विदेश नीति निर्माण में संसद की भूमिका | “Role of Parliament in Developing Foreign Policy” in Hindi Language!
विदेश नीति निर्माण में संसद की भूमिका:
भारतीय विदेश नीति के निर्माण, निर्धारण एवं कार्यान्वयन में संसद की भी भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं होती है । भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहाँ पर संसदात्मक शासन प्रणाली की स्थापना की गई है । इसलिए भारत में सरकार संसद के नियंत्रण में सारे कार्य करती है ।
जैसे कि राजनयिक, वाणिज्य और व्यापार प्रतिनिधित्व, युद्ध और शांति, संयुक्त राष्ट्र, नागरिकता (Citizenship), देशीयकरण (Naturalisation) आदि संघ सूची में शामिल विदेश नीति संबंधी कई मामलों में विधान (Legislation) बनाने का अधिकार केवल संसद को ही है ।
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संधियों को अनुमोदित करने की शक्ति संसद को है । किंतु संधियों की मूल विषय-वस्तु का निर्धारण केंद्र सरकार करती है और फिर संसद से उसका अनुमोदन प्राप्त करती है । भारत-सोवियत शांति और मैत्री संधि के मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गाँधी ने 9 अगस्त 1971 में संधि पर हस्ताक्षर होने से एक घंटा पहले संसद को इस संधि के बारे में सूचित किया था ।
राजनीतिक दृष्टि से संधियों के अनुमोदन का मामला प्रधानमंत्री के बहुमत समर्थन पर निर्भर करता है । वैसे, श्रीमती गाँधी के कार्यकाल के दौरान उनके निर्णय पर किसी ने भी कोई प्रश्न नहीं उठाया । प्रो अप्पादुरै ने डोमेस्टिक रूट्स ऑफ इंडियाज फॉरेन पॉलिसी में विस्तार से यह चर्चा की है कि नेहरू जी के शासनकाल के दौरान संसद ने भारत की चीन संबंधी नीति पर अपने प्रभाव का किस प्रकार इस्तेमाल किया ।
संसद और राष्ट्रपति के दबाव में पंडित नेहरू को कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री के पद से हटाना पड़ा । संसद के प्रभाव का दूसरा उदाहरण अक्तूबर 1962 के सीमा युद्ध के बाद चीनी प्रोपोगंडा से निपटने के लिए मार्च 1963 में आकाशवाणी के लिए सरकार द्वारा वॉयस ऑफ अमेरिका (वी.ओ.ए.) से उच्च शक्ति वाला ट्रांसमीटर लेने का मामला रहा ।
समझौते में वॉयस ऑफ अमेरिका के साथ समय बाँटने से संबंधित एक यह खंड (clause) था । किंतु तत्कालीन कम्यूनिस्ट सांसद इसके कड़े विरोधी थे जिसके मूल में भारत के राष्ट्रीय हित की रक्षा करने के स्थान पर उनकी अमेरिका-विरोधी थी । इस विरोध के चलते अंतत: सरकार को पूरी योजना को त्याग देना पड़ा ।
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1996 से गठबंधन सरकारों का दौर चल रहा है । गठबंधन सरकार में लोगों के प्रतिनिधियों को विश्वास में लेना प्रधानमंत्री के लिए विवेकपूर्ण होता है । मार्च, 2003 में इराक के विरुद्ध अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन ने द्वितीय खाड़ी युद्ध के दौरान एन. .डी.ए. सरकार प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कड़े शब्दों के द्वारा युद्ध के विरुद्ध अमेरिका को दोषी न ठहराने तथा साथ ही ज्यादा लोगों का संहार करने वाले हथियारों को नष्ट करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के साथ इराक को सहयोग करने वाले ‘मध्य मार्ग’ के पक्ष में थी ।
किंतु संसद ने इराक में अमेरिकी सैनिक हस्तक्षेप पर निंदा/खेद प्रकट करने के प्रस्ताव को अंगीकृत करने पर जोर दिया । अंतत : इसके लिए अंग्रेजी के अपेक्षाकृत भारी शब्द ‘condemn’ के स्थान पर हिंदी भाषा के ‘ninda’ (निंदा) शब्द का इस्तेमाल किया । संसदीय प्रभावों का क्षेत्र प्रमुखत: तीन रूपों में इस प्रकार दृष्टिगत होता है:
