थिक अवसर तो दूसरी ओर पर्यावरण की आवश्यकताएँ शामिल हैं ।
निर्वहनीय विकास के अंतर्गत किसी पारितंत्र की क्षमता के अंदर रह कर सभी लोगों और खासकर निर्धन और अभावग्रस्त लोगों के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने का प्रयास किया जाता है । यह पर्यावरण संबंधी दुष्प्रभावों को कम करके बेहतर जीवन की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया है । इसकी शक्ति यह है कि इसमें मानवीय आवश्यकताओं और पर्यावरणीय आवश्यकताओं की आपसी निर्भरता स्वीकार की जाती है ।
निर्वहनीय विकास सुनिश्चित करने के लिए हर आर्थिक संवृद्धि वाले कार्यकलाप के पर्यावरण संबंधी प्रभावों पर भी विचार होना चाहिए ताकि वह दीर्घकालिक आर्थिक संवृद्धि बने और निर्वहनीय विकास के अधिक अनुकूल हो । बाँधों, खदानों, सड़कों, उद्योगों और पर्यटन विकास जैसी अनेक विकास परियोजनाओं से पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव पड़ते हैं और इनको शुरू करने से पहले ही इनके प्रभावों का अध्ययन किया जाना चाहिए ।
इसलिए निर्वहनीय विकास का ध्यान रखनेवाली किसी भी रणनीति में हर परियोजना के लिए वैज्ञानिक ढंग और ईमानदारी से एक पर्यावरण-प्रभाव आकलन (EIA) होना चाहिए और उसके बिना परियोजना को स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिए ।
बड़े बाँध, प्रमुख राजमार्ग, खनन उद्योग आदि किसी क्षेत्र के पर्यावरण को सहारा देने वाले पारितंत्रों को गंभीर हानि पहुँचा सकते हैं । वन नवीकरणीय संसाधनों को बनाए रखने के लिए, पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड के स्तर को कम रखने के लिए और ऑक्सीजन के स्तर को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं । वनों का विनाश जैव-विविधता को कम करता है जो पृथ्वी पर जीवन के संरक्षण के लिए बचाकर रखी जानी चाहिए ।
सावधानी से योजना न बनाई जाए तो प्रमुख भारी उद्योग वायु और जल को प्रदूषित करके पर्यावरण की हानि करते हैं और भारी मात्रा में अपशिष्ट पैदा करते हैं जिनसे पर्यावरण के लिए दीर्घकालिक खतरे पैदा होते हैं । विषैले और परमाणविक अपशिष्ट गंभीर आर्थिक समस्या बन सकते हैं क्योंकि उनसे छुटकारा पाना बहुत मँहगा पड़ता है । इसलिए किसी परियोजना की अनुमति देने से पहले उसके आर्थिक लाभों को उसकी पर्यावरण संबंधी संभावित लागतों के आधार पर परखा जाना चाहिए ।
अपने देश के नागरिकों तथा विश्व के स्तर पर एक साझे भविष्य के नागरिकों के रूप में हमें विकास के ढर्रे पर बराबर निगरानी रखनी चाहिए । अगर ऐसा लगे कि एक विकास परियोजना या उद्योग से पर्यावरण के लिए गंभीर समस्याएँ पैदा हो रही हैं तो विचार के लिए उसे स्थानीय प्रशासन, वन विभाग या प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों के समक्ष रखना हमारा कर्त्तव्य है ।
इसके अलावा, हम जहाँ रहते हैं उसके आसपास अगर विकास की नई परियोजनाओं पर विचार हो रहा हो तो यह सुनिश्चित करना हमारा कर्त्तव्य है कि वह पर्यावरण-सुरक्षा के उपायों के अनुरूप हो । जहाँ हमारे लिए विश्वस्तरीय सोच आवश्यक है, वहीं हमारा कर्म स्थानीय स्तर पर होना चाहिए । हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्यावरण की भावी सुरक्षा पर विचार न करनेवाली तीव्र आर्थिक संवृद्धि के बदले विकास की एक अधिक निर्वहनीय, पर्यावरण की दृष्टि से उपयुक्त रणनीति तय हो ।
बड़े आकार की नई परियोजनाओं के लिए सरकार ने पर्यावरण-प्रभाव आकलन (EIA) की संक्षिप्त रिपोर्ट का प्रकाशन और ‘सार्वजनिक सुनवाई’ का आयोजन अनिवार्य कर दिया है । आवश्यक यह है कि जिम्मेदार नागरिकों के रूप में हम सब अपने क्षेत्र में आयोजित सार्वजनिक सुनवाई के बारे में पढ़े, विचारें, अपनी प्रतिक्रिया दें तथा परियोजना के संभावित प्रभावों पर टिप्पणी करें ।
अकसर परियोजनाओं के ऐसे समर्थक होते हैं जो केवल तीव्र आर्थिक लाभों को देखते हैं । वातावरण के प्रति सजग रहने वाले व्यक्तियों और समूहों के रूप में हमें ऐसे निहित स्वार्थों का सामना करना होगा ताकि हमारे पर्यावरण की और हानि न हो । हम पर्यावरण हानि की इजाजत देकर समाज के एक वर्ग के आर्थिक लाभ का समर्थन नहीं कर सकते ।