एन. डी. ए. सरकार के काल में विदेश नीति । “Foreign Policy during N. D. A. Government Period” in Hindi Language!
विदेश नीति विकास और एन.डी.न. सरकार:
भारतीय विदेश नीति स्वतंत्रता के बाद कई कारकों के फलस्वरूप कई परिवर्तनों के दौर से गुजरी । नरसिम्हा राव के बाद भारत में 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने । वे एक बहुदलीय सरकार के नेता थे जिसमें 13 राजनीतिक दल शामिल थे । परंतु वह सरकार दस महीनों से ज्यादा नहीं टिक सकी ।
अक्तूबर 1999 में हुए चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार दोबारा सत्ता में आ गई । यह पहली बहुदलीय सरकार थी जो लगभग चार वर्षों तक सत्ता में टिकी रह पाई । 1998 में जब भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एन.डी.ए. की सरकार बनी तो इस सरकार ने विदेश नीति के क्षेत्र में निम्नलिखित दो प्रमुख प्रयास किए:
(1) परमाणु हथियार:
दस महीनों के दौरान इस सरकार की विदेश नीति का मुख्य आग्रह परमाणु शस्त्र क्षमता विकसित करने और पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की दिशा में प्रयास करने का था । भारतीय जनता पार्टी भारत के परमाणु शस्त्र शक्ति बनने की महान् प्रवक्ता थी ।
ADVERTISEMENTS:
जब यह पार्टी सत्ता में आई इसने परमाणु शस्त्र परीक्षण करने की योजना बनाई ताकि भारत अन्नका स्थिति की एक परमाणु शस्त्र राज्य के रूप में घोषणा कर सके । 11 मई, 1998 को तीन परमाणु परीक्षण करके भारत ने समूचे विश्व को चकित कर दिया । 13 मई को दो और परीक्षण किए गए ।
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने घोषणा की कि भारत एक परमाणु शस्त्र राज्य है और उन्होंने यह भी घोषित किया कि अब भारत कोई परीक्षण नहीं करेगा क्योंकि सभी आवश्यक आँकड़े (डाटा) एकत्र किए जा चुके हैं । वाजपेयी ने कहा कि भारत केवल न्यूनतम परमाणु निवारक रखेगा ।
भारत 1982 में श्रीमती इंदिरा गाँधी के शासनकाल में और बाद में 1995 में जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे परमाणु शस्त्र परीक्षण करने की कोशिश कर रहा था । लेकिन जब परीक्षण करने की तैयारियाँ की गई तो हर बार अमेरिकी गुप्तचर विभाग ने भारतीय योजनाओं का पता लगा लिया । अत: परमाणु परीक्षणों की योजना बनाने और इनका गुप्त रूप से परीक्षण लेने का श्रेय भारतीय जनता पार्टी को ही मिला ।
(2) संबंध सुधारने का प्रयास:
1999 में प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने का निश्चय किया । इस दिशा में उनका पहला कदम था-पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मिलने के लिए लाहौर तक की बस यात्रा । इस यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री वाजपेयी मीनार-ए-पाकिस्तान भी गए जो इस बात का प्रतीक था कि भारत ने मुहम्मद अली जिन्ना के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत पर आधारित पाकिस्तान के सृजन को स्वीकार किया है ।
ADVERTISEMENTS:
वस्तुत: इस तरह की अभिपुष्टि की कभी जरूरत नहीं पड़ी थी क्योंकि पाकिस्तान के सृजन के प्रति प्रारंभिक विरोध के पश्चात् हिन्दू महासभा समाप्त हो गई थी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में प्रमुख शासक दल के रूप में भारतीय जनता पार्टी ने विभाजन को रह करने के बारे में भी कभी कुछ नहीं कहा ।
लाहौर में बैठक के पश्चात् पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कहा कि यह कश्मीर पर निर्णय का वर्ष होगा । भारत के विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने कहा था कि स्वतत्रता के पचास वर्षों के पश्चात् “क्षेत्र में मानचित्रण का समय अब समाप्त हो चुका है ।” इसका अर्थ यह था कि अब क्षेत्र के भूगोल में परिवर्तन करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ।
मई 1999 में दोनों राष्ट्रों के बीच कारगिल युद्ध हुआ । जब दोनों प्रधानमंत्री अपने द्विपक्षीय संबंधों के भविष्य की चर्चा कर रहे थे, पाकिस्तानी सेना युद्ध की तैयारी कर रही थी । यह युद्ध महत्त्वपूर्ण था क्योंकि मई 1998 में दोनों देशों द्वारा परमाणु शस्त्र प्राप्त कर लेने के पश्चात् यह इन दोनों राष्ट्रों के बीच पहला सैन्य संघर्ष था ।