(1) गठबंधन सरकार के लिए यह पहला अवसर नहीं था जब उसे नीति निर्धारण में इस प्रकार की परेशानी का सामना करना पड़ा । पहले खाड़ी युद्ध के दौरान 1991 में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे । प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने अमेरिकी वायुसेना के हवाई जहाजों को मुंबई हवाई अड्डे पर ईंधन भरने की अनुमति दी थी ।
किंतु जब यह बात आम लोगों को पता चली तो सांसदों ने इसका विरोध किया । चूँकि उस दौरान किसी भी समय चुनाव हो सकते थे, इसलिए चंद्रशेखर सरकार को बाहर से समर्थन कर रही कांग्रेस पार्टी को इससे मुस्लिम मतदाताओं पर इसका प्रभाव पड़ने के कारण इस पर चिंता व्यक्त की । तब बाद में संसद में चर्चा के बाद अमेरिकी वायुसेना के हवाई जहाजों को ईंधन भरने की अनुमति देने में परिवर्तन किया गया ।
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(2) विदेश नीति और देश में राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों को चलाने के लिए धन खर्च करने पर संसद का नियंत्रण होता है । किंतु इस विनियोजित निधि पर संसदीय नियंत्रण औपचारिक है । विदेश और रक्षा जैसे मंत्रियों के लिए बजट और विनियोजन संसद में अक्सर, हड़बड़ी में पारित किया जाता है ।
अनुभवी सांसद मधु दंडवते ने एक बार लिखा था कि 85 से 87 प्रतिशत बजट प्रस्ताव बिना किसी बहस के अनुमोदित कर दिए जाते हैं । यह वास्तव में बहुत ही खेदजनक स्थिति है और देश के उस लोकतंत्रीय सिद्धांत को प्रभावित करती है जिसमें वित्त के ऊपर नियंत्रण स्थापित करके संसद कार्यकारी शाखा को नियंत्रित करती है ।
सांसदों को राष्ट्र की सशस्त्र सेनाओं की वित्तीय जरूरतों के बारे मेँ ज्यादा चिंता नहीं होती । 1959-60 के दौरान, उस समय कम्युनिस्ट चीन, से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा था । किंतु तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण गैलन ने रक्षा बजट में 25 करोड़ रुपए की कटौती का प्रस्ताव किया था ।
सांसदों ने इसका कतई विरोध नहीं किया था । दूसरी ओर, 1987-88 में रक्षा बजट 12,512 करोड़ रुपए था जो कि उस समय तक का सबसे ज्यादा रक्षा बजट था । इस पर चर्चा करते हुए सांसदों ने रक्षा बजट में अचानक बढ़ोतरी पर प्रश्न करने में बहुत हल्का रुख अपनाया । जब एक सांसद ने प्रश्न किया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उस सदस्य को यह कहते द्दुए चुप करा दिया कि रक्षा-बजट पर प्रश्न करने वाला राष्ट्र विरोधी है ।
(3) संसद में सांसद विदेश मामलों में भी ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, स्थगन, प्रश्न आदि जैसी चर्चा आरंभ कराने वाली संसदीय युक्तियाँ अपना सकते हैं । किंतु विदेश नीति संबंधी मुद्दे पर संसद में सरसरी तौर पर ही बहस और चर्चा होती है ।
सांसदों की सामान्य ग्रामीण पृष्ठभूमि और अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सामान्य शिक्षा के निम्न स्तर के बावजूद सांसदों में रुचि की कमी के दो प्रमुख कारण हैं । पह्मना यह कि सच्चाई यह है कि संसद एक बहुत बड़ा निकाय है: लोकसभा के 500 से अधिक सदस्य है और राज्यसभा के 250, जो न तो प्रभावी ढंग से नीति आ निर्माण कर सकते और न ही निर्णय लेने ले सकते हैं ।
