Read this article in Hindi to learn about the four major problems of water resources. The problems are: 1. Over-Utilization and Pollution of Surface and Ground Water 2. Global Climate Change 3. Floods 4. Drought.
Problem # 1. भूजल और भूमिगत जल का अति-उपयोग और प्रदूषण (Over-Utilization and Pollution of Surface and Ground Water):
जनसंख्या में वृद्धि के साथ अनेक बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जल की आवश्यकता भी अधिकाधिक बढ़ रही है । आज अनेक क्षेत्रों में यह आवश्यकता पूरी नहीं की जा सकती । जल का अति-उपयोग विभिन्न स्तरों पर किया जा रहा है । अधिकांश लोग वास्तव में जितनी आवश्यकता है उससे अधिक जल का उपयोग करते हैं ।
हममें से अधिकांश लोग झरने (shower) से नहाकर या कपड़े धोते समय जल की बरबादी करते हैं । ऐसे कई तरीके हैं जिससे किसान उपज में कमी लाए बिना जल का उपयोग कम कर सकते हैं, जैसे ड्रिप सिंचाई की विधियों को अपनाकर ।
कृषि में भी रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से भूजल और भूमिगत जल का प्रदूषण होता है । खाद के रूप में जैवभार (biomass) का उपयोग, नीम की वस्तुओं का गैर-विषैले कीटनाशकों के रूप में उपयोग तथा कीट-प्रबंध की समन्वित प्रणालियाँ आदि के उपयोग जैसी विधियाँ कृषि के कारण भूजल और भूमिगत जल के प्रदूषण को कम करने में सहायक होंगी ।
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अधिकतर उद्योग भी केवल अपने अल्पकालिक आर्थिक लाभों को बढ़ाने का प्रयास करते हैं और वे अपने द्रव अपशिष्ट (liquid waste) को बिना किसी परवाह के जलधाराओं, नदियों और झीलों में छोड़ देते हैं । आगे चलकर जब लोग पर्यावरण संवेदी उद्योग के ‘हरित उत्पादों’ (green products) का प्रयोग करने के बारे में अधिक सजग होंगे तब प्रदूषण करने वाले उद्योगों के उत्पादों का प्रयोग नहीं करेंगे ।
जो उद्योग प्रदूषण फैलाते हैं, पर्यावरण की चिंता नहीं करते हैं और अपशिष्ट पदार्थों की सफाई के संयंत्रों की लागत बचाने के लिए रिश्वत देकर काम चला लेते हैं, वे अंततः पकड़े जाएंगे, दंडित किए जाएँगे, यहाँ तक कि बंद भी कर दिए जाएँगे । जनचेतना उद्योगों पर पर्यावरण-स्नेही माल तैयार करने के लिए, जिनकी लोकप्रियता अभी से बढ़ रही है, अधिकाधिक दबाव डाल सकती है ।
लोग जब अपने खाद्य पदार्थों में मौजूद कीटनाशकों से स्वास्थ्य के लिए पैदा होने वाले गंभीर खतरों को जानेंगे तो जनचेतना किसानों पर दबाव डालेगी कि वे स्वास्थ्य के लिए घातक रसायनों का प्रयोग कम करें ।
Problem # 2. जलवायु में विश्वव्यापी परिवर्तन (Global Climate Change):
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विश्वभर में वायु प्रदूषण के कारण जलवायु में होने वाले परिवर्तन अब हमारी जलवायु को भी प्रभावित करने लगे हैं । कुछ क्षेत्रों में विश्वव्यापी उष्णता और अल नीनो (El Nino) हवाओं ने अभूतपूर्व तूफान पैदा किए हैं । दूसरे क्षेत्रों में उनके कारण लंबे सूखे पड़ रहे हैं । हर जगह वायुमंडल के प्रदूषण से जन्मे ‘हरितगृह प्रभाव’ के कारण जलवायु में अनियमित और अचानक परिर्वतन हो रहे हैं । इससे क्षेत्रों की जलव्यवस्था संबंधी दशाओं पर गंभीर प्रभाव पड़ रहे हैं ।
Problem # 3. बाढ़ (Floods):
बाढ़ सदियों से पर्यावरण की एक गंभीर समस्या रही है । लेकिन किनारों को तोड़कर उफनती नदियों से अधिकाधिक गंभीर तबाही इसलिए पैदा हो रही है कि लोगों ने जलग्रहण क्षेत्रों (catchments) को वनों से खाली कर दिया है और उन जलोढ़ मैदानों का सघन उपयोग करने लगे हैं जो कभी सुरक्षा वॉल्वों के काम करते थे ।