यह पाकिस्तानी सशस्त्र सेनाओं द्वारा नियंत्रण रेखा पर यथापूर्व स्थिति को बदलने का प्रयास था ताकि जब भी बातचीत हो पाकिस्तानी इसे भारत के साथ एक सौदेबाजी करने के एक साधन के रूप में प्रयुक्त कर सके ।
ADVERTISEMENTS:
फिर भी, पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल परवेज मुशर्रफ ने अक्तूबर 1999 में एक रक्तहीन तख्ता-पलट में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पदच्युत कर दिया । इसके फलस्वरूप पाकिस्तान से संबंधों को सामान्य करने के सभी प्रयास व्यर्थ हो गए ।
भारत ने अपने पारंपरिक तरीके में इस सैनिक-सत्ता प्राप्ति के प्रति प्रतिक्रिया की । भारत ने तब सार्क की बैठक का बहिष्कार किया और यह भी बीड़ा उठाया कि पाकिस्तान को राष्ट्रमंडल से निलम्बित करवाया जाए ।
भारत ने शांति की दिशा में दूसरा प्रयास तब किया जब वाजपेयी ने 2001 के शुरू में परवेज मुशर्रफ को बातचीत करने के लिए आगरा में बुलाया । यह वार्ता असफल रही क्योंकि जनरल मुशर्रफ कश्मीर के तथाकथित मूल मुद्दे पर बातचीत करने के लिए अपनी शर्तों पर अडे रहे ।
पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाओं ने वहाँ की सभी सरकारी संस्थाओं पर अधिकार कर लिया था । उनके शासन के अधीन सीमा-पार आतंकवाद, जो 1989 से भारत-पाकिस्तान संबंधों का विनाशक रहा था, सैनिक तानाशाही द्वारा और अधिक बढ़गया ।
भारत-पाक संबंध तब और अधिक बिगड़ गए जब 13 दिसम्बर, 2001 को पाकिस्तानी आतंकवादियों ने भारत की संसद पर हमला करने की कोशिश की और हमारे शीर्ष नेताओं को खत्म करना चाहा । सौभाग्यवश हमारे सतर्क सुरक्षा बलों ने संसद भवन के एकदम बाहर आतंकवादियों से बलात् गोलाबारी शुरू की और पाँचों पाकिस्तानियों को मार गिराया ।
भारत ने इस्लामाबाद से अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लिया और पाकिस्तान के साथ वायु, रेल और बस मार्गों से सभी संपर्क तोड़ लिए । भारत सरकार ने विश्व की एकमात्र विद्यमान महाशक्ति-अमेरिका से अधिक घनिष्ठ संबंध स्थापित कर लिए हैं । अत: भारतीय गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता का प्रश्न अक्सर उठाया जाता है ।
इसी दौरान पाकिस्तान अमेरिका की तालिबान शासन और अफगानिस्तान में अल-कायदा के विरुद्ध लड़ाई में पूरा सक्रिय सहयोग करने का वायदा करके एक बार फिर से अमेरिका के करीब आ गया है । विश्व में दो ध्रुव आदर्शवादी आर्थिक और राजनीतिक और प्रत्येक अन्य स्तर पर, सर्वोच्चता के लिए गहन रूप से मुकाबला कर रहे थे ।
तब गुट-निरपेक्ष इस विध्रुव विश्व में एक बच्चे की भाँति अबोध था । लेकिन एक ध्रुव की समाप्ति से विरोधी सैनिक गठबंधनों की प्रासंगिकता और विश्व के प्रत्येक राज्य को किसी-न-किसी एक गुट में शामिल करने की प्रतिस्पर्धा खत्म हो गई है ।
गुटनिरपेक्षता का एक पक्ष भी है । वह यह है कि गुट से संबद्ध राष्ट्र सामान्यत: नेता-राष्ट्र के सिद्धांतनुसार काम करता है । लेकिन गुटनिरपेक्ष देश निर्णय लेने संबंधी अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखता है । इस अर्थ में भारत अभी भी अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता को बनाए हुए है ।
दूसरे अर्थ में, शीत युद्ध के दौरान भारतीय गुट-निरपेक्षता सोवियत संघ की और उन्मुख थी । लेकिन अब रूस स्वयं अपने पूर्व-विरोधी के नजदीक जा रहा है तो यदि भारत भी अमेरिका की और बढ़ता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है ।
इससे पहले, शीत युद्ध के दौरान, नीति निर्माताओं की सामान्य अनुक्रिया होती थी कि भारत का सोवियत संघ की ओर इतना अधिक झुकाव नहीं है बल्कि सबके साथ एक समान है । इसी तरह यदि अमेरिका भारतीय राष्ट्रीय हित को बढ़ावा देने मेँ मददगार हो सकता है तो भारत द्वारा अमेरिका के साथ घनिष्ठ सहयोग से काम करने में कुछ भी गलत नहीं है ।
वैसे, भारत यूरोपीय संघ, फ्रांस और रूस जैसी प्रमुख शक्तियाँ के साथ मिलकर बहुध्रुवीय विश्व की दिशा में काम कर रहा है । इस बीच, भारत ने “पूर्व की ओर देखो नीति” (Look East Policy) अपनाई है और तीव्रता से दक्षिण-पूर्वी देशों के साथ घनिष्ठ संबध बनाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ा है । भारत यूरोपीय संघ, आसियान, जापान और ऑस्ट्रेलिया के ज्यादा निकट जाने की ओर भी अफसर हुआ है ।