यदि संसद द्वारा राष्ट्र की नीति न बना पाने का एक कारण उसके सदस्यों की ज्यादा संख्या है तो दूसरा कारण यह है कि उसके सदस्यों की संसद में विदेश और रक्षा संबंधी मामलों को उठाने की मूलभूत राजनीतिक रुचि नहीं है ।
विदेश मामलों में प्रभावी सांसद की अच्छी भूमिका निभाने के बावजूद उसे अगले चुनावों में कुछ ज्यादा वोट नहीं मिलते । दूसरी ओर, यदि कोई सांसद अपने संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में आयुध डिपो अथवा हथियार बनाने की फैक्टरी लगवाने में सफल रहता है तो वह लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करेगा और अपने निर्वाचन क्षेत्र के और अधिक मतदाताओं से मत प्राप्त कर सकेगा ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रभावी चर्चा और सरकार को वैकल्पिक नीति विकल्प सुझाने के लिए सांसदों में ज्ञान और सूचना का अभाव होता है । यह ऐसी बाधा नहीं है जिसे पार नहीं किया जा सकता । यदि उन्हें विशेषज्ञ सलाह दी जाए तो वे विदेश नीति पर प्रभावी ढंग से चर्चा कर सकते हैं । किंतु सदैव राजनीतिक इच्छा-शक्ति का अभाव देखा जाता है ।
फिर भी, नीति के आम मानदंड निर्धारित करने में संसद मोटे तौर पर प्रभाव डालती दै और इसके बिना सरकार चल नहीं सकती । कभी-कभी देश की विदेश नीति की दिशा निर्धारित करने में संसद का काफी प्रभाव पड़ता है ।
हालाँकि विदेशी मंत्री एक सांसद होता है, फिर भी विदेश मंत्रालय अथवा विदेश कालत निर्धारण अथवा संसद में कोई मजबूत संपर्क-सूत्र नहीं हैं केवल विदेश मामलों की संसदीय सलाहकार समिति ही संपर्क सूत्र है । इसी प्रकार रक्षा से संबंधित समिति भी है ।
संसदीय समितियाँ:
प्रत्येक मंत्री की सहायता के लिए संसद ने परामर्शदात्री समितियाँ (Consulative Committee) बनाई हैं । जब संबद्ध मंत्री को उपयुक्त प्रतीत होता है तो वह परामर्शदात्री समिति की बैठकें बुलाता है । चूँकि इन समितियों का अपना कोई स्वतंत्र संचालन नहीं होता, इसलिए विदेश मंत्री पहले से ही घोषित नीति को स्पष्ट कर्ने अथवा उस पर चर्चा करने के लिए समिति की बैठक बुलाता है ।
किंतु श्रीमती गाँधी के शासनकाल के शुरू में विदेश मामलों की परामर्शदात्री समिति की अपेक्षाकृत अधिक बैठकें बुलाई जाती थी । किंतु 1971 के आम चुनावों के बाद जब उन्होंने अपनी शक्ति को समेकित कर लिया तो विदेश मामलों की परामर्शदात्री समिति को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया ।
इसका एक प्रमाण यह था कि 1971 की भारत-सोवियत मैत्री और सहयोग संधि पर बिल्कुल चर्चा नहीं हुई थी । इस संधि पर हस्ताक्षर करने से पूर्व अथवा बाद में कोई परामर्शदात्री समिति की बैठक नहीं हुई थी जबकि संधि प्रस्ताव कुछ वर्षों तक श्रीमती गाँधी के पास ही था ।
इसी प्रकार, 2 जुलाई, 1972 को शिमला समझौता हुआ और इसकी उसी वर्ष 28 जुलाई को भारत द्वारा पुष्टि की गई । किंतु बंद्योपाध्याय ने यह संकेत किया है कि समझौता होने के बाद 3 जुलाई को और फिर समझौते की पुष्टि होने के एक महीने के बाद 28 अगस्त को परामर्शदात्री समिति की बैठकें तो हुई थी किंतु इन दोनों ही बैठकों में शिमला समझौते का कार्य-सूची में विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया था ।
किंतु आकलन समिति, लोक लेखा समिति और लोक आश्वास समिति जैसे संसद की स्थाई समितियाँ हैं, जिन्हें विशेष सांविधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं । ये समितियाँ विदेश और रक्षा नीति की कार्यशीलता से संबंधित मुद्दों की जाँच करती हैं और कर सकती हैं ।
