Read this article in Hindi to learn about the consumption patterns and equitable utilization of resources.
हम संसाधनों का उपयोग और वितरण कैसे करते हैं, पर्यावरणीय नैतिकता इससे जुड़ी हुई है । क्या हम संसाधनों का ऐसा उपयोग कर सकते हैं कि एक व्यक्ति के पास बस जिंदा रहने के ही साधन हों, जबकि दूसरा व्यक्ति संसाधनों का दोनों हाथों से उपयोग करे ? एक न्यायपूर्ण संसार में, संसाधनों की आज की अपेक्षा अधिक समतामूलक भागीदारी आवश्यक है ।
संसाधनों के न्यायपूर्ण वितरण के अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय पहलू हैं जिन पर हमारा ध्यान देना आवश्यक है । धनी और गरीब देशों के अलावा हर देश में धनी और गरीब समुदाय भी हैं तथा धनी और गरीब परिवार भी । आधुनिक आर्थिक विकास के इस दौर में अमीर-गरीब की खाई चौड़ी हो रही है ।
नगरीय, ग्रामीण और निर्जन क्षेत्रों में मानव समुदाय प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर रहा है जो निर्जन क्षेत्रों (वनों, घासस्थलों, नमभूमियों) से ग्रामीण क्षेत्रों में और वहाँ से नगरीय क्षेत्रों में आते हैं । दौलत का स्थानांतरण भी इसी दिशा में होता है ।
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दौलत का यह असमान वितरण तथा भूमि और उसके संसाधनों का असमान बँटवारा पर्यावरण संबंधी एक गंभीर मुद्दा है । संसाधनों का समतामूलक वितरण नगरीय, ग्रामीण और निर्जनवासी समुदायों के निर्वहनीय विकास का आधार है । राजनीतिक सत्ता का आधार नगर होने के कारण असमानता पैदा होती है और ग्रामीण और वन क्षेत्रों में संसाधनों के प्रबंध की निर्वहनीयता घट जाती है ।
1985 में अनिल अग्रवाल ने Status of India’s Environment शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की । इसमें भारत की पर्यावरण संबंधी समस्याओं पर जोर दिया गया था जिनका कारण अमीरों के अति-उपयोग के ढर्रे हैं जिनसे गरीब और गरीब बन रहे हैं। पहली बार यह बात तभी समझी गई कि आदिवासी, खासकर स्त्रियाँ और समाज के दूसरे हाशियाई वर्ग, आर्थिक विकास से बाहर छूट रहे हैं ।
भारतीय समाज के विभिन्न हितार्थी (stakeholders) विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से उनके जीवन में योगदान देते हैं । अनिल अग्रवाल ने आठ प्रस्थापनाएँ (propositions) सामने रखीं जो पर्यावरण से जुड़े नैतिक मुद्दों के लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं ।
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ये इस प्रकार हैं:
1) पर्यावरण का विनाश अधिकतर अमीरों द्वारा किए जाने वाले अति-उपयोग का परिणाम है ।
2) पर्यावरण के विनाश से सबसे अधिक पीड़ित गरीब होते हैं ।
3) जहाँ प्रकृति का ‘पुनर्सृजन’ किया जा रहा है, जैसे वनरोपण में, वहाँ भी गरीबों की आवश्यकताओं के खिलाफ और अमीरों की आवश्यकताओं के अनुरूप उसका रूपांतरण किया जा रहा है ।
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4) गरीबों में भी सबसे अधिक पीड़ित हैं हाशियाई संस्कृतियाँ और व्यवसाय, खास तौर पर स्त्रियाँ ।
5) समाज और प्रकृति की समग्रवादी समझ के बिना समुचित आर्थिक और सामाजिक विकास असंभव है ।
6) अगर हमें गरीबों की चिंता है तो सकल प्राकृतिक उत्पाद (Gross Nature Product) को हम और नष्ट होने की इजाजत नहीं दे सकते । प्रकृति संरक्षण और पुनर्सृजन हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता बन चुका है ।
7) सकल प्राकृतिक उत्पाद तभी बढ़ेगा जब हम जनता और साझे संसाधनों में बढ़ती दूरी को रोक और पलट सकें । इसके लिए हमें अपनी परंपरागत संस्कृतियों से बहुत कुछ सीखना होगा ।
