Read this article in Hindi to learn about the ethical basis of environment education and awareness.
संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हम एक ऐसे लोकाचार (ethos) का सृजन करें जो समाज में निर्वहनीय जीवनशैली का आधार बने । इससे ही पर्यावरणीय शिक्षा की आवश्यकता समझ में आएगी । हमारे देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसीलिए आदेश दिया कि विद्यालय और महाविद्यालय के स्तर पर पर्यावरण अध्ययन का एक अनिवार्य पाठयक्रम हो । इसका मकसद पर्यावरण संबंधी जागरूकता पैदा करना ही नहीं, पर्यावरण के अनुकूल कार्रवाई को भी संभव बनाना हो ।
ऐसे अनेक साधन जो पर्यावरण संबंधी नैतिक मुद्दों के प्रति चेतना जगा सकते हैं उनमें कोई भी साधन प्रकृति के जीवंत अनुभवों जितना शक्तिशाली नहीं है । प्रकृति के प्रति प्रेम पर्यावरण के प्रति अनुकूल कार्रवाई को संभव बनाता है । इसी मकसद को पाने के लिए विद्यालय और महाविद्यालय के स्तर पर हमारी मौजूदा शैक्षिक प्राक्रियाओं को एक नई दिशा दी जा रही है ।
हमारे पर्यावरण से संबंधित नैतिक मुद्दे से जुड़े दो पक्ष हैं । पहला है प्रकृति के महत्त्व को समझना तथा उसके सौंदर्य को महसूस करना और दूसरा है प्रकृति की शान को बचाकर रखना ।
संसाधन रूप में प्रकृति का महत्त्व (Valuing Nature as a Resource):
यह आवश्यक है कि पर्यावरण के मुद्दों पर आधारित एक मूल्य प्रणाली हमारी सोच का अंग बने । हमारे पूर्वज पृथ्वी को माता मानते थे । इसे बुनियादी तौर पर भुला दिया गया है । प्राचीन भारत में वनों को पवित्र माना जाता था । आज हमें पता है कि वन वायु को स्वच्छ रखते हैं और सूखे दिनों के लिए जल को रोके रखने वाले स्पंज का काम करते हैं । हिंदू ग्रंथों, बौद्ध दर्शन और खासकर जैन धर्म में जीवन की व्यवस्था में पृथ्वी की प्रत्येक प्रजाति को एक विशेष स्थान प्राप्त है । बहुत-सी प्रजातियों को केवल महत्त्व ही नहीं दिया जाता था, बल्कि उनकी पूजा भी की जाती थी ।
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आज की दुनिया में जब हममें से अधिकतर व्यक्ति प्रकृति से बहुत दूर हैं, हमें इस बात का ध्यान नहीं रहता कि हमारे इस्तेमाल की हर चीज मूल रूप से प्रकृति से ही मिलती है । संसार प्रकृति की वस्तुओं और सेवाओं पर निर्भर है । प्रकृति के बिना जीवन संभव नहीं । हम सब प्रकृति के जिन संसाधनों का उपयोग करते हैं और जिन पर निर्भर हैं उनका अभीष्टतम उपयोग तभी संभव है जब हम उनका समतामूलक वितरण करें । विषमता अगर बहुत अधिक हो तो केवल अराजकता ही पैदा होगी ।
प्रकृति संरक्षण की नैतिकता की पुनर्स्थापना के लिए पर्यावरण-शिक्षा और संरक्षण की जागरूकता की आवश्यकता है । इसका सबसे अच्छा उपाय यह है कि हम युवाओं को निर्जन स्थानों से प्राप्त प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी निर्भरता से परिचित कराएँ और साथ ही प्रकृति के अद्भुत और सुंदर पहलुओं की चेतना भी पैदा करें । आज विकसित और विकासशील देशों के अधिकतर लोग जिन निम्न कोटि के क्षेत्रों और प्रदूषित बस्तियों में रहते हैं, ये पहलू उनसे ठीक विपरीत हैं ।
प्रकृति का सौंदर्य और निर्जनता की गरिमा:
अकसर हम प्रकृति को नजरअंदाज करते हैं । हम सूर्यास्त के सौंदर्य को देखने या वन की अथाह शांति में बैठने, पक्षियों के गीतों को सुनने या पत्तों के बीच हवा की सरसराहट को सुनने का समय शायद ही निकालते हैं । एक बीज के मिट्टी से अंकुरित होकर धीरे-धीरे नन्हें से पौधे में बदलने का जादू देखने का कष्ट हम शायद ही करते हों । मौसम-दर-मौसम किसी पेड़ पर नए पत्ते, फूल और फल लगते या बीज निकलते शायद ही देखते हों ।
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अपने आवासों के मौसमी परिवर्तनों के साथ विभिन्न पशु-पक्षियों के परस्पर संबंधों के बदलाव या जुड़ाव पर हम शायद ही कभी सोचते हों । ये रोजमर्रा की शुष्क घटनाएँ नहीं हैं; ये प्रकृति की उस घड़ी के जादुई और रहस्यमय पक्ष हैं जो हमारे चारों तरफ खामोशी से टिक-टिक कर रही है । हम अगर प्रकृति के अद्भुत पक्षों का अनुभव करें तो हमारा जीवन बहुत समृद्ध हो जाएगा ।
अगर हम यह समझ लें कि निर्जनता का अपना एक मूल्य है तो मनुष्य प्रकृति के शोषक की बजाय उसके न्यासी की सही भूमिका निभाएगा । एक निर्जन क्षेत्र, जंगल, झील के तट, झरने या सागर तक जाइए जहाँ मानव ने पारितंत्र में गंभीर परिवर्तन नहीं किए हैं । आप उसके सौंदर्य को महसूस करने लगेंगे । वह मानव की आत्मा का उपचार करेगा; उसके हृदय में नवजीवन का संचार करेगा ।
निर्जनता के बिना पृथ्वी एक उदास, नीरस, मानव-बहुल परिदृश्य बनकर रह जाएगी । सवाल यह है कि भूमि और संसाधनों के उपयोग-मूल्य के कारण मानव की लगातार बढ़ती भूख के मुकाबले हम निर्जनता का कितना भाग बचाकर रख सकेंगे । जब तक हम निर्जनता के पर्यावरणीय मूल्य को नहीं समझेंगे तब तक उसके संरक्षण की नैतिकता हमारे दैनिक जीवन का अंग नहीं बन सकेगी । निर्जनता के बिना पृथ्वी भी अंततः रहने योग्य नहीं रहेगी ।
कर्म की धारणा इस विश्वास पर आधारित है कि मनुष्यों और पशुओं के कर्मों के आधार पर उनकी आत्माएँ एक योनि से दूसरी योनि में प्रवेश करती हैं । इससे जीवन के सभी रूपों की एकता की धारणा पैदा होती है । पौधों और पशुओं समेत समस्त जीवन के प्रति अहिंसा ही भारत का वह बुनियादी दर्शन है जिसे आरंभिक दार्शनिकों और बाद में बुद्ध, महावीर और महात्मा गाँधी जैसे ऋषियों ने प्रतिपादित किया ।
अहिंसा तथा ‘जीवन’ के सभी रूपों का महत्त्व ही बौद्ध और जैन दर्शन का केंद्र है । इससे यह विचार जन्म लेता है कि पशुओं का महत्त्व केवल उनके उपयोग के कारण नहीं है, बल्कि इसलिए भी है कि वे पृथ्वी की उस एकता के अंग हैं जिससे हमारा अपना जीवन भी जुड़ा हुआ है । भारतीय दर्शन में स्वयं पृथ्वी भी सम्मान और उपासना की वस्तु है । इसके विपरीत, पाश्चात्य विचारधारा में प्रकृति जीती जा सकने वाली और इस्तेमाल की जाने वाली एक वस्तु है ।
ये चिंतन प्रक्रियाओं के बुनियादी अंतर हैं । पश्चिम के अनेक आधुनिक दार्शनिक अब पूर्व की इन चिंतनधाराओं को मानव के विकास का एक नया आधार समझने लगे हैं । फिर भी, प्रकृति के शुद्ध उपयोगितावादी या वैज्ञानिक शोषण से हटकर प्रकृति से सामंजस्य की दिशा में बदलाव तभी आ सकता है जब हममें से हर व्यक्ति प्रकृति की ‘एकता’ का बोध और सम्मान करे ।