1970 और 1980 के दशकों के दौरान कई विदेश नीति विद्वानों ने विदेश संबंधी मामलों और रक्षा पर चर्चा करने के लिए स्थाई समिति स्थापित करने की आवश्यकता का सुझाव दिया था । किंतु राजनीतिक वर्ग का यह मानना रहा है कि संसदीय समिति प्रणाली अमेरिका जैसी राष्ट्रपति प्रणाली के तो अनुकूल है किंतु संसदीय सरकार के अनुकूल नहीं है ।
फिर भी कुछ विदेश नीति विशेषज्ञों की लगातार लॉबिंग के बाद अंतत: सरकार ने विदेश मामलों और रक्षा से संबंधित संसदीय समितियाँ गठित करने का निर्णय लिया । ये समितियाँ 1991 में स्थापित की गईं । इस प्रकार, 1991 में विदेश मामलों और रक्षा के क्षेत्र में संसदीय समितियों की स्थापना के बाद विदेश नीति बनाने में संसद की भूमिका में धीरे-धीरे परिवर्तन हुआ । इन्हें चयन समितियाँ (Select Committee) के नाम से जाना जाता है ।
ये न तो सलाहकार समितियाँ हैं और न ही परामर्शदात्री समितियाँ । विदेश और रक्षा मंत्रालय जैसे संबद्ध विभागों के बजट की क्रमश: संवीक्षा करना इन समितियों का कार्य है । सदन में बजट प्रस्तुत करने के बाद सामान्यत: लोकसभा स्थगित हो जाती है । एक महीने के बाद बजट पर विचार करने के लिए संसद दोबारा शुरू होती है ।
इसी प्रकार का समान महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि विदेश मामलों और रक्षा से संबंधित संसदीय समिति उन मुद्दों का अध्ययन करती है जिन्हें संसद महत्वपूर्ण समझती है और समिति संसद तथा कार्यपालक/अधिशासी (Executive) को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती है । कार्यपालक शाखा का यह दायित्व होता है कि वह किए गए कार्य की रिपोर्ट संसद को दे ।
उदाहरण के लिए, रक्षा विभाग की स्थाई समिति सुरक्षा संबंधी महत्त्वपूर्ण मामलों को उठाने और सरकार से स्पष्टीकरण प्राप्त करने में सक्रिय रहती है । जैसे, रक्षा संबंधी संसदीय समिति ने 1995 में कहा था कि “चीन के साथ बेहतर संबंध होने के बावजूद चीन मध्यम और लंबे समय में भारत की प्राथमिक चुनौती है और होगा ।”
संसदीय समितियों के कार्य करने के आधार पर निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि इन समितियों की कार्यप्रणाली को और अधिक मजबूत किए जाने की आवश्यकता है । इस दिशा में एक सुधार यह किया जा सकता है कि इन समितियों को नियमित स्टाफ उपलब्ध कराया जाए ।
यह स्टाफ मध्यम स्तर के नियमित आई.एफ.एस. अधिकारी हों । ये स्टाफ सदस्य समितियों और संसद में चर्चा में शामिल होने वाले मुद्दों का अध्ययन करें । अन्य संभावना यह है कि राजनीतिक दल सेना और विदेश सेवा के ज्यादा से ज्यादा सेवानिवृत्त अधिकारियों को राजनीति में आने और संसद में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करें ।
सेवाकाल के दौरान के उनके ज्ञान से देश के विदेशी मामलों से संबंधित प्रत्येक मुद्दे का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने के लिए संसद को एक संस्था के रूप में मदद मिलेगी । ये समितियाँ विदेश/रक्षा नीति निर्धारण में संसद की भूमिका निश्चित तौर पर सुधरेगी ।
विदेश नीति निर्धारण में उनकी भूमिका को और अधिक मजबूत किए जाने की आवश्यकता है । इस संदर्भ में दो सुझाव दिए जा सकते हैं । पहला उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यो को बढ़ाया जाए और दूसरा इन समितियों को स्थाई विशेषज्ञ स्टाफ उपलब्ध कराया जाए ताकि इन समितियों में सांसद अपनी भूमिका प्रभावी ढंग से निभा सकें ।