8) केवल निर्वहनीय ग्रामीण विकास की बातें करना, जैसा कि विश्व संरक्षण रणनीति (World Conservation Strategy) करती है, बिल्कुल अपर्याप्त है । हम ग्रामीण पर्यावरण या उस पर निर्भर ग्रामीण जनता को तब तक नहीं बचा सकते जब तक कि हम निर्वहनीय नगरीय विकास को संभव न बनाएँ ।
पर्यावरण के विनाश की लागत कौन उठाता है ? समाज के अधिकांश वर्ग जब तक बहुत देर न हो जाए, पर्यावरण के ह्रास के प्रत्यक्ष प्रभावों को महसूस नहीं करते । सबसे अधिक पीड़ित तो गरीब, खासकर ग्रामीण स्त्रियाँ और आदिवासी, होते हैं जो वनों पर निर्भर हैं । नदी-नालों पर निर्भर परंपरागत मछुआरे तथा मछलियाँ और झींगे पकड़नेवाले तटवर्ती लोग जलीय पारितंत्रों के ह्रास से बुरी तरह प्रभावित होते हैं । विभिन्न प्रकार के वनों से जलावन लकड़ी जमा करने वाले लोग तथा चरागाहों पर निर्भर पशुपालक अपने संसाधनों में कमी होने पर कष्ट झेलते हैं ।
वनों के विनाश से, चरागाहों के समाप्त होने से, जल के स्थायी स्रोतों के बंद होने से सबसे अधिक प्रभावित समाज के अनेक हाशियाई वर्ग होते हैं । इन सभी प्रभावों को भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकाधिक पड़ रहे अनिर्वहनीय दबावों से जोड़ा जा सकता है ।
संपन्न और शिक्षित नगरवासी परंपरा-प्रेमी ग्रामीणों से अधिक संसाधन और ऊर्जा का उपयोग करते हैं । अपने जीवन को सहारा देनेवाले प्राकृतिक संसाधनों के स्रोतों से काफी दूर बसे नगरवासियों को पर्यावरणीय मुद्दों की जानकारी देने के लिए एक सुविचारित पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम से परिचित कराने की आवश्यकता है ।
दूसरी ओर, ग्रामवासी प्राकृतिक संसाधनों के निर्वहनीय उपयोग की आवश्यकता की गहरी समझ रखते हैं और संरक्षण की विधियों को जानते हैं, लेकिन पर्यावरण संबंधी जो नए मुद्दे पैदा हुए हैं वे अकसर उनके ज्ञान-क्षितिज से परे होते हैं, जैसे ऊष्मा या प्रदूषण, कीटनाशकों की समस्या आदि ।
इसलिए इन लोगों को एक अलग ढंग की पर्यावरण शिक्षा की आवश्यकता है जिसका संबंध उनकी जानकारी में मौजूद कमियों से हो । विकास का जो स्वरूप भोले-भाले ग्रामीण समुदायों पर थोप दिया जाता है उसके बदले उन्हें स्थान-विशिष्ट पर्यावरण चेतना कार्यक्रमों के द्वारा जागरूक बनाना होगा । इसमें उनकी परंपरागत स्थानीय ज्ञान-प्रणालियों का उपयोग भी होना चाहिए जिनके आधार पर नई धारणाएँ कायम की जा सकें, बजाय उन पर ऐसी धारणाएँ थोपने के जो उनके लिए एकदम परायी हों ।
भारत के साझे संसाधनों में कभी बड़े-बड़े जंगल, चरागाही और जलीय पारितंत्र शामिल थे । जब अंग्रेजों ने देखा कि जहाज बनाने और दूसरे कामों के लिए पर्याप्त लकड़ी नहीं मिल रही है, तो उन्होंने इमारती लकड़ी देनेवाले पेड़ लगाने के लिए वनों को सरकारी ‘आरक्षित वनों’ में बदल दिया । इससे स्थानीय जनता इन संसाधनों के संरक्षण से विमुख हो गई । फिर इसके कारण बड़े पैमाने पर वनों का विनाश हुआ और बंजर पैदा हुए ।
अतीत में स्थानीय पंचायतों द्वारा शासित गाँवों में चरागाहों के प्रबंध, वन-संसाधनों के संग्रह, पवित्र कुंजों के संरक्षण आदि के बारे में सुस्पष्ट नियम होते थे । इनसे संरक्षण को बढ़ावा मिलता था । साझे संसाधानों का दुरुपयोग रोकने की परंपरागत व्यवस्थाओं के कारण वितरण लगभग समतामूलक होता था ।
किसी भी नियम के हनन पर पंचायत फौरन कदम उठाती थी और दोषी को दंड मिलता था । इस प्रकार, साझे संसाधनों को समुदाय द्वारा स्थानीय स्तर पर बचाकर रखा जाता था । पर जब भूमि के उपयोग के प्रतिमान बदले तो ये व्यवस्थाएँ भंग हो गईं और विकास की अनियोजित रणनीति के कारण अनिर्वहनीय तौर-तरीके पैदा हुए ।