जलोढ़ मैदानों की नमभूमि प्रकृति की वह बाढ़-नियंत्रण व्यवस्था है जिनमें उफनती नदियों का वेग टूट जाता है और वे बिखर जाती हैं । ये मैदान पानी को सोखने वाले अस्थायी स्पंज की तरह काम करते हैं और तेजी से बह रहे पानी को आसपास की जमीनों को हानि पहुँचाने नहीं देते ।
हिमालयी क्षेत्र में वनों का विनाश बाढ़ों का कारण है जो साल-दर-साल गंगा, उसकी सहायक नदियों और ब्रह्मपुत्र की वादियों में लोगों की जानें ले रही हैं और फसलों और घरों को नष्ट कर रही हैं । बाढ़ के दौरान नदियाँ रास्ता बदल लेती हैं और टनों मूल्यवान मिट्टी समुद्र में चली जाती है । वनों का ह्रास होता है तो वर्षा का जल धीरे-धीरे मिट्टी में नहीं जाता, बल्कि पर्वतों की ढालों पर तेजी से बहता है और बड़ी मात्रा में मिट्टी की ऊपरी सतह बहा ले जाता है ।
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मिट्टी की यह भारी मात्रा नदियों में गाद बनकर अस्थायी रूप से रुकावट पैदा करती है लेकिन दबाव बढ़ने पर गाद आखिरकार हट जाता है और बहुत अधिक मात्रा में पानी एकाएक बहकर नीचे मैदानों में पहुँच जाता है । वहाँ नदियाँ उफनाती हैं, किनारे तोड़ती हैं तथा बाढ़ का जल फैलकर लोगों के खेतों और घरों को निगल लेता है ।
Problem # 4. सूखा (Drought):
दुनिया के अनेक क्षेत्रों में वर्षा बहुत ही अनिश्चित है । इस कारण ऐसे समय भी आते हैं जब पीने, खेतों में देने तथा नगरीय और औद्योगिक उपयोगों के लिए जल की गंभीर कमी हो जाती है । इस तरह सूखा-संभावित क्षेत्रों में समय-समय पर अकाल आते रहते हैं ।
इन बुरे बरसों में किसानों को कोई आय नही होती और चूँकि उनकी कोई स्थायी आय नहीं होती, वे सूखे से बराबर डरते रहते हैं । भारत में ‘सूखा-संभावित क्षेत्र विकास कार्यक्रम’ चल रहे हैं जिनके द्वारा इन क्षेत्रों में सूखे के प्रभाव को निरस्त किया जाता है । इन योजनाओं में लोगों को सड़कें, सिंचाई के छोटे-छोटे साधन और बागबानी के कामों के बदले मजदूरियाँ दी जाती हैं ।
सूखा हमारे देश की एक प्रमुख समस्या रही है, खासकर शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में । यह जलवायु की एक अनिश्चित दशा है और मानसून की एक या एक से अधिक असफलता से पैदा होती है । देश के अलग-अलग भागों में इसकी बारंबारता अलग-अलग है ।
मानसून की असफलता को रोक पाना तो संभव नहीं है पर उम्दा पर्यावरण प्रबंध उसके कुप्रभावों को कम कर सकता है । सूखे के काल में जल की कमी घरों, खेती और उद्योगों को प्रभावित करती है । इससे खाद्य पदार्थों की कमी हो जाती है और कुपोषण फैलता है जो विशेष रूप से बच्चों को प्रभावित करता है ।
सूखे के गंभीर प्रभावों में कमी के लिए अनेक कदम उठाए जा सकते हैं । लेकिन यह सब एक निरोधक उपाय के रूप में किया जाना चाहिए ताकि जब मानसून आए तो स्थानीय जनता के जीवन पर उसके प्रभाव को कम किया जा सके ।
जिस साल वर्षा अच्छी होती है, हम पानी का संरक्षण किए बिना उसको समाप्त कर देते हैं और उसका विवेकपूर्ण उपयोग नहीं करते । इसलिए जब वर्षा नहीं होती तब सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पीने तक के लिए पानी नहीं होता ।
सूखे के प्रभाव में तीव्रता लाने वाला एक कारण वनों का विनाश है । पहाड़ों की ढालों पर से वनों का आवरण जब हट जाता है तो वर्षा का जल नदियों में पहुँच जाता है । वन के आवरण के कारण जल उसी क्षेत्र में रहता है और धीर-धीरे रिसकर नीचे पहुँचता है । इससे प्राकृतिक भूमिगत जलाशयों में जल का स्तर बढ़ता है ।
एक अच्छे मानसून के कारण ये जलाशय अगर भर जाएँ तो उसका उपयोग सूखे के काल में किया जा सकता है । अगर भूमिगत जल का अति-उपयोग होता रहे तो जल का स्तर नीचे चला जाता है और वनस्पतियों को हानि पहुँचती है । इस तरह मृदा और जल का प्रबंध और वनोरोपण ऐसे दीर्घकालिक उपाय हैं जो सूखे के प्रभाव को कम करते हैं ।